पञ्च तत्वों की शुद्धता ही बन सकती है सेहत की गारंटी, शहरों की चकाचौंध नहीं

आजादी के बाद बड़े पैमाने पर टीकाकरण और चिकित्सा का परिणाम हुआ कि आज औसत आयु 70 साल हो गई है। ध्यान रहे पश्चिमी देशों में औसत आयु 90 साल के लगभग है। वहाँ के लोग मांसाहार से हमारी अपेक्षा कहीं अधिक एनिमल प्रोटीन ग्रहण करते हैं। भारत वासियों को दूध दही से एनिमल प्रोटीन मिला करता था, लेकिन अब वह भी कम हो गया है।

Dr SB MisraDr SB Misra   20 April 2024 8:24 AM GMT

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पञ्च तत्वों की शुद्धता ही बन सकती है सेहत की गारंटी, शहरों की चकाचौंध नहीं

पुराने जमाने में बड़े लोग जब छोटों को आशीर्वाद देते थे तो कहते थे शतायु बनो। तब लोग बड़ी उम्र वाले हुआ भी करते थे। मेरे गाँव में एक शिव गोविंद बाबा हुआ करते थे, वह लंबी उम्र वाले थे। मैं स्कूल जाता था और उनके साथ बैठकर कभी गाँव में बात भी करता था। मैंने एक दिन उनसे पूछा बाबा, आपकी उम्र क्या है। उन्होंने कहा याद तो नहीं है कि कितने साल का हूँ, लेकिन जब बड़कवा झूरा हुआ था तब का जन्म है मेरा। बड़कवा झूरा का मतलब था बहुत बड़ा सूखा आया था सन 1800 में, तब मैंने हिसाब लगाया था कि उनकी उम्र लगभग 100 साल थी। बाद में उनके तीसरी पुस्त में एक राम लखन नाम के व्यक्ति थे वह भी 90 साल या लगभग 95 साल तक जिए थे। लंबी आयु का एक कारण तो वंशानुगत हो सकता है, लेकिन बाकी कारण जीवन शैली, परिवेश, भोजन आदि अपना काम करते हैं।

चौदहवीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक हमारे देश के लोग गुलामी में जकड़े रहे और संकटों से गुजरने के बाद 1947 में आजादी के समय भारत के लोगों की औसत आयु 32 साल के लगभग थी। इतनी कम औसत आयु का कारण केवल कुपोषण नहीं था। बड़ी संख्या में शिशु मृत्यु इसका कारण था। आजादी के बाद बड़े पैमाने पर टीकाकरण और चिकित्सा का परिणाम हुआ कि आज औसत आयु 70 साल हो गई है। ध्यान रहे पश्चिमी देशों में औसत आयु 90 साल के लगभग है। वहाँ के लोग मांसाहार से हमारी अपेक्षा कहीं अधिक एनिमल प्रोटीन ग्रहण करते हैं। भारत वासियों को दूध दही से एनिमल प्रोटीन मिला करता था, लेकिन अब वह भी कम हो गया है।

आजादी के समय और उसके बाद भी कई रोग हुआ करते थे। जैसे मलेरिया, हैजा, चेचक, टी बी आदि लेकिन इनमें टीबी को राज रोग माना जाता था। एक और रोग हुआ करता था प्लेग, जो चूहों में मौजूद पिस्सुओं से फैलता था। मलेरिया, मच्छर से फैलता था और हैजा, मक्खियों से, इन पर विजय पाने के कई उपाय मनुष्य ने किया लेकिन शायद मच्छर से नहीं जीत पाया। मलेरिया के साथ ही एक और रोग होता था फ्लू या इनफ्लुएंजा, मलेरिया तथा फ्लू ने मिलकर के एक ऐसा रोग बनाया जिसे डेंगू कहते हैं उसने तो मनुष्य को बहुत परेशान कर दिया।


सफाई, टीकाकरण और ऐसे ही उपाय से इन रोगों पर काफी हद तक नियंत्रण पा लिया गया है। गाँव के लोग सवेरे लैट्रिन के लिए खेतों में जाया करते थे और वह भी नंगे पैर। ऐसे में उनके पैरों में एस्केरिस के अंडे चिपक जाते थे और पेट में जाकर वह केंचुए यानी एस्केरिस (पेट का केचुवा) के रूप में तैयार हो जाते थे। इसी तरह माँस खाने वालों के पेट में टेपवर्म यानी फीताकृमि हो जाते थे, यह विशेष कर सूअर के मांस में तो होता ही है। एक तीसरे प्रकार जो सिस्ट के नाम से जाने जाते हैं, वह हरी पत्तियों के ऊपर चिपके रहते हैं और जब किसान पालक, बथुआ और ऐसी चीज बिना अच्छी तरह धोएं खा लेता है तो वह पेट में जाकर कृमि बन जाते हैं, सिस्ट के रूप में पेचिश पैदा करते हैं और अगर अधिक दिन पेचिश रही तो कोलाइटिस या फिर अल्सर भी हो जाता है। अब गाँव-गाँव में घरों के दरवाजों पर सरकार ने शौचालय बनवा दिए हैं, मगर अफसोस के साथ कहना पड़ता है के उनका पूरी तरह उपयोग नहीं हो रहा है।

गाँव में पानी से होने वाली बीमारियां कम नहीं है और उन्हें पीने का पानी तालाब या झील से मिला करता था। अब शुद्ध पेयजल की व्यवस्था सरकार द्वारा की जा रही है फिर भी इसकी सीमा है, सबको यह उपलब्ध नहीं है। घरों से बाहर गंदा पानी निकलता है जिसमें मच्छर, मक्खी, कीड़े पैदा होते हैं और तरह-तरह की बीमारियाँ फैलाती हैं। साइंस ने बहुत तरक्की की है लेकिन मनुष्य, मच्छर पर विजय नहीं पा सका है। मच्छर से फैला डेंगू मच्छर तो घातक था ही। इससे और घातक कोरोना जैसी बीमारियों से मनुष्य लड़ रहा हैं। गाँव में शहरों से कम आबादी है, इतनी घनी आबादी नहीं है तब गंदगी कम होनी चाहिए थी लेकिन आलस और आदत से मजबूर गाँव वालों को इस पर ध्यान नहीं है।

गाँव के लोगों को अब शारीरिक मेहनत नहीं करनी पड़ती इसलिए ना तो पसीना निकलता है और ना शर्करा पूरी तरह शरीर में इस्तेमाल होती है। नतीजा यह हुआ कि डायबिटीज भारत के गाँवों में भी तेजी से फैल रही है और यहाँ तक की ब्लड प्रेशर की समस्या भी गाँवों में होने लगी है। अब तो तमाम लोगों को यौन रोग और बहुतों को तो कैंसर जैसी बीमारियाँ होने लगी हैं। कैंसर को दावत देने वाली तंबाकू, बीड़ी, सिगरेट, मसाले सब भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं। भोजन में दूध, दही, मट्ठा, मक्खन की जगह चाय का प्रयोग बढ़ रहा है जिससे गाँवों में भी रोगों से लड़ने की क्षमता बराबर घट रही है।

आजादी के शुरुआती साल में भी यहाँ के लोगों की इम्यूनिटी (रोगावरोधी क्षमता) आज से काफी अधिक थी। मुझे ठीक से याद है जब मैं कक्षा 5 में था तो मेरे पैर के बांयी जांघ में बड़ा फोड़ा हो गया था। उस समय कोई ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर नहीं होते थे और होते भी होंगे तो शहरों में, गाँव में तो बिल्कुल नहीं। गाँव में ज़र्राह होते थे जो चीरा लगा देते थे । मेरे गाँव में भी एक दरगाही बाबा थे जो हजामत बनाते थे और उसी उस्तरे से ऑपरेशन भी कर देते थे। मेरी जांघ का फोड़ा पक गया था और दरगाही बाबा को बुलाया गया। उन्होंने नीम की पत्तियाँ थोड़ा नमक डालकर पीसकर तैयार रखने को कहा। मेरे पैर के फोड़ा को गुनगुने पानी से धुलवाया और फिर मुझे दो या तीन लोगों ने ज़मीन पर लिटा दिया और वह पकड़े रहे। दरगाही बाबा ने अपना उस्तरा निकाला और चीरा लगा दिया। मैं चीखता चिल्लाता रहा किसी ने मेरी बात नहीं सुनी और सारा मवाद और खराब खून धीरे-धीरे बह गया कुछ धीरे से दबाकर निकाल दिया गया। इसके बाद दरगाही बाबा ने वह नीम के पत्तियों का पेस्ट घाव पर रखकर और साफ कपड़े से बांध दिया गया, रोज सवेरे नीम का वही पेस्ट तैयार किया जाता पुराना हटाकर नया पेस्ट बांध दिया जाता था। कुछ दिनों के बाद घाव भरने और सूखने लगा तब नमक की जगह घाव पर शहद लगाकर नीम की पत्ती का पेस्ट बांध जाने लगा। कुछ ही दिनों में मैं ठीक हो गया। न कोई एंटीबायोटिक और ना कोई दवा की जरूरत समझी गई थी तब कोई दवाई थी ही नहीं।


इसी तरह 1953 में जब मैं कक्षा सात में इटौंजा में पढ़ता था, तो मुझे चेचक हो गई और परीक्षा का समय था। यह मीजल नहीं स्मॉल पॉक्स था और ठीक होने में काफी समय लगा। तब चेचक को, माता आ गयी हैं, कहा जाता था और इसका लाभ यह होता था कि मरीज के कमरे में पूरी साफ सफाई रहती थी, नीम की छोटी टहनियाँ उसके बिस्तर पर डाल दी जाती थी और कुछ हद तक साफ सफाई का ध्यान रखा जाता था। परीक्षाएँ चल रही थी और मैं बिस्तर पर पड़ा था; मुझे तब बहुत तकलीफ होती थी। जब सुनता था कि दूसरे बच्चे परीक्षा देकर आ गए हैं। इटौंजा से 3 किलोमीटर की दूरी पर महोना में हमारे गाँव की एक बेटी ब्याही थी। उन्हीं के घर में रहता था, उनका स्वभाव था कि वे अपने मायके से आए बच्चों और आदमियों का बड़ा ध्यान रखती थी।

मुझे भी अपने बेटे की तरह ही मानती थीं। अभी चेचक वाले घाव ठीक से भर नहीं पाए थे और मैं स्कूल पहुँच गया अपने अध्यापक पंडित ब्रह्मानंद जी से मिला तो उन्होंने हेड मास्टर श्री शारदा बक्श सिंह से मिलने को कहा। शारदा बक्श सिंह बहुत ही कड़क अध्यापक थे मैं डरता हुआ उनके पास गया उन्होंने मेरी हालत देखी और कहा अभी तो घाव सूखे भी नहीं हैं, मैंने उनसे कहा मुंशी जी मैं साल बर्बाद नहीं करना चाहता मेरे को कोई उपाय बता दें कृपा होगी। उन्होंने पंडित ब्रह्मानंद जी को बुलवाया और कहा इस बच्चे का अलग से इम्तिहान ले लो । ब्रह्मानंद जी यही चाहते थे और उन्होंने हॉस्टल में अकेले ही मुझे पर्चे दिए मैंने सारे पर्चे हल किया, दो या तीन दिन लगा था और फिर मेरा साल बच गया, ऐसे थे तब के अध्यापक।

महिलाओं के इलाज का और भी बुरा हाल था। हमारे गाँव से 12 किलोमीटर की दूरी पर इटौंजा में बाजार के दिन 2 से 3 सरकारी नर्सें आया करती थी शायद सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने भेजा होगा । गाँव से महिलाएँ इटौंजा जाती थी और वह कुछ दवाई लेकर आ जाती थी। वह नर्सें कुछ बातें उन्हें बताती भी होंगी, सावधानियां बताती होंगी। छोटे बच्चों को अगर टिटनेस हो जाता था तो कहते थे जमोगा पकड़ लिया ,बीमारियों में झाड़ फूंक करके सोचते थे ठीक हो जाएगा और कभी-कभी स्वाभाविक रूप से अपने समय पर ठीक भी हो जाता था। डॉक्टर के नाम पर हमारे गाँव से तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर अमानीगंज में दो वैद्य थे जो पूरे इलाके का इलाज करते थे। लासादीन और रामप्रसाद नाम के यह वैद्य हर मर्ज की दवाई रखते थे और देते भी थे। रामप्रसाद बड़े लोगों का इलाज ज्यादा करते थे क्योंकि वह रस और रसायन देते थे जब कि लासादीन बच्चों का भी इलाज करते थे और वह पीने के लिए दवाई दिया करते थे। दूसरी तरफ उत्तर दिशा में एक डॉक्टर भगवन्त यादव हुआ करते थे जो कुछ दवाइयाँ भी देते थे और साधारण किस्म के ऑपरेशन भी कर देते थे। एक और वैद्य थे श्याम वैद्य जिनके पास एक बड़ा झोला था जिसमें हर मर्ज की आयुर्वैदिक दवाइयाँ रहती थी और वह गाँव-गाँव घूमते रहते थे।

ऐसे ही लोगों को झोलाछाप डॉक्टर कहा जाता होगा। उस समय अस्पतालों, डाक्टरों और दवाईयों की कमी थी तो मरीजों की भी कमी थी। बीमारियाँ कम होती थी और यदि कोई बुखार, सर्दी जुकाम और ऐसी छोटी-मोटी बीमारियों से ग्रसित हो जाता था तो पहले काम होता था उसका भोजन बंद कर देना और उसे भूखे रहना। इस तरह शरीर अपने को खुद ही ठीक कर लेता था। समय बीता, आबादी बड़ी, मरीजों की संख्या भी बढ़ गयी तो आजाद भारत में डॉक्टरी सीखने के लिए, मेडिकल कॉलेज खुले, दवाईयों की दुकानें खुली और नए-नए अस्पताल तथा नर्सिंग होम खुलते गए।

यह सच है की बहुत सी बीमारियाँ गाँव में सफाई की कमी और ऐसे ही लापरवाही के कारण या फिर प्रदूषित जल पीने के कारण हुआ करती थी। लेकिन यह भी सच है कि 60 के दशक में जब देश में अन्न का अभाव और यहाँ तक कि अकाल जैसा हुआ तो दूसरे देशों से अनाज मंगाया गया, उन अनाजों के साथ आयी फसलों की बीमारियाँ और खेतों में खरपतवार। इनसे मुकाबला करने के लिए किसानों ने शक्तिशाली पेस्टिसाइड, और अन्य कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग आरंभ किया। बौनी किस्म की प्रजातियों को पानी अधिक चाहिए था और आधिकाधिक् पानी खर्च होने से जल स्तर धरती के नीचे गिरता चला गया। समस्या केवल जल संकट की नहीं हुई बल्कि सबसे बड़ी समस्या जल प्रदूषण की हुई, इस प्रदूषण के कारण तरह-तरह की बीमारियां फैलती जा रही हैं। धरती की सतह पर तालाबों, झीलों और नदियों का पानी प्रदूषित तो है ही बल्कि भूमिगत जल भी प्रदूषित हो गया ।

प्रदूषित भूमिगत जल का शुद्धीकरण संभव नहीं है। इसलिए जल से उत्पन्न होने वाली बीमारियाँ बढ़ती ही जाएँगी। पुराने समय में आजादी के शुरुआती सालों में भी लोगों का खान- पान अब से कहीं बेहतर था । शहरों की समस्याएँ गाँव में नहीं थी लेकिन अब गाँव वाले भी दूध, दही, छाछ, मक्खन, मट्ठा का सेवन नहीं कर पाते क्योंकि महँगाई से निपटने के लिए उन्हें दूध ही बेच देना पड़ता है और बच्चे चाय पीते हैं। पहले गाँव वाले हर गाँव में एक अखाड़ा खोद कर सवेरे थोड़ी देर कसरत और फिर कुश्ती का अभ्यास करते थे। अब ना तो शारीरिक परिश्रम होता है और ना ऐसे खेल कूद होते हैं जिनसे मसल्स पावर बढ़ता है।


पहले जहाँ गाँव में साइकिल का होना ही बड़ी बात थी वहाँ अब मोटरसाइकिल, ऑटो रिक्शा और कारें भी पाई जाने लगी, जिससे वायु प्रदूषण बढ़ रहा है साथ ही गाँव वालों का पैदल चलना सीमित हो गया है, जो पहले खूब हुआ करता था। अब गाँव में शहरों वाली सभी सुविधाएं उपलब्ध हो रही हैं, लेकिन शहरों वाली आमदनी, नौकरी और व्यवसाय नहीं है। धनाभाव के कारण गाँव के लोग बीमार होने पर अच्छे डॉक्टर के पास या अच्छे अस्पताल में इलाज भी नहीं करा पाते। सरकारी अस्पतालों की कमी है और प्राइवेट अस्पतालों में नर्सिंग होम्स में दवाइयाँ इतनी महँगी है कि किसानों को इलाज के लिए अपना खेत तक बेचना पड़ता है। जानकारी के अभाव मे, स्वास्थ्य बीमा सुविधा का लाभ नहीं उठा पाते।

गाँव में शिक्षा का अभाव, जानकारी की कमी, और किसानों का लालच सब मिलकर लोगों की जीवन शैली को प्रभावित कर रहे हैं। जीवन शैली के कारण जो रोग पैदा हो रहे हैं उनको दवाई की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। केवल पुरानी जीवन शैली अपनाने से सुधार हो जाएगा। लेकिन गाँव के लोग विशेष कर शहर के संपर्क में आ चुके नवयुवक और नव युवती या फास्ट फूड की चाहत में अपना स्वास्थ्य खराब कर रहे हैं। अब तो गाँव की दुकानों पर भी मैगी, मैक्रोनी और दूसरे मैदा से बने हुए पदार्थ उपलब्ध रहते, आजकल गाँव में पहले की अपेक्षा लंबी उम्र वाले बुजुर्ग कम संख्या में मिलते हैं; क्योंकि वह 60 से 70 वर्ष से अधिक समय तक जीवित ही नहीं रह पाते जो रह भी पाते हैं उनका जीवन बड़ा कष्ट में बीतता है, क्योंकि विदेश की तरह हमारे यहाँ वृद्ध लोगों के लिए आश्रम या ओल्ड पीपल्स होम नहीं होते। पहले जब संयुक्त परिवार हुआ करते थे तब वृद्ध लोगों की परिवार में बहुत इज्जत होती थी। अब संयुक्त परिवारों का चलन ही समाप्त हो गया है, कुछ अपने आप, कुछ परिस्थितियों के कारण।

इसलिए वृद्ध लोगों का जीवन पहले की अपेक्षा अब बहुत कष्ट कर है। आवश्यकता इस बात की है कि गाँव की पुरानी खूबियाँ जो कुछ बचाई जा सकती हैं, बचाना चाहिए। शहरों की स्वास्थ्य बिगाड़ने वाली आदतें जहाँ तक हो सके गाँव में ना आने पाएं। जिससे गाँव, स्वास्थ्य बिगड़ने के चक्रव्यूह से बचे रह सकते हैं। जहाँ तक हो सके तो गाँव की पुरानी जीवन शैली “श्रम आधारित जीवन” और “सादा जीवन उच्च विचार” इसका मार्ग अगर प्रशस्त हो सके तो बहुत लाभ होगा। अंग्रेजी दवावों से यदि बचा जा सके तो स्वास्थ्य बिगाड़ने वाले रिएक्शन और साइड इफेक्ट से बचे रह सकते हैं। हो सके तो प्राकृतिक जीवन, प्राकृतिक चिकित्सा और प्रकृति के अधिकाधिक् निकट रहने की आदत गाँव वालों को डालनी चाहिए।

स्वास्थ्य और सफाई का घनिष्ठ संबंध है और यह सफाई गाँव मोहल्ले और शहर पर निर्भर करती है। हमारे गाँव में लोग अपने शरीर की सफाई की बात तो करते हैं जैसे सवेरे उठना नहाना धोना भजन पूजन करना और तब भोजन करना आदि। लेकिन आस-पड़ोस या मोहल्ले और गाँव की सफाई पर ध्यान नहीं जाता। इसके विपरीत मैंने आदिवासियों के घरों को देखा है उनकी सफाई अच्छी होती है। 60 के दशक 1961 में मैं भागलपुर के पास संथलों की बस्ती में गया था, उनके घर बहुत ही साफ-सुथरे थे, उनके दरवाजों पर रंगोली, दीवारों पर चित्र देखते ही बनता था। मैं नहीं जानता कि दूसरे आदिवासी जैसे कोल- भील,गोंड़, मरिया अदि कैसे घरों में रहते हैं लेकिन बस्तर में आदिवासी बांस और बल्ली से बने मकानों में रहते हैं और प्रकृति के बिल्कुल नजदीक रहते हैं । गाँवों में जन स्वस्थ्य का आधार रहा है क्षिति, जल,पावक ,गगन और शमीर की शुद्धता। अभी भी इन पञ्च तत्वों की शुद्धता स्वास्थ्य की गारंटी बन सकती है न की शहरों की चका - चौंध।

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