पहले नाते रिश्तेदार पूरा करा जाते थे खेत का काम, अब क्यों खत्म हो गई सहकार जजमानी परंपरा?

अगर आप का भी गाँव कनेक्शन है तो आपने गाँव की सहकार और जजमानी व्यवस्था के बारे में ज़रूर सुना होगा, चलिए जानते हैं आखिर क्यों लोग इससे अब दूरी बना रहे हैं।

Ashwani Kumar DwivediAshwani Kumar Dwivedi   28 Jun 2023 4:44 AM GMT

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पहले नाते रिश्तेदार पूरा करा जाते थे खेत का काम, अब क्यों खत्म हो गई सहकार जजमानी परंपरा?

“पानी भरे खेत में हमारे साथ साली धान लगा रही हैं, साले साहब धान की बेड़ (धान की पौध) लाकर दे रहे हैं, जीजा और साढू खेत में पानी भर रहे हैं। फ़सल की कटाई, बुवाई के मौके खुशियों वाले और काम के साथ मौज मस्ती भरे होते थे। नाते रिश्तेदारों और अपने करीबी लोगों के साथ खेत में ही दोपहर का खाना और शाम को काम ख़त्म होने के बाद होने वाली बैठक और चहल पहल भरा घर कमाल का था। ख़ेती में काम के साथ रिश्तों में अपनापन, एक दूसरे के सहयोग की यादें इन रिश्तों को उम्र भर साथ बाँधे रखने का मज़बूत ज़रिया थी । ” गुज़रे दिनों को याद करते हुए 65 साल के विशम्भर प्रसाद गाँव कनेक्शन को बताते हैं।

पुरानी बातों को याद करते समय उत्तर प्रदेश के सीतापुर के टप्पा खजुरिया गाँव के विशम्भर के चेहरे पर अलग ही रौनक दिखती है।

अतीत से बाहर आकर वो अपनी बात को जारी रखते हुए कहते हैं, "लगभग दो दशक पहले ख़ेती में मशीनों का इस्तेमाल न के बराबर था और लगभग हर किसान के पास थोड़ी बहुत ज़मीन थी। ऐसे में फ़सल के वक़्त सबके पास एक साथ काम आ जाता। आज भी फ़सल के समय मज़दूरों की कमी होने के साथ उनके रेट भी बढ़ जाते हैं। बाहर ज़्यादा पैसे ख़र्च करने को उन दिनों फिजूलखर्ची माना जाता था। इसलिए गाँव या नाते रिश्तेदारी के लोग ऐसे मौके पर एक दूसरे के खेत में फ़सल के वक्त आकर सहयोग कर देते और बदले में अपनी फ़सल का काम पूरा होते ही हम लोग अपने सहयोगी नाते रिश्तेदारों के यहाँ जाकर उनकी फ़सल कटाई, बुवाई में मदद कर देते।"


विशम्भर प्रसाद के मुताबिक़ इसे प्रथा कहें या फिर एक दूसरे के साथ जुड़े रहने का माध्यम, धीरे-धीरे गाँवों में पहुँच रही शहर की हवा ने लगभग इसे ख़त्म कर दिया है।

विशम्भर नाथ थोड़ा मायूस होते हुए कहते हैं, "शायद आने वाले समय में एकल परिवार और सीमित रिश्तों को पसंद करने की प्रथा की हवा के चलते हमारे गाँव की भी यही दशा हो और कभी लोग इस बात पर भरोसा न करें कि गाँव में भी कभी आपसी सहकार की ऐसी कोई व्यवस्था चलती थी।"

लखनऊ ज़िले के हन्नीखेड़ा गाँव के पंकज भी विशम्भर प्रसाद की बातों का समर्थन करते हैं। गाँव में हो रहे बदलाव पर वो अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहते हैं, "गेहूँ की कटाई के लिए थ्रेशर हमारे गाँव में नब्बे के दशक में आया उसके पहले गेहूँ की मड़ाई बैलों से होती थी और ये बहुत ज़्यादा मेहनत का काम था, गेहूँ की मड़ाई के वक्त गाँव के लोग अपने मित्रों, रिश्तेदारों से बैलों की जोड़ी माँग लिया करते थे और गेहूँ की मड़ाई पूरी होने के बाद अपने बैलों की जोड़ी के साथ उनके यहाँ गेहूँ की मड़ाई करने चले जाते।"

"बैल किसान का सबसे मजबूत साथी हुआ करता था उस टाइम तो जिसके यहाँ जितनी बैलों की जोड़ी वो उतना बड़ा आदमी माना जाता था, बैलों की जोड़ी एक तरह से ग्रामीण सम्पन्नता की निशानी मानी जाती थी, लेकिन धीरे धीरे ये सब बदलता चला गया। " पंकज ने मायूस होते हुए कहा।


पंकज की बात की बातों में सच्चाई भी है, अब गाँव में शायद ही किसी के घर बैल दिखाई देते हों। बैल परिवारों में एक ज़रूरी सदस्य की तरह होते थे। इन्हीं बैलों पर साहित्य लिखे जाते थे, मुंशी प्रेमचंद की दो बैलों की कथा और न जाने कितने ही लेखकों ने इनके इर्द गिर्द कहानियाँ रची। 70-80 के दशक में फिल्मों में गाँव और बैल दिखाए जाते थे। लेकिन न तो अब इनके लिए साहित्य में जगह बची, न फिल्मों में और न ही गाँवों के घरों में।

पंकज आगे कहते हैं, "हमारा गाँव मलीहाबाद क्षेत्र में आता है और यहाँ आम के बागों का बाहुल्य है, लगभग हर किसान के पास कृषि भूमि से अपेक्षा आम के बाग़ का रकबा अधिक है ऐसे में सीजन में सबके पास काम होता है और मज़दूरों की कमी होती है। ऐसे में आम के पेड़ों पर दवाई के छिड़काव, आमों की तुड़ाई और लकड़ी की पेटियों में उनकी पैकिंग तक का काम आज भी आपसी सहकारिता पर आधारित है, हालाँकि बदलते वक्त के साथ इसमें थोड़ी कमी आई है लेकिन ये तरीका आज भी सबसे ज़्यादा उपयोगी है।”

ये सिर्फ सीतापुर या फिर लखनऊ के किसी गाँव की कहानी नहीं है, भारत के अधिकतर गाँवों की यही कहानी है। उत्तर प्रदेश के देवरिया ज़िले के सिरसिया गाँव में रहने वाले राज्यपाल के पूर्व सलाहकार और सेवानिवृत्त न्यायाधीश चन्द्र भूषण पाण्डेय बताते हैं, "मेरे जीवन का शुरूआती दौर गाँव में ही गुज़रा है, ग्रामीण परम्पराओं में ही पले बढ़े, गाँव में आपसी सहयोग की जो परंपरा भारत के गाँवों में आज से सदियों पहले थी वो पूरी दुनिया में कहीं विकसित नहीं थी, यही वजह थी की हमारे गाँव सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अध्यात्मिक चारों मामले में आत्मनिर्भर थे।”

वो आगे बताते हैं कि "गाँव में जजमानी प्रथा हुआ करती थी, जो कहीं कहीं आज भी जीवित है, और वो ये थी कि जैसे शादी, ब्याह, अन्य उत्सव आदि में नाऊ, कुम्हार, माली, लुहार, पंडित आदि की जजमानी होती थी। ये लोग शादी ब्याह जैसे कार्यक्रमों में सहयोग करते थे। शादी ब्याह में लड़की पक्ष की तरफ से वर पक्ष के साथ-साथ जजमानों के लिए भी कपड़े और शगुन आदि दिये जाने की परम्परा थी। लड़की वाले लड़के के पक्ष के जजमानों को कपड़े, शगुन आदि देकर संतुष्ट करते थे और लड़के पक्ष के लोग लड़की पक्ष के जजमानों को संतुष्ट करते थे।"


एडिलेड विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया के एसोसिएट प्रोफेसर पीटर मायर ने अपने लेख 'ग्राम परंपरा का आविष्कार: 19वीं सदी के अंत में उत्तर भारतीय 'जजमानी' प्रणाली की उत्पत्ति' में भी जजमानी प्रथा का जिक्र किया।

भारत की यह सहकार और जजमानी प्रथा ही ग्रामीण भारत के आर्थिक, सामजिक रूप से मज़बूत होने का प्रमुख कारण था। जिसका क्षय अंग्रेजो द्वारा जमींदार की नियुक्ति के बाद होना शुरू हो गया था। फिर भी वो जमींदार गाँव से जुड़े थे और गाँव की परम्पराओं को समझते थे, लेकिन बीतते हुए वक्त में देश के आज़ाद होने के बाद गाँव के विकास का जो मॉडल तय हुआ वो गाँव को शहर बनने का है। गाँव न कभी शहर बन पाएँगे और न ही इस व्यवस्था में गाँव बने रह पाएंगे। बाहर से जाने वाले सरकारी कर्मचारी को गाँव की परम्परा, व्यवस्था से वास्तव में न तो कोई लेना देना है और न ही उसे गाँव से कोई लगाव है। सामाजिक सहकार गाँव की आत्मा है, विरासत है, जिसे गाँव को सम्हाले रहे तो बेहतर है।

उत्तर प्रदेश के बनारस ज़िले के खरगूपुर गाँव के निवासी मनोज पाठक कहते हैं, “ये कोई ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, गाँव में उत्सव हो या दुःख, हमारे यहाँ कहावत थी 'सात लोगों की लाठी एक आदमी का बोझ' इसका मतलब ये होता है, अगर किसी भी उत्सव या कार्यक्रम को सामूहिक रूप से आपसी सहकार की तरह किया जाए तो वो आसन होता है,और अगर उसे एक ही व्यक्ति को करना हो तो उसके लिए बोझ होता है।"

मनोज आगे बताते हैं, ”मुझे याद है गाँव में किसी बेटी की शादी में लोग अगर निमंत्रण नहीं मिला है तो भी गाँव के स्कूल या जहाँ बरात रुकनी होती थी वहाँ हर घर से एक चारपाई बारातियों के लिए अपना कर्तव्य मानते हुए पहुँचा देते थे। गाँव में बारात आने के बाद लड़की पक्ष की तरफ से कोई कमी होने पर गाँव के लोग सामूहिक रूप से सहयोग करते हुए गाँव की मर्यादा रखने की भावना के साथ मदद के लिए खड़े होते थे।"

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