"अगर वो उस दिन वहाँ नहीं होती, तो मेरा बच्चा मर जाता"

पश्चिम बंगाल में बांकुड़ा जिले के दूरदराज के कई आदिवासी गाँवों में लोगों के बीमार होने पर आशा कार्यकर्ता ही एकमात्र सहारा होती हैं। ये फ्रंटलाइन कार्यकर्ता अपनी ड्यूटी से कहीं ज़्यादा आगे बढ़कर काम करती हैं, ताकि लोगों को समय पर इलाज और दवाइयाँ मिल सके।

Madhu Sudan ChatterjeeMadhu Sudan Chatterjee   13 Sep 2023 9:13 AM GMT

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अगर वो उस दिन वहाँ नहीं होती, तो मेरा बच्चा मर जाता

बांकुड़ा, पश्चिम बंगाल। मालती हेम्ब्रम अपने काम को बड़ी ईमानदारी से करती हैं। अपने काम के दौरान जब उन्हें मौत और जीवन से किसी एक को चुनना पड़ता है तो वह जीवन को चुनती हैं । अब भले ही ये फैसला करना उनके लिए कितना भी मुश्किल क्यों न हो।

“मुझे वह दिन याद है जब मेरी सास की मौत हुई थी। उनका शव घर पर अंतिम संस्कार के इंतजार में पड़ा था और मेरा फोन बज उठा। गाँव की एक गर्भवती महिला मदद के लिए फोन कर रही थी।” मालती ने दो साल पहले हुई घटना को याद करते हुए कहा।

मालती एक आशा (एक्रेडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) कार्यकर्ता हैं। ये कार्यकर्ता दस लाख महिला फ्रंटलाइन स्वास्थ्य सेवा कार्यबल का हिस्सा हैं जो देश के स्वास्थ्य मिशन की रीढ़ हैं।

उन्होंने उस फ़ोन कॉल का जवाब देने में जरा भी देर नहीं की। वह घर छोड़कर मामोनी हेम्ब्रम के घर जा पहुँची। वह प्रसव पीड़ा से गुजर रही थी। मालती ने एम्बुलेंस को बुलाया। लेकिन खराब सड़क और भारी बारिश के कारण एम्बुलेंस गाँव तक नहीं पहुँच सकी। इसके बाद आशा कार्यकर्ता ने गर्भवती महिला को खाट में लिटाकर एंबुलेंस तक पहुँचाया और करीब 20 किलोमीटर दूर रानीबांध ब्लॉक अस्पताल ले गई। वहाँ मामोनी ने एक सेहतमंद बच्चे को जन्म दिया।


पश्चिम बंगाल के बांकुरा जिले के आदिवासी बहुल रानीबांध ब्लॉक के सुदूर बागडुबी गाँव में रहने वाली आशा कार्यकर्ता मालती के लिए यह कोई नया मामला नहीं है। आशा कार्यकर्ता के रूप में मालती दिन के किसी भी समय स्वास्थ्य आपात स्थिति से निपटने के लिए हमेशा मौजूद रहती हैं। यह गाँव राज्य की राजधानी कोलकाता से 221 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में स्थित है।

मामोनी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मुझे लगा कि मेरा बच्चा मर जाएगा। हमने रात में ही एंबुलेंस को फोन किया था लेकिन वह नहीं आई। शायद गाँव की खराब सड़कों के कारण। अगर मालती दीदी उस दिन वहाँ नहीं होतीं, तो मेरा बच्चा मर जाता।''

भारत सरकार ने ग्रामीण आबादी की स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करने के लिए 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) शुरू किया था। इस पहल के हिस्से के रूप में महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता ‘आशा’ भारत में स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली की फ्रंटलाइन कार्यकर्ता मानी जाती हैं।

मालती जैसी आशा दूर दराज ग्रामीण इलाकों में हाशिए पर रहने वाले समुदायों को स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों से जोड़ती हैं। लेकिन इन महिला फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं पर तभी ध्यान दिया जाता है जब वे या तो बच्चों को टीका लगाने के लिए उफनती नदियों को पार करती हैं, या फिर सड़कों पर उतरती हैं और अपने काम के लिए ज्यादा पैसे की मांग के लिए आवाज़ उठाती हैं।


अपनी नई सीरीज 'कस्टोडियन ऑफ रूरल हेल्थ केयर' के हिस्से के रूप में गाँव कनेक्शन ने ग्रामीण भारत में आशा कार्यकर्ताओं और एएनएम, नर्सों और अन्य महिला स्वास्थ्य सेवा कार्यकर्ताओं की कहानियों को दर्ज़ किया है।

राज्य सरकार के सूत्रों के मुताबिक, पश्चिम बंगाल में आशा कार्यकर्ताओं के लिए 65,664 स्वीकृत पद हैं। इन पदों पर फिलहाल 55,637 आशा कार्यकर्ता काम कर रही हैं। बांकुरा जिले के जंगलमहल के जंगली इलाका मुख्य रूप से एक आदिवासी क्षेत्र है, जहाँ मालती एक आशा कार्यकर्ता के तौर पर काम करती हैं। इन कार्यकर्ताओं में से लगभग 2,100 लोग मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य, परिवार नियोजन सेवाओं, स्वास्थ्य और पोषण शिक्षा, पर्यावरण स्वच्छता, टीकाकरण आदि के क्षेत्रों में काम कर रहे हैं।

ये आशाएं हेल्थ केअर सिस्टम और ग्रामीणों, खासतौर पर ग्रामीण महिलाओं के बीच उम्मीद की एक किरण हैं। वे हर जगह हर व्यक्ति तक सुविधाएं पहुँचाती हैं।

सजीफुन बीबी खान के लिए आशा कार्यकर्ता जाहिमा खातून किसी फरिश्ते से कम नहीं हैं। ओंडा (बांकुड़ा जिला) के पुनीसोल गाँव में रहने वाली सजीफुन का पहले एक बार गर्भपात हो चुका था और वह डरी हुई थी कि कहीं ऐसा फिर से न हो जाए।

सजीफुन ने गाँव कनेक्शन को बताया, “जब मैं पहली बार गर्भवती हुई, तो मुझे प्रसव पूर्व कोई देखभाल नहीं मिली। मेरा परिवार मुझे अस्पताल नहीं ले गया। वो चाहते थे कि मैं घर पर ही बच्चे को जन्म दूं। मेरा बच्चा मर गया और मेरी जान भी मुश्किल से बची थी।''


सजीफुन ने कहा, “लेकिन दूसरी प्रेगनेंसी के समय आशा कार्यकर्ता जाहिमा खातून मेरे घर आईं और पुनीसोल स्वास्थ्य केंद्र में मेरा नाम दर्ज़ कराया। नियमित परीक्षण किए गए और मुझे समय पर जरुरी दवाएँ दी गईं। उन्होंने मेरे परिवार को समझाया कि मुझे किसी भी हालत में घर पर बच्चे को जन्म नहीं देना है।''

उनके बच्चे का जन्म बांकुरा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में हुआ। बच्चा स्वस्थ है। सजीफुन ने कहा, यहाँ तक कि उसे टीका भी लगाया गया था।

सजीफुन और उसके परिवार वालों को समझाने वाली आशा कार्यकर्ता जाहिमा खातून की उम्र महज 27 साल है और उन्होंने ग्रेजुएशन की हुई हैं। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “इस गाँव में हमारे प्रयासों के चलते मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में कमी आई है। महिलाएँ परिवार नियोजन कार्यक्रम में भाग ले रही हैं,'' लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा, अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है।

आशा कार्यकर्ता सिर्फ ग्रामीण महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का समाधान नहीं करतीं हैं। वे कई अन्य जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं भी देती हैं। इसमें तपेदिक के इलाज के लिए डायरेक्टली ऑब्जर्व्ड थेरेपी (DOT) भी शामिल है।

45 साल के ईंट भट्ठा मज़दूर गोराचंद मंडल के परिवार वालों ने उनके बचने की उम्मीद छोड़ दी थी। उन्हें तपेदिक (टीबी) था। मंडल ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मैंने सोचा कि यह मेरा आखिरी समय है। लेकिन आशा कार्यकर्ता मिठू चौधरी ने मेरी जान बचा दी।'' मंडल बांकुरा शहर से आठ किलोमीटर दूर डबरा गाँव में रहते हैं।


मिठू चौधरी उन्हें 15 किलोमीटर दूर अन्चुरी स्वास्थ्य केंद्र ले गईं और वहाँ उनका इलाज कराया। आशा कार्यकर्ता ने इस बात का पूरा ध्यान रखा कि मंडल नियमित रूप से अपनी दवाएँ लेते रहें। यहाँ तक कि ईंट भट्ठा मालिक से भी बात की। वह पूरी तरह से ठीक होने के बाद मंडल को उसकी नौकरी वापस देने के लिए तैयार हो गया था।

एएनएम (सहायक नर्स और मिडवाइफ) सुमिता मंडल ने कहा कि आशा कार्यकर्ताओं को भारत सरकार के डायरेक्टली ऑब्जर्व्ड थेरेपी (DOT) कार्यक्रम में ग्रामीण क्षेत्रों में काम करना पड़ता है। DOT एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता या अन्य नामित व्यक्ति (परिवार के सदस्य को छोड़कर) को प्रिस्क्राइब टीबी की दवाएँ देने और मरीज को समय पर दवाएँ लेने के लिए प्रशिक्षित करता है।

एएनएम ने गाँव कनेक्शन को बताया, "आशा कार्यकर्ताओं की समय पर उठाए गए कदम से मृत्यु दर में तेज़ी से कमी आई है और लोग स्वास्थ्य देखभाल के प्रति अधिक जागरूक हुए हैं।"

लेकिन आशा कार्यकर्ताओं की शिकायत है कि ग्रामीण इलाकों में जरूरी स्वास्थ्य सेवाएँ पँहुचाने के बदले में उन्हें काफी कम पैसा दिया जाता है। अथक मेहनत और प्रयासों के लिए आशा कार्यकर्ताओं को हर महीने सिर्फ 4,500 रुपये मिलते हैं।

कोतुलपुर की आशा पूर्णिमा बिशोयी ने गाँव कनेक्शन को बताया, "हमें बताया गया था कि हमें स्वास्थ्य रिकॉर्ड अपडेट करने के लिए स्मार्टफोन दिए जाएंगे, लेकिन हमें नहीं मिले।" मिठू चौधरी ने शिकायत की, "हमें अपने फोन को रिचार्ज करने के लिए हर महीने 100 रुपये भी मिलने थे, लेकिन हमें वह भी नियमित रूप से नहीं मिलते हैं।"

बांकुरा के मुख्य चिकित्सा अधिकारी श्यामल सारेन ने गाँव कनेक्शन को बताया, “आशा कार्यकर्ता बेहद मुश्किल भरी परिस्थितियों में काम करती हैं। लोगों तक चिकित्सा सहायता पहुंचाने के लिए उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।'' उन्होंने कहा, "हमें उन पर बहुत गर्व है और हम जितना संभव हो सके उनका साथ देने की कोशिश करते हैं।"

यह लेख गाँव कनेक्शन की नई सीरीज 'कस्टोडियन ऑफ रूरल हेल्थ केयर' का हिस्सा है जो ग्रामीण भारत में काम कर रहीं फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कर्मियों पर आधारित है।

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