कोरोना संकट में छोटी-छोटी प्रसंस्करण इकाइयां ही कृषि क्षेत्र को आर्थिक नुकसान से बचा सकती हैं

किसान या उत्पादक समूहों को ब्याज मुक्त या न्यूनतम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराया जाए। इन क्षेत्रों में उच्च गुणवत्ता के तकनीक को भी बढ़ावा देना पड़ेगा, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में अंतराष्ट्रीय स्तर के उत्पाद निर्मित किया जा सके।

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कोरोना संकट में छोटी-छोटी प्रसंस्करण इकाइयां ही कृषि क्षेत्र को आर्थिक नुकसान से बचा सकती हैं

कोविड-19 वैश्विक महामारी के रूप में मानव समाज के सामने एक गंभीर चुनौती आयी है। देश का प्रत्येक वर्ग और क्षेत्र इस समय तनाव में है। लेकिन दो महत्वपूर्ण, स्वास्थ्य और आर्थिक क्षेत्र कोविड-19 से सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं।

इन दोनों क्षेत्रों के लिए भारत सरकार द्वारा कई प्रभावी कदम उठाए गए हैं। सरकार द्वारा बीस लाख करोड़ रुपए आर्थिक पैकेज की घोषणा भी इसी का उदाहरण है। रोजगार, खेती और अर्थव्यवस्था में जिस तरह से चुनौतियां उभरकर आयी है, उससे निपटने के लिए तत्कालिक प्रयास तो ठीक है, लेकिन दूरगामी परिणाम के लिए मध्यम और दीर्घकालिक रणनीति बहुत आवश्यक है। इन क्षेत्रों को मजबूती प्रदान करने में कृषि महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है।

देश की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण है जो मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर है। साथ ही शहरों में रहने वाली आबादी की आर्थिक गतिविधियों के लिए कृषि कच्चा माल उपलब्ध कराता है। इस प्रकार गाँव के साथ ही शहरी आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि पर निर्भर है।

देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान लगभग 15 प्रतिशत है, लगभग 14 करोड़ खेतीहर परिवार कृषि कार्य की मुख्यधारा में लगे हुए हैं। इन किसानों के अथक मेहनत का ही परिणाम है कि देश के गोदामों में 87 मिलियन मीट्रिक टन अन्न भंडार उपलब्ध है, जिससे इस संकट के समय भी देश के हर नागरिक के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध है।


इसका अर्थ यह है कि कृषि क्षेत्र में आपूर्ति की कोई कमी नहीं है। वास्तव में इस महामारी के समय में किसानों द्वारा उत्पादित अन्न, फल, सब्जी, दूध, मछली की मांग में भी भारी कमी है, मांग में कमी होने के कारण इन उत्पादों के भाव भी तेजी घट गए, जिससे किसानों को मजबूर होकर खेतों में ही सड़ने के लिए छोड़ना पड़ा। क्योंकि गाँवों में उचित भंडारण और प्रसंस्करण की सुविधा न होने के कारण सुरक्षित संग्रह भी नहीं कर पाए। इस प्रकार किसानों को लागत भी नहीं मिल पायी और वो आर्थिक रूप से टूट गए।

इन समस्याओं पर गंभीर चिंतन किया जाए तो ऐसा लगता है कि वर्तमान शिथिलता और निराशाजनक के आवरण से ढ़का हुआ है। वास्तव में इस सामाजिक आपदा में कृषि जगत के लिए एक संदेश भी है, जिसे समझना बहुत जरूरी है। अगर हम आशावादी होकर चिंतन करें तो कृषि क्षेत्र में आवश्यक दूरगामी परिवर्तन से उज्जवल संभावना दिखाई देती है। यह संभावना फसल एवं उत्पाद विविधिकरण के क्षेत्र में निहित है।

मार्च-मई महीने में सब्जियों और फलों का अच्छा उत्पादन हुआ, लेकिन बाजार में कम मांग, गिरता भाव और मंडियों में भेज पाने के कारण इन उत्पादों का एक बड़ा हिस्सा खेत में ही रह गया। यही हाल दूध, मांस, मछली उत्पादन में भी रहा है। एक अनुमान के अनुसार किसानों को लगभग 20 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। अगर सुरक्षित भंडारण और प्रंस्करण की व्यवस्था होती तो इस घाटे से किसानों को बचाया जा सकता था।


इसका संदेश यह है कि गाँवों में भंडारण की व्यवस्था व्यापक स्तर पर हो। पेरिशेबल उत्पादों की मांग कम होने की दशा में छोटी-छोटी प्रसंस्करण इकाई संजीवनी का काम कर सकती हैं। कृषि आधारित लघु कुटीर उद्योग होने से बाजार में ताजा उत्पादों के कम भाव या कम मांग होने पर प्रसंस्कृत कर पोषण युक्त व्यंजन बनाकर शहरों में अच्छे मूल्य पर बेचा जा सकता है। इसके लिए सरकार को व्यापक निवेश के लिए प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।

किसान या उत्पादक समूहों को ब्याज मुक्त या न्यूनतम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराया जाए। इन क्षेत्रों में उच्च गुणवत्ता के तकनीक को भी बढ़ावा देना पड़ेगा, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में अंतराष्ट्रीय स्तर के उत्पाद निर्मित किया जा सके। इस महामारी के समय विश्व के कई देशों द्वारा कृषि उत्पाद निर्यात में कमी आई है। यह भारतीय कृषि के लिए एक अवसर है, दूसरे देशों द्वारा निर्यात में कमी के कारण विश्व बाजार में कई उत्पादों की उपलब्धता में जो कमी आई है उसे भारत के किसानों द्वारा उत्पादित खाद्य पदाथों द्वारा हो।

जैसा कि सबको पता है कि कोरोना वायरस का इलाज इस समय संभव नहीं है, शायद यह वायरस हमेशा के लिए जीवन का हिस्सा हो जाए। रोग प्रतिरोधी क्षमता विकसित करना सबसे अच्छा विकल्प है। इसमें प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति यानि आयुर्वेद बहुत ही प्रभावी है। अलग-अलग प्रकार के जड़ी-बूटी और पौधों जैसे अश्वगंधा, गोखरू, सिलाजीत, हर्र, काली मिर्च, दालचीनी, अदरख, लहसुन इत्यादि का नियमित सेवन सुझाया गया है।


भविष्य में इन उत्पादों पर आधारित औषधियों का भारतीय तथा वैश्विक बाजार कई गुणा बढ़ने की संभावना है। इन सभी जड़ी-बूटी और पौधों की खेती के लिए आवश्यक जानकारी, तकनीक तथा सभी संसाधन भारत में उपलब्ध है। भारत के किसान अपने खेतों से वैश्विक मांग को पूरा करने की क्षमता भी रखता है। इसके लिए आवश्यक है कि किसानों को परंपरागत खेती से हटकर इन औषधीय फसलों की खेती के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

उनको बाजार से जोड़ा जाये, उत्पादों के प्रसंस्करण, पैकेजिंग, विपणन के लिए जनपद या तहसील स्तर हर्बल पार्क बनाया जाये। इस सभी व्यवस्था को उपलब्ध कराने के लिए सरकार को नीति बनाकर निजी संस्थाओं को बृहद स्तर पर निवेश के लिए प्रोत्साहित करें। किसान या उत्पादक समूहों को भी इस कार्य के लिए जागरूक करें और नाबार्ड द्वारा ब्याज मुक्त या न्यूनतम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराया जाए। वर्तमान कृषि पद्धति में परिवर्तन लगाकर समेकित कृषि की ओर तेजी से अग्रसर होने की आवश्यकता है। जिससे धान, गेहूं , दलहन व अन्य परंपरागत फसलों की खेती के साथ साथ औषधीय फसलों की खेती भी हो।

उत्पादन व्यवस्था में विविधिकरण लाकर उपलब्ध जमीन और अन्य संसाधनों का बेहतर उपयोग किया जाना अति आवश्यक है। विविधिकरण कोरोना जैसी आपदा और अन्य मुश्किल समय में भी किसानों को आर्थिक सुरक्षा की गारंटी प्रदान करने के साथ जन सामान्य को स्वास्थ्य संबंधी परेशानी का सामना करने में सहयोग देगा।

    

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