बढ़ती गर्मी डेयरी के लिए संकट

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बढ़ती गर्मी डेयरी के लिए संकटगाँव कनेक्शन

लखनऊ। हाल ही में देश में इतिहास बना, पहली बार भारत के किसी हिस्से में पारा 51 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। यह ग्लोबल वार्मिंग का एक संकेत है, लेकिन इसका असर सिर्फ इंसानों तक सीमित नहीं है। पशु वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक देश भारत में ग्लोबल वार्मिंग के चलते दूध उत्पादन घट सकता है।

“संकर नस्ल के दुधारू पशुओं के उत्पादन पर तापमान का बुरा असर पड़ सकता है। उदाहरण के लिए एक संकर नस्ल की अच्छा उत्पादन देने वाली गाय के उत्पादन में अधिक तापमान के चलते 15-20 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है।” राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान के वरिष्ठ पशु वैज्ञानिक डॉ. एके चक्रवर्ती ने गाँव कनेक्शन को दिए साक्षात्कार में कहा। उन्होंने बताया कि जो गाय जितना ज्यादा उत्पादन देगी उस पर उतना ज्यादा प्रभाव पड़ेगा।

भारत अभी सालाना 16 करोड़ (वर्ष 2015-16) लीटर दूध का उत्पादन कर रहा है। इसमें 51 प्रतिशत उत्पादन भैंसों से, 20 प्रतिशत देशी प्रजाति की गायों से और 25 प्रतिशत विदेशी प्रजाति की गायों से आता है। शेष हिस्सा बकरी जैसे छोटे दुधारू पशुओं से आता है। देश के इस डेयरी व्यवसाय से छह करोड़ किसान अपनी जीविका कमाते हैं।

देशी गायों का पालन ही उपाय

डॉ. चक्रवर्ती ने कहा कि तापमान बढ़ने के साथ स्थिति बदतर होती जाएगी। इससे निपटने के लिए देश को स्वदेशी नस्लों को अपनाने की ओर बढ़ना होगा। हमारी स्वदेशी नस्लें विपरीत मौसमी परिस्थितियों को झेलने में अधिक सक्षम होती हैं। साहीवाल प्रजाति की गाय एक उदाहरण है। इस स्वदेशी प्रजाति की गाय को देश के किसी भी हिस्से में पाला जा सकता है। इसी तरह भैंसों में भी मुर्रा प्रजाति की भैंस हर राज्य में पाली जा सकती है। 

चिंता का विषय देश में दूध की लगातार बढ़ती मांग है। ‘नेशनल डेयरी डेवलेपमेंट बोर्ड’ (एनडीडीबी) के ‘राष्ट्रीय डेयरी प्लान’ में बताए गए अनुमानों के हिसाब से वर्ष 2020 तक देश को 20 करोड़ लीटर दूध की आवश्यकता पड़ सकती है। देश का 25 प्रतिशत दुग्ध उत्पादन संकर प्रजातियों (विदेशी) के पशुओं से होता है, जर्सी और हॉलेस्टाइन फीशियन जैसी गयों से। ऐसे में लगतार बढ़ते तापमान से पशुओं का दुग्ध उत्पादन प्रभावित होना और पशुपालकों का इस तथ्य से अंजान बने रहना एक खामोश खतरा है, जो आने वाले वर्षों में डेयरी उद्योग को नुकसान पहुंचा सकता है। दुधारू पशुओं की प्रजातियों पर अध्ययन करने वाले विभाग के प्रमुख डॉ. चक्रवर्ती ने बताया, “किसानों को समझना चाहिए कि अगर गर्मी के समय गाय उत्पादन कम दे रही है तो अन्य संभावनाओं के साथ इस पर भी ध्यान दें कि क्या गाय गर्मी में तो नहीं बंधी रहती। उसे पेड़ की छाया में बांधें”।  उन्होंने कहा कि कुछ लोग शेड से कमरे जैसी संरचना बनाकर उसमें गायों को रख देते हैं, ऐसे लोगों को नहीं पता होता कि आर्द्रता भी उतनी ही खराब है जितना ऊंचा तापमान, दोनों साथ मिलकर काफी प्रभावित कर सकते हैं पशु को। पशुओं को इसलिए खुली हवा में ही बांधें।

डॉ. चक्रवर्ती ने कहा कि तापमान बढ़ने के साथ स्थिति बदतर होती जाएगी। इससे निपटने के लिए देश को स्वदेशी नस्लों को अपनाने की ओर बढ़ना होगा। “यही हल है। हमारी स्वदेशी नस्लें विपरीत मौसमी परिस्थितियों को झेलने में अधिक सक्षम होती हैं”। “साहिवाल प्रजाति की गाय एक उदाहरण है। इस स्वदेशी प्रजाति की गाय को देश के किसी भी हिस्से में पाला जा सकता है। इसी तरह भैंसों में भी मुर्रा प्रजाति की भैंस हर राज्य में पाली जा सकती है।” डॉ. चक्रवर्ती ने आगे कहा, “लेकिन उनके पालने से पहले, पशुवैज्ञानिक से सलाह ज़रूरी होगी कि वह क्षेत्र विशेष में पाली जा सकती है या नहीं। उदाहरण के तौर पर गुजरात की गिर और राजस्थान की थारपारकर प्राजातियों की गाय भी अच्छा उत्पादन देती हैं लेकिन अब अगर कोई दक्षिण भारत में इन्हें पालना चाहे तो वो संभव नहीं हो पाएगा।” देश में 39 तरह की गायों की और 13 तरह की भैंसों की देशी प्रजातियां मौजूद हैं। लेकिन यह भी तथ्य है कि देश के अनुसंधान में देशी प्रजातियों का दुग्ध उत्पादन बढ़ाने की ओर ध्यान नहीं दिया गया। हालांकि बाहरी देशों में हमारे यहां से गई स्वदेशी नस्लों की गयों ने रिकॉर्ड उत्पादन दिया है। गिर गाय ने कुछ वर्षों पहले ब्राजील में 62 लीटर दूध देकर रिकॉर्ड बनाया था। भारत से गई गिर गाय को ब्राजील के किसान ने वैज्ञानिक सलाह से पाला-पोसा था।

इस विषय पर डॉ. चक्रवर्ती ने बताया कि विदेशों में एक पशु पर इंपुट अच्छा है। यानि एक पशुपालक अपनी गाय की देखरेख-खानपान में बहुत अच्छा खर्च करता है और अच्छा उत्पादन लेता है। हमारे यहां 70-80 प्रतिशत छोटे पशुपालक हैं जो एक सीमा से ज्यादा पशुओं पर खर्च नहीं कर सकते। देशी प्रजातियों पर शोध न हो पाने पर उन्होंने कहा कि स्वदेशी नस्लों के बारे में शोध भी अभी तक नहीं हो पाया क्योंकि इतने बड़े देश में इतने ज़रूरी विषयों के बीच शोध का पैसा खप जाता है। “लेकिन पिछले कुछ वर्षों में देश में स्वदेशी नस्लों के विषय में शोध पर काम शुरू हुआ है। ये सरकार भी गोकुल मिशन, ब्रीडिंग की राष्ट्रीय योजना और राष्ट्रीय डेयरी प्लान जैसी योजनाओं में स्वदेशी नस्लों को ही बढ़ावा दे रही हैं।”

 

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