पांच राज्यों के चुनाव में चाहे जो जीता, महिला वर्ग बुरी तरह हारा है

इन चुनावों में महिला मतदाताओं की संख्या में भले ही इजाफा हुआ हो, लेकिन महिलाओं की भागीदारी को बहुत नुकसान हुआ है।

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पांच राज्यों के चुनाव में चाहे जो जीता, महिला वर्ग बुरी तरह हारा है

पांच राज्यों में हुए चुनावों के बाद लगभग सभी जगहों के मुख्यमंत्री तय हो चुके हैं। आज तीन राज्‍य छत्तीसगढ़, राजस्‍थान और मध्‍य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार भी बन गई। मध्यप्रदेश में कमलनाथ, राजस्थान में अशोक गहलोत, छत्‍तीसगढ़ में भूपेश बघेल, तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव, मिज़ोरम में ज़ोरमथंगा मुख्यमंत्री पद की कमान संभालेंगे। इन चुनावों में महिला मतदाताओं की संख्या में भले ही इजाफा हुआ हो, लेकिन महिलाओं की भागीदारी को बहुत नुकसान हुआ है।

मध्य प्रदेश में जहां 230 सीटों में केवल 21 महिला विधायक चुनी गईं तो छत्तीसगढ़ में 90 सीटों पर केवल 13। राजस्थान में 199 सीटों पर चुनाव हुए और केवल 23 महिला विधायक जीतीं। तेलंगाना में 119 सीटों पर हुए चुनाव में केवल 6 महिलाएं निर्वाचित हुईं तो मिज़ोरम में 40 में से एक भी सीट पर महिला प्रतिनिधि नहीं चुनी गईं। यहां खड़ी हुईं 18 महिला उम्मीदवारों को केवल 14,482 वोट मिले। 40 सीटों के लिए 209 उम्मीदवार खड़े हुए उसमें से महिलाएं, केवल 18।

'नेशनल इलेक्शन वॉच', 'एसोशिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स' (एडीआर) के साथ मिलकर ये आंकड़े पेश करता है। 'नेशनल इलेक्शन वॉच' 1200 एनजीओ का एक अम्ब्रेला ऑर्गनाइज़ेशन है जो चुनाव सुधार के मुद्दों को लेकर काम करते हैं। एडीआर ऐसा ही एक एनजीओ है।

मध्यप्रदेश की 230 सीटों के लिए कुल 2738 उम्मीदवार लड़े, इनमें महिलाओं की संख्या 238 रही। वहीं छ्त्तीसगढ़ की 90 सीटों के लिए 1256 उम्मीदवारों ने दावेदारी पेश की तो महिलाओं की संख्या यहां भी केवल 125 पर सिमट गई। राजस्थान में कुल 2211 उम्मीदवार 199 सीटों पर खड़े हुए तो महिलाएं केवल 183। तेलंगाना में लड़े 1781 उम्मीदवारों में महिलाओं की संख्या केवल 136 रही।

इन सभी राज्यों में कुल मिलाकर 678 विधायक बने हैं और इनमें महिला विधायकों की संख्या केवल 63 है, यानी कि मात्र 9.2 प्रतिशत।

ये आंकड़े विचलित करते हैं कि एक तरफ तो महिलाओं के विकास को लेकर तमाम योजनाएं चलाए जाने की बात होती है तो वहीं दूसरी तरफ महिला विधायकों की संख्या दिन-ब-दिन घटती जा रही है। इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि भारत में अब केवल पश्चिम बंगाल ही एक ऐसा प्रदेश है जहां पर महिला मुख्यमंत्री हैं। 29 में से केवल एक राज्य महिला मुख्यमंत्री के अंतर्गत आता है और सभी केन्द्र शासित प्रदेश भी।

कुछ ही महीनों में आम चुनाव हैं और महिला प्रतिनिधियों की ये संख्या निराश करती है। पिछली लोकसभा के चुनावों में भी ये संख्या कुछ बेहतर नहीं थी। 536 सीटों पर केवल 61 महिलाएं जीती थीं। कुल 8208 उम्मीदवार इन सीटों पर खड़े हुए थे, महिलाएं खड़ी हुईं 640 और जीतीं केवल 61। एडीआर के संस्थापक प्रोफेसर त्रिलोचन शास्त्री उम्मीद जताते हैं कि महिलाओं का प्रतिनिधित्व समय के साथ बढ़ेगा।


"राजनैतिक दलों को और अधिक महिला उम्मीदवारों को टिकट देनी चाहिए, इनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ती जाएगी।"- प्रोफेसर त्रिलोचन शास्त्री, एडीआर के संस्थापक

महिलाओं को ध्यान में रखते हुए इस बार भाजपा ने मध्यप्रदेश में महिलाओं के लिए एक अलग घोषणा पत्र जारी किया था, इसका नाम था- 'नारी शक्ति संकल्प पत्र'। इसमें बेहतर अंक लाने वाली लड़कियों को ऑटो गियर बाइक देने की घोषणा थी। वहीं कांग्रेस ने लड़कियों को बाइक लेने के लिए लोन में छूट देने की घोषणा की थी। छत्तीसगढ़ में भाजपा ने व्यापार शुरू करने वाली महिलाओं को 2 लाख तक का लोन देने की घोषणा की तो स्वयं सहायता समूहों के लिए 5 लाख तक के लोन की। वहीं बाकी राज्यों में भी इस तरह की घोषणाएं हुईं।

महिला वोटर्स को लुभाने के लिए इन चुनावों में पिंक पोलिंग बूथों का इस्तेमाल किया गया। ये पोलिंग बूथ पूरी तरह महिलाओं द्वारा संचालित किए जाते हैं। बूथ संचालकों के साथ-साथ सुरक्षाकर्मी तक सभी महिलाएं होती हैं। मध्य प्रदेश में कुल 65,341 बूथों में लगभग 500 पिंक पोलिंग बूथ लगाए गए। वहीं राजस्थान में 51,965 में 259 पिंक पोलिंग बूथों की स्थापना हुई। छत्तीसगढ़ के हर विधानसभा क्षेत्र में 5 पिंक पोलिंग बूथ लगाने की घोषणा हुई तो मिज़ोरम में 40 पिंक पोलिंग बूथों लगाए गए। तेलंगाना में पिंक पोलिंग बूथों का विरोध हुआ क्योंकि यहां की स्थानीय पार्टी टीआरएस के झंडे भी गुलाबी रंग के होते हैं। 'डाउन टू अर्थ' के मुताबिक कुल मिलाकर लगभग 3000 पिंक पोलिंग बूथ बनाए गए।

अलग-अलग रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि इन चुनावों में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं से अधिक रही। इससे पहले भी कई रिपोर्ट्स और पर्चों में ये आंकड़े सामने आते रहे हैं। 'इंडियन स्कूल ऑफ बिज़नस, हैदराबाद' के मुदित कपूर और शामिका रवि की रिपोर्ट के मुताबिक "हम पाते हैं कि मतदाताओं का लिंग अनुपात 1960 के दशक की तुलना में 2000 के दशक तक काफी बेहतर हुआ है। मतदाताओं का लिंग अनुपात भी लिंग अनुपात की तरह 1000 पुरुषों पर कितनी महिला मतदाता हैं के आधार पर निकाला जाता है। 60 के दशक में ये 715 था, जो कि 2000 के दशक में बढ़कर 883 पहुँचा है।"

'डाउन टू अर्थ' के अनुसार, छत्तीसगढ़ के 90 निर्वाचन क्षेत्रों में से 24 में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं के मुकाबले ज़्यादा रही। वहीं मध्य प्रदेश की 230 सीटों में 51 पर महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों की तुलना में ज़्यादा रही। इनमें से 24 सीटों पर महिला मतदाताओं की संख्या 80 प्रतिशत से भी ज़्यादा रही। मिज़ोरम, जहां एक भी महिला विधायक नहीं चुनी गईं महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से 19,399 ज़्यादा थी।

आम चुनावों में भी महिला मतदाताओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। 1962 में जहां महिला मतदाताओं का योगदान केवल 46.6 प्रतिशत था तो वहीं 2014 में हुए आम चुनाव में ये 65.6 रहा, 19 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी जबकि पुरुष मतदाताओं की संख्या में केवल 3.8 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है।

मिजोरम विधानसभा चुनाव में मतदान करने के बाद एक महिला। (फोटो- ANI)

महिला मतदाताओं की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है लेकिन महिला प्रतिनिधियों की संख्या कम होती जा रही है। 'विमन एंड मेन इन इंडिया, 2017' की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार के 27 मंत्रियों में केवल 6 महिला केंद्रीय मंत्री हैं। वहीं 48 केंद्रीय राज्य मंत्रियों में मात्र 3 महिलाएं हैं, यानी केवल 12 प्रतिशत। स्वतंत्रता के बाद साल 2015 में ये प्रतिशत सबसे ज़्यादा रहा था, 17.8। पचास प्रतिशत आधी आबादी वाले देश में महिला नेतृत्व का सर्वोचत्तम स्तर मात्र 17.8 प्रतिशत है, इस ही बात से आप अनुमान लगा सकते हैं कि महिलाओं की स्थिति क्या है...

न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में महिला नेतृत्व केवल 24 प्रतिशत है। 'इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन' के अनुसार महिला प्रतिनिधित्व के मामले में भारत 151वें स्थान पर है। इस सूची में पहला स्थान अफ्रीका के छोटे से देश रवांडा का है। रवांडा की निचली संसद (जैसे भारत में लोकसभा है) में 80 प्रतिनिधियों में से 49 महिलाएं हैं। वहीं उच्च संसद (जैसे भारत में राज्यसभा है) में 26 प्रतिनिधियों में 10 महिलाएं हैं। अगर पूरे विश्व की बात की जाए तो दोनों सदनों को मिलाकर कुल 46,113 मंत्री हैं जिनमें से महिलाओं की संख्या मात्र 10,979 है, एक चौथाई से भी कम।

भारत में महिला आरक्षण बिल मई 2008 में पेश किया गया। ये मार्च 2010 में राज्यसभा से तो पास हो गया लेकिन लोकसभा में अब तक लटका पड़ा है। इसके तहत संसद में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित होनी थीं। पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण साल 2009 से लागू किया जा चुका है और ये पाया गया कि महिलाओं ने पुरुषों की अपेक्षा ज़्यादा मेहनत और ईमानदारी से काम किया है। ऐसा माना गया कि महिलाएं केवल नाम के लिए पद पर होती हैं और काम सारा पुरुष ही करते हैं लेकिन कई उदाहरण ऐसे सामने आए जहां महिलाओं ने अपने पद का पूरा लाभ उठाते हुए गांव के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण कदम उठाए।

'डाउन टू अर्थ' की एक रिपोर्ट के मुताबिक, मध्यप्रदेश की कांतिबाई धुर्वे केवल 273 मतों से जीतीं लेकिन उन्होंने गांव में सड़क बनवाने से लेकर हैंडपंप खुदवाने तक बहुत से काम अपने दम पर किए।

उत्तरकाशी की सियोनी पंचायत की सरपंच सरोज राणा ने गांव में स्कूल बनवाया, सड़क बनवाई। इन सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण उन्होंने इस प्रथा को बंद कराया जिसके तहत जवाहर रोजगार योजना में मिलने वाली राशि कॉन्ट्रेक्टर को दे दी जाती थी, इस तरह प्रधान और कॉन्ट्रेक्टर दोनों पैसों का घपला करते रहते थे। जब पैसे आते हैं तो सरोज गांव वालों को बुलाकर अपने काम का पूरा ब्यौरा सबको सुनाती हैं, इस तरह वो अपने काम में पारदर्शिता बनाए हुए हैं।


'विमन एंड मेन इन इंडिया, 2017' की रिपोर्ट के मुताबिक नवंबर 2016 तक कुल 29 लाख 11 हज़ार 961 प्रतिनिधियों में से 13 लाख 45 हज़ार 990 निर्वाचित महिला प्रतिनिधि पंचायतों में थीं, यानी कुल संख्या का 46 प्रतिशत।

इन आंकड़ों और उदाहरणों से ज़ाहिर है कि महिलाएं ग्रामीण स्तर पर उल्लेखनीय कार्य कर रही हैं लेकिन केंद्र और राज्यों में महिला नेतृत्व की इतनी कम संख्या को देखकर महिलाओं के भविष्य की चिंता गहराती नज़र आ रही है। मौका मिलने पर महिलाएं बेहतर काम कर रही हैं लेकिन दिक्कत ये है कि उन्हें मौका ही नहीं मिलता, इस बात का उदाहरण हाल के चुनाव भलिभांति देते हैं, कुल जीतने वाले विधायकों में मात्र 9 प्रतिशत महिला विधायक हैं।

एक तरफ तो महिलाओं के विकास, योगदान और उनके भविष्य को लेकर बहुत सी बातें होती हैं, जगह-जगह आंदोलन भी किए जाते हैं लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी 12 प्रतिशत से भी कम है। ये सभी आंकड़े और रिपोर्ट्स ज़ाहिर करती हैं कि महिलाओं की भागीदारी और योगदान के लिए अभी कई और ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। उम्मीद है कि हमारी सरकार गाय माता के साथ-साथ हमारी माताओं-बहनों के सुरक्षित भविष्य और विकास पर भी ध्यान दे और ज़मीनी स्तर पर परिवर्तन लाने वाले कार्य करे।

       

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