राजस्थान का 'गवरी त्योहार', भील आदिवासियों के लिए क्या हैं इसके मायने

गवरी त्योहार: राजस्थान अपने रजवाड़े, संस्कृति, संगीत और खानपान के लिए जाना जाता है। ऐसे ही यहां एक खास प्रकार का पर्व मनाया जाता है, जिसका नाम 'गवरी' है। गवरी को खासतौर पर आदिवासी के भील समुदाय के लोग सदियों से मनाते आ रहे हैं।

Vivek ShuklaVivek Shukla   19 Sep 2019 12:19 PM GMT

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भादवी गुडा (उदयपुर)। राजस्थान अपने रजवाड़े, संस्कृति, संगीत और खानपान के लिए जाना जाता है। ऐसे ही यहां एक खास प्रकार का पर्व मनाया जाता है, जिसका नाम 'गवरी' है। गवरी को खासतौर पर आदिवासी के भील समुदाय के लोग सदियों से मनाते आ रहे हैं। यह त्योहार इसलिए भी खास है क्योंकि इसे अच्छी फसल के लिए भी मनाया जाता है। इस परंपरा के दौरान ये लोग अपने पूर्वजों द्वारा किए गए इतिहास को दोहराकर अपनी आने वाली पीढ़ी को उनके बारे में बताते हैं।

स्थानीय गवरी कलाकार राजू लाल (23) गांव कनेक्शन को बताते हैं, "श्रवण मास की पूर्णिमा के एक दिन बाद देवी गौरजा यानि माता पार्वती धरती पर आती हैं और धरती पुत्रों को आशीर्वाद देकर जाती है। इसी खुशी में भील समुदाय के लोग गवरी खेलते है।"

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राजू आगे बताते हैं, "इस पर्व में हिस्सा लेने वाले कलाकारों के लिए बहुत कड़े नियम होते हैं, गवरी खेलने वाले शख्स को 40 दिन तक नहाना नहीं होता है। साथ ही इन्हें हरी सब्जियां और मांस मदिरा का भी त्याग करना पड़ता है। इन्हें 40 दिन तक नंगे पांव रहना पड़ता है और अपने घर न जाकर मंदिरों में नीचे जमीन पर सोना पड़ता है। इस पर्व में सबसे खास बात ये होती है कि इसमें हिस्सा लेने वाला हर सदस्य‍ पुरुष ही होता है। इसमें कई पुरुष महिलाओं का भी किरदार निभाते हैं। 40 दिनों तक पुरुष महिलाओं की तरह साज सज्जा करते हैं। इसके बाद माता को शाही सवारी के साथ जल में विसर्जित कर इस पर्व का समापन करते हैं।"

स्थानीय बुर्जुग बताते हैं कि इस त्योहार में पुरुष बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं, जो पुरुष और महिला दोनों को किरदार पेश करते हैं। इनका नृत्य देखने के लिए पूरा गांव इकट्ठा होता है। लोगों का ऐसा मानना है कि इस पर्व को मनाने से खेतों में फसल अच्छी होती है। इसे त्योहार को भले ही आदिवासी मनाते हैं लेकिन राजपूत भी उनका पूरा सहयोग करते हैं।

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वहीं गवरी कलाकार खेमा राम गमेटी (55) ने बताया, "गवरी पूजा बारिश के मौसम में मनाया जाता है, इस पूजा के द्वारा देवी माता को खुश किया जाता है। इससे गांव में सुख शांति और समृद्धि आती है। इस पर्व में हिस्सा लेने के लिए पूरा गांव बढ़चढ़ कर शामिल होता है। 40 दिनों तक चलने वाले इस पर्व में हम अपने पूर्वजों द्वारा किए गए इतिहास को नाटक व संगीत के जरिए दोहराते हैं।"

खेमा राम बताते हैं कि इस पर्व में नाटक के दौरान भिन्न-भिन्न प्रकार के खेल दिखाते है, जिसमें राजा-रानी, कालू कीर, बंजारा, हटिया, कालका माता, काना गुजरी, चोर-सिपाही, देवी अम्बा, मीणा का खेल, बादशाह की फौज और वीरजारा जैसे प्रमुख किरदार का रोल किया जाता है। इस नाटक को देखने के लिए लोग रात-रात भर जागते रहते हैं।

वहीं स्थानीय निवासी लक्ष्मण सिंह राजपूत (33) गांव कनेक्शन को बताते हैं, "यह पर्व खासतौर पर भील समुदाय के आदिवासी मनाते हैं लेकिन इसमें गांव के हर समुदाय के लोग हिस्सा लेते हैं। सवा महीना तक चलने वाला यह त्योहार बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। इसे देखने के लिए लोगों की भीड़ जुटी रहती है। लोग जमकर खुशियां मनाते हुए दिन रात नाचते गाते रहते हैं। समापन के दिन पूरा गांव एक साथ प्रसाद के रुप में खाना खाता है। इससे गांव में उन्नति होती रहती है।"

   

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