वनवासियों के लिए खास है चैती पूनम

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वनवासियों के लिए खास है चैती पूनमgaoconnection

गुजरात के डांग जिले के वनवासियों के त्यौहारों का जब-जब जिक्र आता है, मुझे चैती पूनम की याद जरूर आती है, इसे चैत्र पूर्णिमा भी कहते हैं। भारतीय वनांचलों में रह रहे वनवासियों की सदियों पुरानी परंपराओं और सामाजिक कार्यक्रमों में पूर्णिमा और अमावस्या का बेहद महत्व माना जाता है। जहां एक ओर पूर्णिमा और अमावस्या के दौरान देवी-देवताओं के पूजन का महत्व है वहीं दूसरी तरफ चन्द्रमा से जुड़ी इन घटनाओं को स्वास्थ्य से जोड़कर भी देखा जाता है।

पूर्णिमा का वनवासी जीवनशैली में आध्यात्मिक और धार्मिक महत्व भी काफी है। दक्षिण गुजरात के डांग जिले में शत प्रतिशत वनवासी आबादी बसी हुई है और यहां आमजनों के बीच अमावस्या और पूर्णिमा को लेकर जितनी जानकारी है शायद ही देश के किसी अन्य हिस्से में इस विषय को लेकर इतनी जानकारी एक साथ एक जगह पर इतने सारे लोगों को हो। जब अमावस्या होती है तो पूरे जिले में सारे बाजार बंद होते हैं, यहां तक कि आपको एक प्याला चाय के लिए भी यहां-वहां भटकना पड़ जाए। ऐसी ही एक अमावस्या के दिन मैं डांग जिले के मुख्यालय के विश्राम गृह में रुका हुआ था और शाम को नाश्ते की चाहत में पूरा बाजार खाक छान मारा लेकिन कुछ ना मिला। आमतौर पर सप्ताह के हर दिन खुला रहने वाला बाजार हर महीने अमावस्या के दिन वीरान हो जाता है।

वनवासी इस दिन को शुभ नहीं मानते और उनके अनुसार व्यापार और यात्रा के लिए यह दिन उत्तम नहीं। उनका मानना होता है कि चंद्रमा से परावर्तित हुआ सूर्य का प्रकाश सारी पृथ्वी और इसके जीवों को तेजवान बनाता है और हर शरीर को जबरदस्त ऊर्जा देता है लेकिन पृथ्वी के जिन हिस्सों पर चंद्रमा ही दिखायी ना दे तो वहां एक प्रकार का संकट होता है, अंधेरों में भूत पिशाचों का वर्चस्व होता है और अंधेरा नकारात्मकता का सूचक है और ऐसे में मानव जीव अपेक्षाकृत ज्यादा निर्बल महसूस करता है। ऐसी स्थितियों में यात्रा करना या व्यवहार में रुपयों का आदान-प्रदान शुभ नहीं माना जाता है।

जिस तरह अमावस्या के बारे में लोग एक प्रकार का भय प्रकट करते हैं, उसके विपरीत पूर्णिमा की बात की जाए तो बेहद उत्साहित नजर आते हैं। जो बातें अमावस्या को लेकर की जाती हैं ठीक उसके विपरीत पूर्णिमा को लेकर सुनने में आता है। बुजुर्ग वनवासियों के अनुसार चन्द्रमा तेजवान होता है और पूर्णिमा के दौरान चंद्रमा से टकराकर सूर्य की किरणें पृथ्वी पर समस्त जीवों को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करती है। जैसे-जैसे चांद पूर्णिमा की ओर अग्रसर होता जाता है वैसे-वैसे हमारे दैनिक जीवन में भी सकारात्मकता के भाव आते-जाते हैं।

पूर्णिमा को लेकर पूरे वनवासी समुदाय में जबरदस्त उत्साह होता है। यद्यपि डांग में हर पूनम (पूर्णिमा) को वनवासी अलग-अलग तरह के पूजन और विधि विधान करते हैं लेकिन चैत्र माह में पूनम का अपना अलग महत्व है। जिले में चैत्री पूनम यानि चैत्र माह की पूर्णिमा का खास कार्यक्रम डांग जिला मुख्यालय से 10 किमी दूर धौलीधवड़ नामक गाँव के तुलजा भवानी मंदिर के प्रांगण में किया जाता है। दरअसल इस गाँव में मां तुलजा भवानी का एक मंदिर है और माना जाता है कि मराठा शिवाजी ने इस मंदिर की स्थापना खास अपने हाथों से इसी दिन की थी।

डांग जिले के सबसे बुजुर्ग हर्बल जानकार और वैद्य जानु काका बताया करते थे कि अमावस्या पूर्ण होने के बाद अगले पंद्रह दिनों में ज्यों-ज्यों चंद्रमा पूर्णिमा की ओर अग्रसर होता जाता है त्यों-त्यों मानव शरीर और मानव के इर्द-गिर्द होने वाली घटनाओं में सकारात्मकता आती है और इस दौर में यदि नए व्यवसाय या कार्य की शुरुआत हो तो इन्हें सफलता मिलना लगभग तय होता है। उनके अनुसार चंद्रमा की कलाओं के आकार बढ़ने के साथ-साथ व्यापार और आय भी बढ़ती है लेकिन पूर्णिमा के बाद के पंद्रह दिन जब चंद्र कलाएं आहिस्ता-आहिस्ता आकार में छोटी होती जाती हैं तो नकारात्मकता का भाव आना सहज होता है और इन्हीं कारणों से नए कार्यों के संपादन के लिए यह समय उपयुक्त नहीं माना जाता है, इस दौर को वनवासी “अन्धेर” कहते हैं। 

चैत्री पूनम के दौरान तुलजा भवानी मन्दिर प्रांगण में दो दिनों तक खास कार्यक्रम किए जाते हैं। पूर्णिमा की चटक चांदनी वाली रात में “रुदाली” का आयोजन सबसे रोचक होता है। रुदाली पारंपरिक लोक नृत्य और नौटंकी का रूप लिए एक मिलाजुला सांस्कृतिक कार्यक्रम होता है। रुदाली एक मंच का माध्यम बनकर आम जनों तक प्राकृतिक, सामाजिक और राजनैतिक जन-जागरण और जिम्मेदारियों के संदेश देने का कार्यक्रम होता है। कहानी, कथाओं और लोक नृत्यों के साथ वन से जुड़े मुद्दों की बात और सांस्कृतिक संदेश देने वाले इस खास कार्यक्रम को कम से कम 5000 वनवासी देखते और सुनते हैं। इसी मंच से स्थानीय वन्यजीवों, पेड़-पौधों को बचाने और सामाजिक कुरीतियों से दूर रहने के लिए संदेश दिए जाते हैं। वनवासियों के इस कार्यक्रम में बुजुर्गों से लेकर नन्हे बच्चों की सक्रिय भागीदारी होती है।

पूर्णिमा के दिन तुलजा भवानी मंदिर में एक विशाल यज्ञ आहुति का भी कार्यक्रम भी संपादित होता है। पूर्ण आहुति के साथ यज्ञ सम्पन्न होता है और इस पूजन का मूल उद्देश्य यहां रह रहे वनवासियों के जीवन में खुशहाली, खेतों में अच्छी फसल और ग्रीष्मकाल सम्पन्न होने के बाद अच्छे मानसून की प्रार्थना होती है। पूजा, हवन और पूर्णाहुति के बाद दूर-दूर से पधारे हजारों वनवासियों के लिए भोजन का इंतजाम किया जाता है, इस भोजन को देवी का प्रसाद कहा जाता है। हजारों वनवासियों के लिए मुफ़्त भोजन व्यवस्था खुद समुदाय के बुजुर्ग करवाते हैं। आपसी मेलजोल, सामंजस्य, सामाजिक मेल-मिलाप और सकारात्मक सोच का इससे अच्छा कोई कार्यक्रम मैंने अब तक देखा नहीं, कितना कुछ सिखा जाते हैं वो लोग जिन्हें हम पुरानी सोच और पिछ्ड़ी मानसिकता के समझते हैं।

(लेखक हर्बल जानकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

 

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