बिहार: गरीब घरों की लड़कियों को फुटबॉलर बना रही एक स्पोर्ट्स एकेडमी

किसी पंचर बनाने वाले की बेटी राष्ट्रीय स्तर पर फुटबाल खेलेगी? किसी दिहाड़ी मजदूर की बेटी स्टेट लेवल पर गोल्ड जीतेगी? कुछ साल पहले तक बिहार में ऐसा सपने में सोचना मुश्किल ही था, आज भी खेल के मामले में बिहार में पंजाब-हरियाणा जैसा माहौल नहीं, लेकिन सिवान में कुछ ऐसा हो रहा है, जहां गांव के खलिहान जैसे मैदान से महिला खिलाड़ी निकल रही हैं।

O P SinghO P Singh   20 Dec 2021 10:38 AM GMT

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बिहार: गरीब घरों की लड़कियों को फुटबॉलर बना रही एक स्पोर्ट्स एकेडमी

बिहार के सिवान जिले में स्थित है रानी लक्ष्मी बाई महिला स्पोर्ट्स एकेडमी। फोटो साभार एकडेमी फेसबुक पेज

मैरवा (सिवान, बिहार)। कई किलोमीटर ऊबड-खाबड़ कच्चे रास्ते पर चलने के बाद खेतों के बीच एक बड़े मैदान में कुछ लड़कियां दौड़ते हुए फुटबाल पर किक मार रही हैं तो दूसरी तरफ वॉलीबॉल की प्रैक्टिस चल रही है। मैदान पर पसीना बहा रही लड़कियों में 7 साल की आदिति कुमारी से लेकर 18 साल की रागिनी तक शामिल हैं। खेल के प्रति जज्बा होने के अलावा इनमें एक बात और एक जैसी है, ज्यादातर लड़कियां बेहद गरीब घरों से हैं। किसी के पिता पंचर बनाते हैं तो किसी के घर का खर्च दिहाड़ी मजदूरी से चलता है।

बिहार की राजधानी से पटना से करीब 150 किलोमीटर दूर सीवान जिले के मैरवा में रानी लक्ष्मीबाई स्पोर्ट्स एकेडमी ग्रामीण बच्चियों में उम्मीद जगा रही है। साल 2009 में अपनी स्थापना के बाद से इस एकेडमी ने राष्ट्रीय ही नहीं अंतराष्ट्रीय स्तर पर कई खिलाड़ी दिए हैं।

13 साल की निक्की कुमारी रोज घंटों हैंडबॉल की प्रैक्टिस करती है। घर चलाने के लिए उसके पिता दूसरों के खेतों में कस्बों में मजदूरी करते हैं। निक्की खुद भी घर का सारा काम करके खेलने आती है। निक्की कहती हैं, "घर का काम निपटाने के बाद पढ़ाई भी करती हूं और खेलने भी आती हूं क्योंकि मुझे देश के लिए खेलना है।" निक्की की तरह रागिनी और नीतू भी ऐसे ही सपने देखती हैं।

एकेडमी में ट्रेनिंग लेने वाली कई लड़कियों के अरमानों को आसमान मिल भी चुका है। 13-14 साल की खुशबू कुमारी दो बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के लिए हैंडबाल टीम की तरफ से खेल चुकी हैं। किसान पिता की बेटी खुशबू को हाल में ही सिवान के स्थापना दिवस के मौके पर जिलाधिकारी ने सम्मानित भी किया था।

नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक गरीबी के मामले में पहले पायदान पर खड़े बिहार में गरीबी, कुपोषण, पयालन के बीच ग्रामीण बच्चों के लिए खेल की जगह काफी कम बचती है। माता-पिता दो वक्त की रोटी के लिए देश के बड़े शहरों में भटकते रहते हैं तो महिलाएं किसी तरह बच्चों का पेट पालती हैं, ऐसे में खासकर लड़कियों के लिए प्राथमिक पढ़ाई हो जाए वही बड़ी बात है, खिलाड़ी बनना तो किसी सपने जैसा है। लेकिन उम्मीद के कुछ अंकुर यहां भी फूटे हैं।

एकेडमी के मैदान में अभ्यास करती फुटबाल खिलाड़ी।


पंचर बनाने वाले की बेटी ने किया है देश का प्रतिनिधित्व

बिहार जैसा लैंगिक असमानता वाले राज्य में कई लड़कियां खेल के जरिए ही अपने परिवार के लिए सहारा बनी हैं। 24 साल की तारा खातून फिलहाल रेलवे में खेल कोटे से नौकरी कर रही हैं। हाल ही में उनकी तैनाती केरल हुई है। पंचर बनाने वाली की बेटी तारा खातून कभी इसी एकेडमी की खिलाड़ी रही हैं।

तारा फोन पर गांव कनेक्शन को बताती हैं, "ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिभाओं की कमी नहीं है बल्कि पूरे देश में कहीं भी किसी भी तरह की प्रतिभा की कमी नहीं है। जरूरत है तो उन्हें ढूढ़ने, पहचानने, प्रशिक्षण देने और प्लेटफॉर्म मुहैया कराने की। देश की बेटियां कहीं भी किसी भी मायने में किसी से कम नहीं है। हिमा दास हो अथवा पीटी उषा, इन्होंने पूरे देश को गौरवान्वित किया है। ऐसी ही अनगिनत प्रतिभाएं ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक रूढ़िवादिता और सरकारी अनदेखी के अंधकार में गुम हैं।"

2013 में फ्रांस में हुई प्रतियोगिता में देश के लिए फुटबॉल टीम का हिस्सा रहीं तारा ने बताया कि जब वह पहली बार खेलने के लिए घर से निकली थीं तब गांव और समाज के लोगों को रास नहीं आया था, लेकिन आज जब मैं यहां तक पहुंची हूं तो वही लोग अपने घर की बेटियों को खेलने को मेरा जैसा बनने को कहते हैं। तारा सरकारों से ऐसी बच्चियों को बेहतर ट्रेनिंग और सुविधाएं देने की वकालत करती हैं।

ऐसे ही राष्ट्रीय स्तर पर फुटबॉल खेल रही अमृता फोन पर गांव कनेक्शन को बताती हैं, हमारे साथ की, आसपास की कई लड़कियां बेहतर खेल सकती थीं लेकिन वो पारखी नजरों की अनदेखी की वजह से गुम हो गईं।"

पैरों में फुटबाल फंसाए एक दूसरे को चकमा देकर गोल करने की जुगत में लगी इन लड़कियों को दूर खड़े संजय पाठक गौर से देख रहे हैं। उनकी नजर लड़कियों के पैरों पर है, जैसे मामूली चीजों को भी वो नोट कर रहे हैं। कभी वो लड़कियों का उत्साह बढ़ाते हैं तो कभी खीजते भी दिखते हैं। संजय इस एकेडमी के संस्थापक हैं हालांकि उनका खेल से दूर तक नाता नहीं है। सामाजिक विज्ञान के सरकारी शिक्षक संजय पाठक ने 19 नवंबर 2009 में इस खेल एकेडमी की नींव रखी थी।


दो लड़कियों के खेल प्रेम से शुरु हुई थी कहानी

खेल के प्रति उपजे लगाव और एकेडमी बनाने के पीछे की कहानी संजय बताते हैं, " 2009 में शिक्षक के तौर पर मेरा तबादला मैरवा में हुआ तब भारत सरकार की एक महत्वकांक्षी खेल योजना "पंचायत युवा खेल अभियान (पाईका)" चल रही थी। विद्यालय की दो बच्चियों तारा खातून और पुतुल कुमारी ( जो छठी क्लास में पढ़ती थीं) दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेना चाहती थीं, बच्चियों के बार-बार कहने पर मैंने दौड़ के लिए ट्रेनिंग की व्यवस्था कराई। पहले प्रयास में ही दोनों लड़कियां प्रखंड स्तर पर गोल्ड जीत लाई थीं फिर दोनों का चयन जिले के लिए हुआ वहां भी उन्होंने खेला और स्टेट लेवल पर सिल्वर और गोल्ड जीता। बाद में ये लड़कियां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी देश के लिए खेलीं। तारा खातून और पुतुल कुमारी की उड़ान देखकर मुझे लगा कि अगर गांव की लड़कियों को सही से ट्रेनिंग मिल जाए तो वो कमाल कर सकती हैं। फिर रानी लक्ष्मीबाई स्पोर्ट्स एकेडमी की नींव पड़ी।"

संजय के मुताबिक उनकी इस एकैडमी से निकलकर एक दर्जन से ज्यादा लड़कियां अंतरराष्ट्रीय खेल चुकी हैं तो 60 से अधिक राष्ट्रीय खिलाड़ी निकल चुकी हैं। संजय बताते हैं, "60 से ज्यादा यहां ये राष्ट्रीय खिलाड़ी निकल चुकी हैं तो बेहतर प्रदर्शन करने वाली डेढ़ दर्जन से अधिक लड़कियां भारतीय रेलवे, एसएसबी और अन्य विभागों में तथा राज्य सरकारों के भी विभिन्न दफ्तरों में खेल कोटे से नौकरी कर रही हैं।"

बिहार का ये इलाका पूर्वी यूपी से करीब है। पूर्वांचल के मुख्य शहर गोरखपुर से यहां की दूरी महज 80 किलोमीटर है लेकिन रास्ता बेहद खराब है। अगर आप गोरखपुर के रास्ते पहुंचना चाहते हैं तो 10 किलीमीटर का रास्ता ऐसा है कि कार रेंगते हुए चलेगी। दुर्गम इलाके में स्थित रानी लक्ष्मी बाई स्पोर्ट्स एकेडमी में रागिनी, तारा, खुशबू, अमृता, रेशमा, निक्की, सुमन जैसी लड़कियां देश के लिए खेलने के लिए रोज मशक्कत करती हैं।

12 साल की शिबू कुमारी बिहार टीम की ओर से त्रिपुरा में आयोजित हुए राष्ट्रीय फुटबॉल प्रतियोगिता में खेल चुकी हैं। 2018 में हुई इस खेल में उन्होंने प्रतिद्वंदी टीम को जबरदस्त टक्कर दी थी। उसके पहले हरियाणा में हुए राष्ट्रीय स्तर के खेल में उनकी टीम क्वार्टर फाइनल तक पहुंची थी। 9 साल की पारो कुमारी, 8 साल की सोनी, इसी उम्र की रवीना खातून, 8 साल की खुशबू, 11 साल की रानी, हम उम्र की नीति और महज 7 साल की अदिति कुमारी इनमें सबसे छोटी है। हालांकि एकेडमी की स्थपना का सफर आसान नहीं रहा। शुरुआत में उन्होंने अपनी एक एकड़ से कम जमीन पर 7-8 बच्चियों के प्रैक्टिस की शुरुआत कराई।

संजय पाठक बताते हैं, "अपनी जमीन थी तो पैसा नहीं लगना था लेकिन बाद में खर्च के लिए बीवी के गहने गिरवीं रखें, कुछ बिक भी गए। बाद में जब लड़कियां स्टेट लेवल पर मेडल जीती, फिर लोगों का ध्यान गया और आसपास के कई कारोबारियों, स्थानीय लोगों और नेताओं ने आर्थिक मदद की। कुछ लोग अनाज और इनके लिए दूध भी दे जाते थे। आज भी हमारी सैलरी का बड़ा हिस्सा इनमें खर्च होता है।"

विधायक बोले सदन में उठाउंगा मुद्दा

स्थानीय विधानसभा जीरादेई से सीपीआई (एमएल) के विधायक अमरजीत कुशवाहा ने गांव कनेक्शन को फोन पर बताया कि रानी लक्ष्मीबाई स्पोर्ट्स एकेडमी और यहां से राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राज्य का नाम रोशन करने वाली लड़कियां हमेशा से ही सरकार की उपेक्षा की शिकार रही हैं। एकेडमी में दलित और पिछड़े वर्ग की बच्चियां जिस संघर्ष के जरिए न केवल घर परिवार का बोझ ढो रही हैं बल्कि देश-समाज को गौरवान्वित कर रही हैं। उनके प्रति सरकार को तत्काल अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए उन्हें बेहतर प्रशिक्षण, खेल के लिए उचित प्लेटफार्म और खेल से संबंधित सुविधाएं उपलब्ध करानी चाहिए। विधानसभा के अगले सत्र में हम इस मुद्दे को सदन में उठाएंगे और बच्चियों के लिए सरकारी इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित करने हेतु ध्यानाकर्षण करेंगे।

नहीं मिला सरकार का जवाब

इस संबंध में प्रतिक्रिया के लिए गांव कनेक्शन की टीम ने राज्य के खेल मंत्री डॉ आलोक रंजन से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन फोन नहीं उठाया गया। इस संबंध में किए गए मैसेज का भी जवाब नहीं मिला है। वहीं दूसरी ओर खेल और खिलाड़ियों के विकास के लिए समर्पित संस्था क्रीड़ा भारती के उत्तर बिहार प्रांत के सह मंत्री व वरिष्ठ पत्रकार नवीन सिंह ने कहा, "सरकार और स्थानीय प्रशासन को बिना देरी किए इन बच्चों के बेहतर प्रशिक्षण और खेल के लिए उचित प्लेटफार्म मुहैया कराने की व्यवस्था करनी चाहिए। बिहार सरकार का एकलव्य खेल सेंटर मैरवा से चंद किलोमीटर की दूरी पर है लेकिन आज तक वहां से कोई भी ऐसा खिलाड़ी नहीं निकला जो राज्य या देश के लिए गौरव रहा हो।"

मैदान से लौटते गांव कनेक्शन के रिपोर्टस से फुटबाल खेल रही लड़कियों ने कहा, वीडियो बनाकर रख लीजिए, हम अपने देश के लिए मेडल जीतकर लाएंगे।"

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