फिल्म जगत का वो हीरो जिसने पहले बस में काटे टिकट, फिर अपने अभिनय के दम पर बना स्टार
Mohammad Fahad 29 July 2019 11:59 AM GMT

हिन्दी सिनेमा जिस तरह से एक नायक होता है एक नायिका होती है एक खलनायक होता है, जिनके बिना एक फिल्म का वजूद में आना मुश्किल होता है, इन्ही सब किरदारों के बीच एक सबसे अहम् कड़ी एक किरदार की होती है, जिसको हम हास्य कलाकार या कॉमेडियन कहते हैं। आज हम ऐसे ही एक हास्य अभिनेता की बात करेंगे, जिसने अपने हास्य अभिनय से हिन्दी सिनेमा में अपनी एक अलग पहचान बनाई।
11 नवम्बर 1926 में इंदौर में जन्मे बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी जिनको हिंदी सिनेमा में जॉनी वाकर के नाम से जाना जाता है। बदरुद्दीन मां-बाप और भाई बहन के साथ इंदौर में रहते थे, उनके पिता इंदौर में एक कपड़ा फैक्ट्री में काम करते थे। फैक्ट्री बंद हो जाने के बाद जॉनी वाकर का परिवार आर्थिक तंगी से जूझ रहा था, जिसके बाद जॉनी अपने मां-बाप के साथ मुंबई आ गये।
बदरुद्दीन ने बहुत कम उम्र में ही अपने पिता की आर्थिक मदद करनी शुरू कर दी। कई जगह काम करने के बाद जॉनी ने 27 साल की उम्र में मुंबई की 'बेस्ट' बस सर्विस में बस कंडेक्टर बन कर लोगो को उनकी मंजिल के टिकट बांटने लगे। बदरुद्दीन के बारे में एक बात बहुत मशहूर थी कि उनको शुरू से हिन्दी सनेमा से बहुत लगाव था। इसकी वजह से वो बस में लोगों के बीच जाकर अपनी अदाकारी के नमूने दिखाते रहते थे।
लोग बताते हैं कि एक दिन अपने दौर के मशहूर अभिनेता बलराज साहनी उसी बस से सफर कर रहे थे, जिस बस के कंडेक्टर बदरुद्दीन थे। यात्रा के दौरान बदरुद्दीन एक शराबी की एक्टिंग करते हुए लोगों का टिकट काट रहे थे। इनका अभिनय देखकर बलराज साहनी बहुत प्रभावित और 1951 में बनी के. आसिफ की फिल्म 'हलचल' में उनको एक छोटा सा किरदार दिला दिया।
हलचल में एक छोटे से रोल के बाद बदरुद्दीन ने भारतीय सिनेमा में दस्तक दे दिया था। इसके बाद उनकी मुलाकत एक दिन मशहूर अभिनेता और फिल्म निर्देशक गुरु दत्त से हुई, उस वक्त गुरु दत्त अपने निर्देशन में बन्ने वाली देव आनंद जैसे दिग्गज अभिनेता की फिल्म बाजी के लिए कास्टिंग कर रहे थे। गुरु दत्त ने बदरुद्दीन से अपनी अदाकारी का नमूना दिखाने को बोला।
बदरुद्दीन साहब ने गुरु दत्त के सामने भी शराबी की एक्टिंग की, जिसको देखकर गुरु दत्त बहुत मुतास्सिर (प्रभावित) हुए और उस दिन गुरु दत्त ने बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी का नाम एक स्कॉटिश व्हिस्की "जॉनी वाकर" के नाम पर रख दिया।
जॉनी वाकर सिर्फ हिन्दी फिल्मों के एक कलाकार ही नहीं थे बल्कि उनकी अदाकारी ने पचास से सत्तर के दशक की फिल्मों में हास्य कलाकरी को एक अलग मुकाम बक्शा। हिन्दी सनेमा के दर्शको को इस बात का एहसास भी कराया कि एक फिल्म में हास्य अभिनेता कितना जरूरी होता है। फिल्म बाजी के बाद बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी से जॉनी वाकर बने इस हास्य अभिनेता ने अपने तमाम फिल्मो में एक अमिट छाप छोड़ी।
1957 में गुरु दत्त, वहीदा रहमान की फिल्म का गाना 'सर जो तेरा चकराये' में जॉनी वाकर की अदाएगी आज भी दिल को सुकून देती है। अपने फिल्मी करियर के परवाज़ पर जॉनी ने अपने जमाने की मशहूर अदाकारा शकीला की बहन नूरजहां से शादी कर ली। नूरजहां और जॉनी की इस शादी से जॉनी साहब के घर वाले खिलाफ थे लेकिन उन्होंने घरवालों के खिलाफ जाकर नूर से शादी की।
जॉनी साहब की शोहरत और अदाकारी का अंदाजा इस बात से भी लगा जा सकता है कि उनकी कामयाबी के बाद उस दौर के राइटर फिल्मों की पटकथा हास्य कलाकरों के रोल को ध्यान में रख कर कहानी लिखते थे। मेरे महबूब, प्यासा, सीआईडी, चोरी-चोरी,आनंद जैसी ब्लॉकबास्टर फिल्मों में जॉनी ने अपनी अदाकारी का लोहा मनवाया। साथ ही साथ बिमल राय, विजय आनंद जैसे दिग्गज फिल्म निर्देशकों के साथ काम भी किया।
1997 में कमल हासन की फिल्म 'चाची 420' जॉनी वाकर साहब की आखिरी फिल्म थी। जॉनी साहब ने अपने करियर की शुरुवात एक शराबी के किरदार से की थी और ज़्यादातर फिल्मो में शराबी का किरदार निभाया। मगर असल जिंदगी में जॉनी वाकर ने शराब को हाथ तक नहीं लगाया। अपनी अदाकारी से हास्य को बुलंदियों पर ले जाने वाले ज़ाती ज़िन्दगी में बेहतरीन शख्सियत के मालिक बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी उर्फ़ जॉनी वाकर 29 जुलाई को इस दुनिया से रुखसत हो गए और अपने चाहने वालो की आंखों में आंसू छोड़ गए।
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