प्रति व्यक्ति आय सबसे अधिक पर गरीबी भी कम नहीं

अध्यापक और लेखक हेरंब कुलकर्णी ने आर्थिक असमता को समझने के लिए 2017-18 के दौरान महाराष्ट्र के 24 ग्रामीण जिलों के 125 'गरीब गांवों' का दौरा किया और एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की। उनकी यह रिपोर्ट मराठी भाषा में 'दरिद्रयाची शोधयात्रा' के नाम से है जिसका अर्थ है 'गरीबी की दुनिया की यात्रा'।

Daya SagarDaya Sagar   13 March 2019 11:53 AM GMT

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प्रति व्यक्ति आय सबसे अधिक पर गरीबी भी कम नहीं

लखनऊ। महाराष्ट्र एक ऐसा राज्य है, जहां पर प्रति व्यक्ति आय लगातार बढ़ी है। लेकिन यह भी सच है कि महाराष्ट्र में गरीबी भी बढ़ी है। मानव विकास सूचकांक के 2012 के रिपोर्ट भी इस तथ्य की पुष्टि करती हैं। 2017-18 के आंकड़ों के अनुसार महाराष्ट्र में प्रति व्यक्ति आय 1,80,596 रूपए है, जो कि भारत के प्रति व्यक्ति आय 1,12, 935 से कहीं अधिक है। लेकिन यह भी सच है कि भारत के 10 प्रतिशत से अधिक गरीब महाराष्ट्र में ही निवास करते हैं।

अध्यापक और लेखक हेरंब कुलकर्णी ने इसी आर्थिक असमानता को समझने के लिए 2017-18 के दौरान महाराष्ट्र के 24 ग्रामीण जिलों के 125 'गरीब गांवों' का दौरा किया और एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की। उनकी यह रिपोर्ट एक किताब के रूप में प्रकाशित हुई है। समकालीन प्रकाशन की यह किताब मराठी भाषा में 'दरिद्रयाची शोधयात्रा' के नाम से है जिसका अर्थ है 'गरीबी की दुनिया की यात्रा'। उनके इस किताब से महाराष्ट्र में गरीबी और भूखमरी को समझने का एक नया आयाम मिलता है।


कुलकर्णी के इस रिपोर्ट का पहला निष्कर्ष यह है कि महाराष्ट्र में गरीबी सिर्फ विदर्भ और मराठवाड़ा में ही नहीं है बल्कि पूरे राज्य में फैली हुई है। अक्सर जब भी महाराष्ट्र में गरीबी या सूखे का जिक्र होता है तो विदर्भ और मराठवाड़ा का ही नक्शा दिमाग में उभरता है। लेकिन हेरांब कुलकर्णी की यह किताब इस अवधारणा को गलत साबित करती है। कुलकर्णी के अनुसार यह सिर्फ आधा सच है कि सूखा और गरीबी सिर्फ विदर्भ और मराठवाड़ा में ही फैली है।

गांव कनेक्शन से फोन पर बात करते हुए कहते है कि यह सच है कि महाराष्ट्र में बहुत ही असमान विकास हुआ है। पूरा का पूरा विकास उत्तरी-पश्चिमी महाराष्ट्र के तीन प्रमुख शहरों मुंबई, पुणे और नासिक में ही सिमटा हुआ है। इसके अलावा पूरा महाराष्ट्र ही गरीब है।

हालांकि उन्होंने भी माना कि इससे सबसे अधिक प्रभावित विदर्भ और मराठवाड़ा हैं। उन्होंने कहा कि इस भेदभाव की वजह से भी विदर्भ के लोग अलग राज्य की मांग करते हैं। कुलकर्णी ने बताया कि उन्होंने यह यात्रा तब की जब आर्थिक उदारीकरण के 25 वर्ष पूरे होने के बाद कई रिपोर्ट आएं कि उदारीकरण के बाद देश विकास की पटरी पर दौड़ रहा है और गरीबी कम हुई है।

कुलकर्णी ने कहा इन रिपोर्ट के आने के बाद मुझसे बैठा नहीं रहा गया और मैंने नौकरी से अवकाश लेकर 24 ग्रामीण जिलों के 125 पिछड़े और गरीब गांवों का दौरा किया। कुलकर्णी कहते हैं, 'सिर्फ आंकड़ों के भरोसे नहीं रहा जा सकता। गरीबी की हकीकत को समझने के लिए जमीन पर उतरना ही होगा।'

कुलकर्णी ने बताया कि उन्होंने जून, 2017 से फरवरी, 2018 के बीच इन गांवों का दौरा किया और लोगों से कुछ आधारभूत सवाल पूछे। जैसे- वे खाने में क्या खाते हैं, खेती-किसानी कैसे करते हैं, राशन की दुकानों से राशन मिलता है या नहीं? कुलकर्णी ने इन सवालों के आधार पर 105 पेजों की एक रिपोर्ट लिखी जो कि 17 भागों में बंटा हुआ है।




इस रिपोर्ट में कहा गया है कि गरीबी की वजह से लोग पौष्टिक और गुणवत्तापूर्ण भोजन नहीं कर पाते हैं। गरीबों की थाली में पौष्टिक सब्जियां, दूध, अंडा और मीट मुश्किल से ही कभी आ पाता है। इसके अलावा स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की अनुपलब्धता भी गरीबी का एक प्रमुख कारण है। कुलकर्णी ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि गरीबों को मुश्किल से ही उच्च शिक्षा मिल पाती है।

कुलकर्णी ने गांव कनेक्शन को फोन पर बताया कि बीद जिले का एक लड़का डॉक्टर बनना चाहता था लेकिन उसकी मां को कैंसर हो गया। इसके बाद लड़के को मां की बीमारी के लिए कर्ज लेना पड़ा। उसे डॉक्टरी की पढ़ाई का सपना छोड़ गन्ना कटाई मजदूर बनना पड़ा। कुलकर्णी ने बताया कि महाराष्ट्र में उन्हीं लोगों को गन्ना खेतों में मजदूरी मिलता है जो विवाहित होते हैं। गन्ना खेतों में पति और पत्नी दोनों को एक साथ मजदूरी पर लगाया जाता है। इस वजह से लड़की को जल्दी शादी भी करनी पड़ी।

हेरंब कुलकर्णी

उन्होंने नागपुर के एक घुमंतु समुदाय की महिला उषा गंगावणे की भी कहानी सुनाई जिन्हें कैंसर और हृदय की बीमारी थी। इस महिला को अपने ईलाज की खर्च के लिए कबाड़ बेचने का सहारा लेना पड़ा। कुलकर्णी ने बताया कि स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी गरीबी का एक प्रमुख कारण है।

कुलकर्णी की इस रिपोर्ट में विस्थापन को भी गरीबी का एक मानक माना गया है। कुलकर्णी के अनुसार राज्य के अन्तर्गत ही विस्थापन अधिक बढ़ा है। अब लोग मौसम के हिसाब से विस्थापन करते हैं। जिसका अर्थ है कि खेती-किसानी के मौसम में ये लोग खेती करते हैं जबकि गैर-मौसमी महीनों में ये लोग वहां पर विस्थापित हो जाते हैं, जहां पर उधोग हैं। आदिवासी लोग ईट भट्टों की तरफ जबकि आम ग्रामीण शहरों की तरफ पलायन करते हैं।


खेतिहर जमीनों का कम होना भी गरीबी बढ़ने का एक प्रमुख कारण माना गया है। कुलकर्णी के इस रिपोर्ट में आंकड़ों और कहानियों के द्वारा बताया गया है कि खेतिहर जमीन अब लगातार कम हो रही है और छोटे किसान अब दूसरों के खेतों में मजदूरी कर रहे हैं। इसकी वजह से कई बार इन किसानों को निजी सूदखोरों से कर्ज लेना पड़ता है। बाद में यही कर्ज और ब्याज किसानों की आत्महत्या का कारण बनता है।

कुलकर्णी ने प्रशासनिक अधिकारियों, ग्राम प्रधान और ग्राम सेवकों के द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार को भी गरीबी बढ़ने का एक प्रमुख कारण माना है। PESA एक्ट (Panchayats Extension to Scheduled Areas Act 1996) और चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिशों की वजह से भी ग्राम पंचायत स्तर तक सरकारी योजनाओं की राशि भी आने लगी है। कुलकर्णी का मानना है कि अगर अधिकारी, प्रधान और ग्राम सेवक उचित ढंग से काम करें तो काफी कुछ बदला जा सकता है।


उन्होंने राशन वितरण प्रणाली (पीडीएस) का उदाहरण भी दिया। कुलकर्णी का मानना है कि पीडीएस से गरीबों का फायदा हुआ है। गरीब अपने हक का राशन लेने के लिए काफी जागरूक हो रहे हैं। इसकी वजह से भूखमरी की संख्या में कमी आई है।

कुलकर्णी निष्कर्ष निकालते हैं कि दलित गांवों और घुमंतु समुदायों में गरीबी का स्तर और बढ़ जाता है। वहीं अगर खेती-किसानी के स्तर में सुधार किया जाए तो गरीबी के इस हालत को भी सुधारा जा सकता है।

    

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