''महामना'' के विश्वविद्यालय में संकीर्णता की घृणित सोच?
Dr SB Misra 21 Nov 2019 7:08 AM GMT
महामना पंडित मदनमोहन मालवीय ने भारत के उदात्त विचारों और सार्वभौम चिन्तन को पुनरस्थापित करने के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। उसी सरस्वती मन्दिर के चयनकर्ताओं ने संकीर्णता का तटबंध तोड़ते हुए एक मुस्लिम विद्वान शिक्षक को ज्ञान देने के लिए चुना और विश्वविद्यालय प्रशासन ने स्वीकार किया। ऐसे छात्र किसने पैदा किए हैं जो इसका विरोध कर रहे हैं। ऐसी विषाक्त दिशा देने वाले वृहस्पति नहीं कोई शुक्राचार्य ही होंगे जो राक्षसी ज्ञान बांटते हैं।
इस देश में पीड़ा दायक यही रहा है कि ज्ञान का भंडार अधिकांशत ब्राह्मणों के हाथ में रहा लेकिन आज ऐसे घृणित आन्दोलन के अगुआ नहीं हैं क्योंकि संघ परिवार की ओर से ऐसे आन्दोलन की निन्दा की गई है। यह गर्व का विषय होना चाहिए कि मुस्लिम समाज बढ़-चढ़कर संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति को अंगीकार कर रहा है।
स्वामी विवेकानन्द ने ब्राह्मणों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि ज्ञान के खजाने का चार्ज समाज को सौंप दो और किनारे हो जाओ। समाज में जाति-धर्म का भेद उनके मन में नहीं था। अतीत भारत में इस्लाम का जन्म तो नहीं हुआ था लेकिन जाति व्यवस्था से बेपरवाह भारतीयों ने महर्षि वाल्मीकि जो निम्न जाति से थे उन्हें उनके ज्ञान के कारण उच्च स्थान और सम्मान दिया और वेदव्यास जो मत्स्यकन्या के गर्भ से जन्मे थे समाज में पूज्य माने गए तो क्या फिरोज खान को उचित स्थान नहीं मिलना चाहिए।
Varanasi: Members of National Students' Union of India (NSUI) and All India Students Association (AISA) hold a demonstration at Banaras Hindu University (BHU) in support of Professor Feroz Khan, who is facing protests for being appointed in BHU's Sanskrit Department. pic.twitter.com/mkYeubet8l
— ANI UP (@ANINewsUP) November 20, 2019
यह देश तो वसुधा को कुटुम्ब मानता है और सभी के सुख की कामना करता है तो ऐसे कौन से ज्ञानहीन अध्यापक रहे होंगे जिन्होंने छात्रों को ऐसा निम्नकोटि का ज्ञान दिया कि एक मुस्लिम से संस्कृत नहीं पढ़ी जा सकती। आशा है कि प्रदेश और देश की सरकारें इस प्रकरण को गम्भीरता से लेंगी, क्योंकि ऐसे लोग कम्प्यूटर भाषा बनने की क्षमता वाली संस्कृत को सर्वमान्य नहीं बनने देंगे।
फिरोज खान को विश्वविद्यालय की चयन समिति ने चुना है और किसी प्रकार के भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा है। इस अध्यापन में कर्मकांड या धर्म से कोई मतलब नहीं तो नियुक्ति का विरोध किस आधार पर है। कष्ट इस बात का है कि छात्र संगठन विभिन्न राजनैतिक दलों से सम्बद्ध हैं और उनके इशारे पर काम करते हैं। यदि ऐसा है तो छात्रों के नाम और उनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता का अविलम्ब खुलासा होना चाहिए।
यह संयोग हो सकता है कि जवाहर लाल नेहरू और जादवपुर विश्वविद्यालय में वामपंथी विचारधारा से जुड़े छात्र आन्दोलित हैं। हालांकि वामपंथियों का हिन्दू कर्मकांड संस्कृत वर्चस्व से कुछ लेना देना रहता नहीं है फिर भी जांच तो होनी ही चाहिए। यह सरकार को देखना है क्या ऐसे विद्यालयों और विश्वविद्यालयों पर जो देश विरोधी, समाजविरोधी और उद्देश्य विरोधी गतिविधियां चलाने वाले छात्रों की फैक्ट्री बन चुके हैं, उन पर अंकुश नहीं लगना चाहिए। समय रहते यदि प्रभावी कदम न उठाए गए तो बहुत देर हो जाएगी।
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