जलवायु परिवर्तन का कृषि पर पड़ रहा है प्रभाव

Divendra SinghDivendra Singh   22 March 2017 6:13 PM GMT

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जलवायु परिवर्तन का कृषि पर पड़ रहा है प्रभावउत्तर प्रदेश कृषि अनुसंधान परिषद (उपकार) में आयोजित एक दिवसीय कार्यशाला में प्रदेश भर से आए कृषि विशेषज्ञों जानकारियां दीं।

स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

लखनऊ। पिछले कुछ वर्षों में समय से जलवायु में परिवर्तन की वजह से समय से बरसात न होने से गेहूं और धान सहित कई फसलों की पैदावार प्रभावित हो रही है। उत्तर प्रदेश कृषि अनुसंधान परिषद (उपकार) में आयोजित एक दिवसीय कार्यशाला में प्रदेश भर से आए कृषि विशेषज्ञों कैसे जलवायू परिवर्तन के प्रभाव को कम किया जा सकता है।

पिछले कई वर्षों से मौसम की असामान्य परिस्थितियां बढ़ गई हैं। जैसे एक ही दिन में अत्यधिक वर्षा, पाला, सूखे का अंतराल, फरवरी, मार्च माह में तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि, मार्च-अप्रैल माह में तेज बारिश, ओला वृष्टि होने लगी है। सबसे अहम समस्या तो तूफानों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। तूफानों के कारण जनजीवन पर प्रभाव पड़ ही रहा है, पर फसलें बरबाद होने लगी हैं।

डॉ. मिल्खा सिंह औलख, पूर्व कुलपति, बांदा कृषि विश्वविद्यालय ने कहा, "जलवायू परिवर्तन एक वास्तविक और सतत प्रक्रिया है, जिसका कृषि पर प्रभाव पड़ेगा जिसको स्वीकार करना होगा। इसके लिए किसानों के साथ कृषि विशेषज्ञों को भी ध्यान देना होगा।"

ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन रोकने के लिए फसल अवशेषों का न जलाना, धान उत्पादन में मिथेन उत्पादन को कम करने के लिए किसानों को ध्यान देना चाहिए। नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्यागिक विश्वविद्यालय के मौसम विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. पद्माकर त्रिपाठी ने बताया, "मानसून के समय में बदलाव की वजह से कृषि प्रभावित हो रही है, पिछले कुछ वर्षों में असमय बारिश और ओलावृष्टि से किसानों को नुकसान उठाना पड़ा था, पिछले कुछ वर्षों में सूखे की वजह से धान की पैदावार भी घट गयी थी।"

सूखाग्रस्त क्षेत्रों में धान की खेती न करके तराई वाले क्षेत्रों में धान की रोपाई के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए। खेतों में नाइट्रोजन का प्रयोग कम से कम करनी चाहिए, जिससे नाइट्रस आक्साइड वातावरण में कम पैदा हो, इसके साथ ही खेतों में दलहनी फसलों की खेती को बढ़ावा देना चाहिए।

डॉ. एमएम अग्रवाल, पूर्व कुलपति, चन्द्र शेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय बताते हैं, "ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को कम करने के लिये बांस के पौधों का रोपण, जीरो टिलेज से गेहूं और दूसरी फसलों की बुवाई, करनी चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में ग्रीन हाउस का उत्सर्जन बढ़ा है।"

वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत के उपयोग पर जोर देना चाहिए। ऊर्जा उपयोग क्षमता को बढ़ाने के लिये यंत्रीकरण और प्रभावी फार्म एप्लाएंसेज का उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए। पशुओं को संतुलित आहार देना चाहिए जिससे वातावरण में मिथेन गैस का उत्सर्जन कम हो।

खेतों में कम करें रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग

खेतों में रासायनिक खादों व कीटनाशकों के इस्तेमाल से जहां एक ओर मिट्टी की उत्पादकता घटती है, वहीं दूसरी ओर इनकी मात्रा भोजन के माध्यम से शरीर में पहुंच जाती है, जिससे कई तरह की बीमारियां होती हैं। रासायनिक खेती से हरित गैसों के उत्सर्जन में भी इजाफा होता है। इसलिए किसानों को जैविक खेती, जीरो बजट या प्राकृतिक खेती करने की तकनीकों पर अधिक से अधिक जोर देना चाहिए। उर्वरक की जगह कम्पोस्ट खाद, केंचुआ खाद, रासायनिक कीटनाशक की जगह नीम के पेस्ट आदि का प्रयोग होना चाहिए।

    

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