"मैं कभी दरोगा नहीं बन सका, लेकिन लोगों को महामारी से बचाने में अपनी पूरी कोशिश कर रहा हूं"
सफाई कर्मचारी राकेश कुमार वाल्मीकि दरोगा (पुलिसकर्मी) बनना चाहते थे, लेकिन वे इसके बजाय एक सफाई कर्मचारी बन गए। वे अब सफाई के जरिए लोगों को बीमारी से सुरक्षित रखने में अपना योगदान दे रहे हैं।
Mohit Shukla 14 Jun 2021 10:23 AM GMT
सीतापुर (उत्तर प्रदेश)। राकेश कुमार वाल्मीकि का बचपन का सपना दरोगा (पुलिसकर्मी) बनने का था, लेकिन उनका यह सपना, सपना ही बनकर रह गया। सीतापुर जिले के महोली नगर पालिका के 38 वर्षीय सफाई कर्मचारी राकेश कहते हैं कि अब उनका यह सपना उनके बच्चे पूरा करेंगे।
राकेश कुमार दलित हैं, जिन्हें आधिकारिक तौर पर 'अनुसूचित जाति' के सदस्य के रूप में वर्गीकृत किया गया है। उनका समुदाय परंपरागत रूप से हाथ से मैला ढोने सहित सफाई कार्यों से जुड़ा रहा है। साल 2011 की जनगणना के अनुसार, उत्तर प्रदेश में वाल्मीकि समुदाय के 3,26,000 परिवार हैं, जिनमें से 2,19,000 परिवार ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। राकेश कुमार का परिवार भी इनमें से एक है।
जब महामारी अपने चरम पर थी, तब भी राकेश कुमार एक हाथ में झाड़ू और दूसरे में कुदाल लेकर हर दिन काम पर निकलते थे। कुमार ने गांव कनेक्शन से कहा, "यह एक कठिन काम है। लोग अपने घरों की सफाई कर कूड़ा करकट नालियों में फेंक देते हैं। मुझे सप्ताह में कम से कम एक बार उन्हें साफ करना पड़ता है।"
उन्होंने आगे कहा कि नालों की सफाई नहीं होने से रुके हुए पानी में मच्छरों के पनपने का खतरा बना रहता है। वे कहते हैं, "मैं कोविड संक्रमित होने को लेकर चिंतित था, लेकिन मैंने फिर भी अपना काम करना जारी रखा।"
राकेश कुमार को प्रति माह 28,000 रुपए का वेतन मिलता है जिससे वह अपनी पत्नी और तीन से बारह साल की उम्र के छह बच्चों का भरण-पोषण करते हैं। वे अपने परिवार में इकलौते कमाने वाले हैं।
आठवीं के बाद छोड़नी पड़ी पढ़ाई
वाल्मीकि बच्चों की शिक्षा प्राप्त करने की संख्या को लेकर कोई आधिकारिक आंकड़े नहीं हैं, लेकिन यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि उनमें से अधिकांश बच्चे मिडिल स्कूल पहुंचने से बहुत पहले ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। ऐसा ही कुछ कुमार के साथ भी हुआ।
उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, "मैंने अपनी आठवीं कक्षा पास की, लेकिन मुझे अपनी आगे की पढ़ाई बंद करनी पड़ी क्योंकि मेरा परिवार इसका खर्च वहन नहीं कर सकता था। परिवार में एक और कमाने वाले सदस्य की जरूरत थी। इसलिए जब 2008 में सरकार ने सफाई कर्मचारियों के लिए भर्ती अभियान चलाया, तो मैंने आवेदन किया और मेरा चयन हो गया।"
राकेश कुमार तभी से काम कर रहे हैं। उनका दिन सुबह साढ़े पांच बजे शुरू होता है। वे पत्नी द्वारा बनाया गया दोपहर का भोजन साथ लेकर सुबह 8 बजे तक काम पर निकल जाते हैं। उनके कार्यक्षेत्र के अंतर्गत कचुरा, राम बिलास पुरवा और भूदिया के तीन गांव आते हैं।
राकेश कुमार एक साधारण मास्क पहनते हैं। उनके पास न तो पीपीई किट है और न ही दस्ताने हैं। उन्होंने बताया, "कचुरा गांव की ग्राम प्रधान कुसुम बाजपेयी ने मुझे हैंड सैनिटाइज़र प्रदान किया था, लेकिन मेरे पास और कुछ नहीं है। मेरे पास वायरस से बचाव के लिए और कोई सुविधा नहीं है।"
इलाके में सफाई के लिए जिम्मेदार राकेश कुमार ने गांव कनेक्शन को बताया, "मैं दिन में लगभग आठ से दस घंटे काम करता हूँ। मैं सबसे पहले गांव के स्कूल के आसपास की सफाई करता हूं। लगभग पांच हजार लोगों की आबादी के लिए मैं अकेला सफाई कर्मचारी हूं।"
उन्होंने बताया, "ऐसे दिन होते हैं जब मेरे लिए काम बहुत ज्यादा हो जाता है और मैं थक जाता हूँ। ऐसी स्थिति में मैं दूसरों से भी कुछ काम करवाता हूं और इसके बदले उन्हें भुगतान करता हूं।"
"सफाई करना मेरी जिम्मेदारी है"
कुमार गर्व के साथ कहते हैं कि महामारी के दौरान हमारे लिए दैनिक चुनौतियों बढ़ गई थी, लेकिन इसके बावजूद जब से सफाई कर्मचारी (जिन्हें आधिकारिक तौर पर सफाई नायक कहा जाता है) कार्यरत हैं, गांवों में सार्वजनिक स्थान साफ-सुथरे रहते हैं और नालियों का पानी सड़कों पर नहीं बहता।
राकेश कुमार नियमित रूप से आसपास के इलाकों में सफाई और सैनिटाइजर का छिड़काव करते हैं। कुमार को लगता है कि वह भी कोविड-19 महामारी में लोगों की सुरक्षा में अपना योगदान दे रहे हैं।
सफाई कर्मचारी ने आगे कहा, "महामारी का समय है। बच्चे सड़कों पर खेलते हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि यह मेरी जिम्मेदारी है कि मैं अपने आसपास के वातावरण को साफ रखूं।"
ग्राम कचुरा की गायत्री देवी ने गाँव कनेक्शन को बताया, "यह सच है। सब कुछ बंद होने के बाद अगर सफाई कर्मचारी भी रोज नहीं आते, तो गाँव में सन्नाटा हो जाता।" उन्होंने आगे बताया, "पहले जब सफाई कर्मचारी नहीं थे, तब अक्सर नालियों का पानी सड़कों पर आ जाता था, जिससे वे गंदी हो जाती थीं।
स्थिति में सुधार हुआ है। हालांकि, और अधिक काम किए जाने की जरूरत है। राकेश कुमार कहते हैं, "काश गांव के लोग प्लास्टिक और सब्जी के छिलके को नाली में फेंकने के बजाय अपने घरों के बाहर कूड़ेदान का इस्तेमाल करते। इससे गांव ज्यादा साफ-सुथरा रहेगा और मेरा काम भी आसान हो जाएगा।"
हाथ में फावड़ा लेकर नाले को बंद करते हुए राकेश कुमार ने कहा: "मुझे उम्मीद है कि मैं अपने बच्चों को इतना शिक्षित कर पाऊंगा कि वे अधिकारी बन सकें।" कुमार कहते हैं, "मैं कभी दरोगा नहीं बन सका, लेकिन लोगों को महामारी से बचाने के लिए पूरी कोशिश कर रहा हूं।"
अनुवाद- शुभम ठाकुर
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