योगासन, जीवधारियों की प्राकृतिक मुद्राओं पर आधारित है

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योगासन, जीवधारियों की प्राकृतिक मुद्राओं पर आधारित हैgaonconnection

सारी दुनिया 21 जून को योग दिवस मना रही है लेकिन कुछ लोग यह भ्रम पाल रहे है कि योग का सम्बन्ध हिन्दू धर्म से है। वे भूल जाते हैं कि भारत के लोगों ने कभी ज्ञान का पेटेन्ट नहीं कराया। दुनिया को 1 से 9 तक गिनतियां दीं, शून्य का सिद्धान्त दिया, प्लास्टिक सर्जरी की विधा दी, टेलीपैथी का सिद्धान्त दिया और योग तो दिया ही। उन वैज्ञानिकों ने कभी भौतिक ज्ञान को पूजा पद्धति से नहीं जोड़ा और न अपना ढिंढोरा पीटा।

प्रकृति पूजा का सम्बन्ध किसी धर्म विशेष से नहीं है, सभी धर्म मानते हैं कि ज़र्रे-जर्रे में परमेश्वर है और ऐसी जगह नहीं जहां खुदा न हो। तो हम सूर्य नमस्कार करें या धरती को प्रणाम करें उस महाशक्ति को ही सज़दा कर रहे होते हैं जिसे हम अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। विज्ञान के सिद्धान्त प्राकृतिक घटनाओं से विकसित हुए हैं, योग भी उन्हीं में से एक है। जब न्यूटन ने ध्यान से देखा कि पेड़ से गिरा सेब सीधे धरती पर आ गया तो सोचा कि यह सेब जमीन पर ही क्यों गिरा, इधर या उधर क्यों नहीं गया। उन्होंने नतीजा निकाला कि पृथ्वी अपने गुरुत्वाकर्षण बल के कारण सभी चीजों को अपनी ओर खींचती है। योग भी इसी तरह ध्यानपूर्वक किए गए निरीक्षण का परिणाम है।  

मनुष्य और जानवर विविध शारीरिक क्रियाएं हमेशा से करते आए हैं जैसे सेब हमेशा से गिरते रहे हैं। महर्षि पतंजलि ने उन क्रियाओं को ध्यान से देखा और अष्टांग योग के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया। आप ने भी सांप को जमीन पर लेटे हुए फन उठाए देखा होगा। यही तो है भुजंगासन। कुत्ते, बिल्ली और मनुष्य को अंगड़ाई लेते हुए देखा होगा। ताड़ासन, हलासन और धनुरासन ही तो करते हैं ये सब। अनेक आसन जानवरों के नाम से या फिर शरीर की पोजीशन से जाने जाते हैं। इन मुद्राओं के साथ जब मन-मस्तिष्क का तालमेल रहता है तो योग बन जाता है। 

जब कोई मुस्लिम कहता है कि हम नमाज पढ़ते हुए अनेक योग मुद्राएं करते हैं तो वह ठीक कहता है। यही तो हिन्दू करता है जब वह योग मुद्राओं में रहते हुए कहता है सब सुखी हों, सब चिन्तारहित हों। इसी को वह संस्कृत में कह देता है ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः”। तो विरोध किस बात का है क्रियाओं का या शब्दों का? यदि कोई चाहे तो इन्हीं बातों को उर्दू अरबी या फारसी में कह सकता है और यदि ना चाहे तो योगाभ्यास ही ना करे क्योंकि योगाभ्यास देशभक्ति का नहीं जनकल्याण का विषय है।

जब कोई व्यक्ति आंखें बन्द करके ध्यान लगाता है तो मन में उत्तेजना नहीं रहती, मारो काटो के भाव नहीं आते और उसे लगता है सारी धरती के लोग हमारा परिवार हैं। वह इसे संस्कृत में कह देता है ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्”। इस प्रकार मन को शान्त करके मनोविकारों को दूर करने का योगाभ्यास से बेहतर कोई उपाय नहीं है। कुछ लोग सोचते हैं कि योग के बदले कसरत कर सकते हैं, जिम जा सकते हैं, खेल कूद में भाग लेकर शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं। यह सच भी हो सकता है परन्तु मन-मस्तिष्क का व्यायाम वहां नहीं होगा। मांसपेशियों की कसरत और रक्त संचार के लिए विविध व्यायाम तो काम करेंगे परन्तु शरीर के अन्दर के अंगों का व्यायाम सहज रूप से तो योग से ही होगा। प्राणायाम से फेफड़े, लीवर, किडनी, हृदय और दिमाग सभी का व्यायाम हो जाता है। योग में अंग प्रत्यंग का व्यायाम सहज रूप से होता है जबकि जिम वगैरह में हठपूर्वक व्यायाम होता है।

जब हम श्वास क्रियाओं को एक क्रम से करते हैं या ओंकार, भ्रामरी या जलनेति करते हैं तो आन्तरिक शरीर की शुद्धि होती है। मोदी ने अमेरिका की संसद में ठीक ही कहा हम योग ज्ञान का बौद्धिक सम्पदा मूल्य नहीं मांगेंगे या इसका पेटेन्ट नहीं कराएंगे। योग को इसलिए त्यागना ठीक नहीं कि इसे हजारों साल से भारत में मान्यता मिली है। सरल भाषा में इसे विज्ञान के रूप में स्वीकार करना चाहिए न कि धर्म के रूप में। ओंकार की ध्वनि तरंगें यदि मन मस्तिष्क को स्वस्थ करती हैं तो इसे स्वीकार कीजिए या न कीजिए, मर्जी आप की। इतना जरूर है कि यह विधा जो बिना दवाई और बिना खर्चा के शरीर और मन को निरोग करती है, किसी के भगवान के विरुद्ध नहीं हो सकती।  

 

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