वनवासियों के प्रसन्न रहने का फॉर्मूला

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वनवासियों के प्रसन्न रहने का फॉर्मूलाGaon Connection

त्यौहारों को मनाने के लिए “खाऊला, पियूला, मौजूला” यानि खाओ, पीओ और मौज मनाओ, यही संदेश होता है डाँग-गुजरात के वनवासियों का। यहाँ की वनवासी जनजातियों जैसे कुकना, वरली, धोड़िया, नायक आदि के लिए होली जैसे त्यौहार खाने, पीने, नाचने और मौज से जीने के ही त्यौहार होते हैं।

ये वनवासी त्यौहारों के दिनों में सब तकलीफों को एक तरफ रखकर तूर, तरपु, पावी, काहली और ढोल-मंजीरा जैसे वाद्य यंत्रों को हाथों में लिए मस्ती में झूमते गाकर त्यौहारों का आनंद लेते हैं। हाल ही में यहाँ होली के दौरान डाँग दरबार सम्पन्न हुआ। इस दौरान अपने वाद्य यंत्रों जैसे ढोल-नगाड़े, पावी (एक तरह की बांसुरी), माँदल, चंग (बाँस से बना एक छोटा वाद्य यंत्र) को बजाते हुए वनवासी गाँव- गाँव फिरते हुए लोकगीत गाते हुए इस त्यौहार का स्वागत करते हैं।

नाचते हुए वनवासी आपस में रंग गुलाल उड़ाते हुए गाँव के एक छोर से दूसरे छोर तक लोगों को खींचकर नाचने पर मजबूर कर देते हैं। कुछ वनवासी लकड़ी के घोड़े या टाटू बनाकर, उसे पहनकर नाचते हैं तो कई बार पुरुष, महिलाओं की वेशभूषा पहनकर भी खूब मस्ती करते हैं। इस सब के अलावा जिस खास आयोजन का इंतजार समस्त जिलेवासियों को होता है, उसे “डाँग दरबार” कहा जाता है। वनवासी बाहुल्य जिले डाँग में हर वर्ष होली पर्व के ठीक तीन दिन पहले से ही “डाँग दरबार” का आयोजन बड़े जोर-शोर से किया जाता है।

डाँग दरबार एक ऐसी परंपरा है जिसका निर्वाहन पिछ्ले 100 वर्षों से अधिक समय से हो रहा है। रंगारंग सजे इस कार्यक्रम का आयोजन तीन दिनों तक होता है जिसमें बच्चों, महिलाओं से लेकर बुजुर्ग वनवासी बहुत जोश के साथ भाग लेते हैं। डाँग दरबार में वनवासी लोग अलमस्त हो कर नृत्य करते हैं। ढोल व शहनाई की लय पर इनके नृत्य की गति इतनी ज्यादा तीव्र होती है कि दर्शक उनकी गति में रम सा जाता है। वनवासी महिलाएं व पुरुष एक रूप से नाचते हुए पिरामिड जैसा आकार बनाते हैं।

डाँग दरबार में होली के भिन्न भिन्न रंगों की तरह रंग बिरंगी पोशाकें पहनकर वनवासी नाच-गाने के साथ सारे गाँव में फेरी लगाते हुए एक बड़े आयोजन पंडाल तक पहुंचते हैं। जिला मुख्यालय आहवा में आयोजित होने वाले इस पारंपरिक जश्न को पूरे जिले के वनवासी इसी जगह पर एकत्र होकर मनाते हैं। इस दौरान आयोजित होने वाले मेले में आमतौर पर रोजमर्रा की सामाग्रियों के अलावा स्थानीय कलाकारों की कलाकृतियां, जड़ी बूटियां और कई अन्य वस्तुओं का क्रय- विक्रय भी किया जाता है। इसके अलावा शरीर पर देसी तरीकों से गुदना (टैटू) करवाने के लिए भी इस आयोजन को बेहद खास माना जाता है।

पूरे दिन भर जिस तरह की भीड़-भाड़ और चहलकदमी यहाँ देखी जाती है, रातें और भी रंगनुमा और कोलाहलमय हो जाती हैं। मुख्य मैदान पर रोज रात एक विशाल सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है जिसमें स्थानीय कलाकार अपनी प्रतिभाओं का प्रदर्शन करते हैं और करीब 5000 से ज्यादा वनवासी इस कार्यक्रम का आनंद उठाते हैं। डाँग दरबार की पूरी मौज लेने के लिए वनवासी इन तीन दिनों तक सपरिवार जिला मुख्यालय पर ही डेरा डाले रहते हैं।

मजे की बात ये भी है कि इन तमाम लोगों के लिए पूरे भोजन पान की व्यवस्था मुफ्त में की जाती है। इन सब के अलावा डाँग दरबार के दौरान एक सरकारी आयोजन भी किया जाता है जिसमें जिले के राजाओं और नायकों को ससम्मान सरकारी पेंशन आवंटित की जाती है। डाँग दरबार का आयोजन हमारे लिए भी बड़े महत्व का होता है क्योंकि इस दौरान हमारे चुनिंदा बुजुर्ग हर्बल जानकारों का सम्मान महामहिम राज्यपाल महोदय करते हैं। इन जानकारों को आर्थिक मदद के अलावा प्रशस्ति पत्र भी दिया जाता है ताकि इनका मनोबल बढ़े और इनकी अगली पीढ़ी भी प्रेरणास्वरूप इस ज्ञान को सीखें। इस वर्ष अभुमका हर्बल की तरफ से जिले के होनहार बच्चों को गत वर्ष की शैक्षणिक उपलब्धियों के लिए स्कॉलरशिप और प्रशस्ति पत्र दिए गये। त्यौहारों के बहाने आपसी मेलजोल, नाच-गाना, खुशियों को बाँटना और असल जिंदगी के मज़े लेना यानी “खाऊला, पियूला, मौजूला” का ख्याल बेहद रोमांच पैदा करता है, क्या हम शहरी लोग इन वनवासियों से जीने के इस अंदाज़ को सीख नहीं सकते?

(लेखक हर्बल जानकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

 

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