तवायफों से सीखे हुए संगीत ने दिलाई मौजुद्दीन खां को शोहरत

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यतींद्र की डायरी के इस नए एपिसोड में यतींद्र मिश्र सुना रहे हैं बनारस से जुड़ी एक कहानी। बनारस का अर्थ है संगीत और मौसिकी की महफ़िल, साथ ही यहां की तमाम सारी परम्पराएं जिसमें ठुमरी, टप्पा, दादरा, कजरी शामिल हैं। ये कहानी उस्ताद मौजुद्दीन खां साहब से जुड़ी हुई है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में मौजुद्दीन खां के पिता गुलाम अली खां साहब बनारस आए और अपने साथ दो छोटे बेटों उस्ताद मौजुद्दीन खां और उस्ताद रेहमुद्दीन खां साहब को लेकर आए।

इस समय राजा प्रभुनारायण सिंह हुआ करते थे। उनके दरबार में दो बड़े कलाकार सितारवादक आशिक़ अली खां साहब और जियां खां साहब मौजूद थे। आशिक़ अली खां साहब से मौजुद्दीन खां साहब के पिता की अच्छी दोस्ती थी और उनकी सिफारिश पर प्रभुनारायण सिंह के दरबार में गुलाम हुसैन खां साहब को अपना हुनर दिखाने का मौका मिला। ज़ाहिर सी बात है गुलाम हुसैन खां साहब बहुत बड़े सितारवादक थे और गायक भी। गुलाम ने अपनी कला से आखिर में प्रभुनारायण सिंह का दिल जीत ही लिया। इस तरह मौजुद्दीन खां और अपने छोटे बेटे को लेकर गुलाम हुसैन खां बनारस में बस गए। यहां बच्चों की संगीत की तालीम होने लगी।

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आगे कुछ साल बीतने पर जब मौजुद्दीन खां साहब 15 वर्ष के थे, उनका एक दोस्त बना जो बाई जी के कोठे पर काम करता था। उनका दोस्त जब भी कोठे पर जाता तो वहां बाई जी को बताता कि मौजुद्दीन कितना अच्छा गाते-बजाते हैं। एक दिन आखिरकार बाई जी भी सोच में पड़ गईं की आखिरकार वो कौन है जो इतना अच्छा गाता है। एक दिन मौजुद्दीन के उस दोस्त ने उनसे कहा की बाई जी तुम्हारा गाना सुनना चाहती हैं।

मौजुद्दीन खां को तो बस एक मौका चाहिए था अपना हुनर दिखाने का और वो पहुंच गए सुग्गन बाई की कोठे पर। कोठे पर्व पहुंचकर जब मौजुद्दीन साहब ने अपना गाना सुनाया, सुग्गन बाई बहुत खुश हुईं। इस तरह शुरू हुई मौजुद्दीन साहब की मैना और सुग्गन बाई की कोठे पर दबे कूचे ढंग से संगीत की तालीम।

अब होता ये था कि एक तरफ आशिक़ अली खां, अपने पिता से संगीत सीखने वाला व्यक्ति और अपनी परंपरा में संगीत जानने वाला व्यक्ति सुग्गन बाई के कोठे पर तमाम सारी मेढ़ और खटके ये सब सीखने लगा। देखते-देखते दाल मंडी में रहने वाली तमाम तरह की तवायफों के चहेते हो गए मौजुद्दीन साहब। हर तवायफ मौजुद्दीन को उनके नाम से पुकारती थी। मौजुद्दीन सभी के कोठी पर जाते और संगीत सीखते थे। मौजुद्दीन खां साहब को सारी तवायफों की सोहबत बहुत रास आई। धीरे-धीरे ये बात हर जगह फैलने लगी कि मौजुद्दीन तवायफों से सीखे हुए संगीत को उनसे भी बेहतर ढंग से गाते हैं। अपने सीखे हुए ज्ञान के बल पर एक दिन ऐसा भी आया जब मौजुद्दीन साहब संगीत में बाइयों को कहीं दूर पीछे छोड़ आए और पूरे बनारस में मौजुद्दीन की वाहवाही होने लगी।

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आगे जब बाइयों को लगा की मौजुद्दीन संगीत में उनसे कहीं आगे निकल गए तो उन्होंने अपने ज्ञान को मौजुद्दीन से छिपाने का सोचा। एक दिन ऐसा भी आया जब मौजुद्दीन साहब शिखर पर पहुंच गए तब उनकी चाहने वाली सारी बाइयों ने उनसे किनारा कर लिया। इतिहासकारों के मुताबिक एक सुग्गन बाई ही थीं जिन्होंने मौजुद्दीन से अंत तक किनारा नहीं किया।

   

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