ताश खेलते, हुक्का पीते नींद के आगोश में खो जाते थे किसान, पढ़ें किसान यात्रा की कहानी
किसान क्रांति यात्रा हरिद्वार से चलकर दिल्ली में खत्म हो गई। किसानों ने करीब 200 किमी से ज्यादा का सफर पैदल तय किया। इस दौरान गांव कनेक्शन की टीम भी यात्रा के साथ रही।
Ranvijay Singh 4 Oct 2018 5:47 AM GMT
लखनऊ। सुबह के करीब 7 बज रहे होंगे। मेरठ स्टेशन के बाहर चाय की दुकान पर कुछ लोग बैठे हैं। ये सब आपस में चर्चा कर रहे हैं कि किसानों की समस्या को लेकर 'बाबा' मार्च निकाल रहे हैं। 'बड़े बाबा' के जाने के बाद पहली बार लगा कि यूनियन में दम है। किसानों की इतनी भीड़ तो हमने कभी नहीं देखी। और वो ट्रैक्टर की लाइन, वो तो गिनती के बाहर है।
ये सभी लोग 'किसान क्रांति यात्रा' की बात कर रहे थे। जिस 'बाबा' का जिक्र ये कर रहे थे उनका नाम नरेश टिकैत है। भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत को लोग 'बाबा' के तौर पर ही पुकारते हैं। 2011 में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के निधन के बाद नरेश टिकैत को ये उपनाम मिल गया और महेंद्र सिंह टिकैत को लोग 'बड़े बाबा' के तौर पर याद करने लगे।
नरेश टिकैत ने 23 सितंबर को हरिद्वार से किसान क्रांति यात्रा निकाली थी जो कि 2 अक्टूबर को दिल्ली में आकर खत्म हो गई। इस पद यात्रा में हजारों किसान उनके साथ मौजूद थे। करीब 200 किमी की यात्रा में किसानों ने किसी आम आदमी को परेशान नहीं किया। कहीं कोई ऐसी खबर भी नहीं आई। हां, दिल्ली के बॉर्डर पर पहुंचते ही ये शांतिपूर्ण यात्रा हिंसक हो गई। हालांकि, दिल्ली पुलिस से एक बार हुई झड़प के बाद किसान फिर शांत ही रहे और देर रात दिल्ली में जाकर ये यात्रा खत्म हो गई।
गांव कनेक्शन की टीम इस यात्रा के साथ 4 दिन रही। इस दौरान देखने को मिला कि कैसे अलग-अलग क्षेत्रों से आए किसानों से भरी ये यात्रा मैनेज तरीके से दिल्ली तक पहुंची। किसानों का ज्यादातर रूटीन एक जैसा ही रहा। सुबह उठकर तैयार होना, फिर पदयात्रा करते हुए अगले पड़ाव तक पहुंच जाना। उस पड़ाव में शाम के भोजन की तैयारी और फिर ताश खेलते, हुक्का पीते, चर्चा करते हुए नींद के आगोश में खो जाना।
हर रोज 20 से 25 किमी पैदल चले किसान
ये किसान हर रोज 20 से 25 किमी पैदल चलते हुए दिल्ली पहुंचे। ये ठीक वैसा ही है जैसे पुराने वक्त में लोग लंबी यात्राएं तय करते थे। एक पड़ाव से अगले पड़ाव तक का सफर। हरिद्वार से दिल्ली तक किसानों ने 10 पड़ाव तय किए थे। सुबह एक पड़ाव से नाचते गाते निकलते और अगले पड़ाव तक पहुंच जाते। इस दौरान रास्ते में गांव वाले इस यात्रा में शामिल किसानों को खाने की चीजें देते। कई जगह इनका स्वागत भी होता। लोग फूल बरसाते, हलवा खिलाते और यात्रा चलती रहती।
यात्रा में किसी तरह की अव्यवस्था न फैले इसके लिए एक पड़ाव से अगले पड़ाव तक नौजवान किसानों का एक गुट यात्रा के साथ चलता रहता था। इनकी जिम्मेदारी होती है कि आम लोगों को यात्रा के बीच में न आने दें। अगर गलती से कोई आ गया तो उसे निकालने की व्यवस्था की जाए। साथ ही ट्रैक्टर को लाइन से चलने की हिदायत भी इनके द्वारा दी जाती थी। वहीं, इसके साथ ही हर जिले से आए किसानों को उस जिले के ट्रैक्टर से निर्देश दिया जाता था। ताकि वो जल्दबाजी न करें, लाइन से चलें और व्यवस्था बनाए रखें। जौनपुर से आए नितिन सिरोही का कहना था, ''ये जिम्मेदारी कोई देता नहीं है। ये खुद से लेनी होती है। हम अगर आराम करेंगे तो यात्रा का मतलब क्या है। किसान तो मेहनत के लिए ही बना है।''
मिल बांट कर खाने की आदत
यात्रा में शामिल किसान सिर्फ किसान है। इस तरह की घोषणा भोपू से गाहे बगाहे की जाती थी। कहा जाता था, किसान किसी धर्म का नहीं है, किसी जात का नहीं है। किसान सिर्फ किसान है। इलाहाबाद से आए छोटे सिंह कहते हैं, ''आप जिस भी ट्रैक्टर में चढ़ जाएं आपको खाने की व्यवस्था मिल जाएगी। इसमें केला, सत्तू, घर का भूजा मिल सकता है।'' छोटे सिंह का कहना है, ''हम पूरी तैयारी के साथ निकले हैं। अगर हमारा कोई भी भाई, चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान हमारे ट्रैक्टर में आता है तो उसे खाने की व्यवस्था मिल जाती है। साथ ही रास्ते में तो लोग दे ही रहे हैं। ये सरकारें हम किसानों को धर्म, जाति में बांट रही है, लेकिन हम बंटने वाले नहीं हैं।'' ऐसे ही एक ट्रैक्टर में इलाहाबाद से आए एक किसान ने मुझे मिठाई खिलाई। ये मिठाई उनके गांव के हलवाई ने बनाई थी। उनके मुताबिक, ये मिठाई उस इलाके में काफी मश्हूर है।
सोने के लिए गद्दे और खाना बनाने के लिए बर्तन भी मौजूद
किसान अपने साथ जरूरत का हर सामान लेकर चल रहे थे। मुझे इससे अंदाजा हुआ कि यात्रा से पहले कितनी तैयारी की गई होगी। हर ट्रैक्टर में राशन रखा गया था। इसके साथ ही गैस सिलेंडर, चुल्हा, बर्तन भी था। सोने के लिए गद्दे भी रखे गए थे। इतनी तैयारी पर किसान कहते हैं कि इस बार हम आर पार की लड़ाई लड़ने आए हैं। अगर सरकार नहीं मानी तो हम डेरा भी डाल देंगे। एक महीना तो हम आराम से काट सकते हैं। हालांकि इस बात की नौबत नहीं आई और किसान अपने घरों को लौट गए हैं।
एक पड़ाव से अगले पड़ाव पर पहुंचने पर किसानों का गुट अपनी जगह तय करता कि कहां उसे कहां अपना डेरा जमाना है। इसके बाद प्रशासन की ओर से दिए गए पानी के ट्रैंकर से ही स्नान होता और थोड़ी देर का विश्राम भी। हर पड़ाव पर किसानों के भोजन के लिए स्थानीय गांव वाले कुछ न कुछ व्यवस्था रखते ही थी, जिसे ज्यादातर किसान खाते थे। लेकिन कई किसान ऐसे भी थे जो अपना खाना खुद ही बनाते। उनसे पूछने पर कहते, हमें अपने स्वाग का खाना नहीं मिल पाता, इस लिए बना लेते हैं।
खाना बनाते और खाते रात हो जाती है। इसके बाद किसान अलग-अलग गुट में बंटे नजर आते। कोई ताश खेतला, तो कोई हुक्का पीते हुए शांत बैठा रहता। ज्यादातर औरतें अपने घर की बात करतीं। इन्हीं में से एक कानपुर देहात से आई रामदुलारी मिलीं। उन्हें अपने घर की चिंता सता रही थी। उनका घर तेज बरसात में गिर गया था। इसके बाद से वो तिरपाल तान कर रह रही हैं। उन्हें विश्वास है कि इस यात्रा के बाद डीएम साहब उनको आवास दे देंगे। ऐसे ही कई सपने खुले आसमान के नीचे देखते हुए किसान नींद की गिरफ्त में आ जाते।
अगले दिन यात्रा में चल रहे रथ पर लगे बड़े-बड़े साउंड बॉक्स से भजन बजता और ऐलान किया जाता कि ''यात्रा में शामिल किसान भाई तैयार हो जाएं। आज हमें फला किमी की दूरी तय करनी है। दिल्ली अब दूर नहीं।'' इसके बाद शांत पड़े ग्राउंड में हलचल मच जाती। सब अपना-अपना सामान समेटने लगते और आज की यात्रा की तैयारी हो जाती। कुछ इसी दिनचर्या के साथ किसानों ने अपने 10 दिन काट दिए। सुबह उठना और तैयार होकर पदयात्रा पर निकल जाना और शाम को थक हार का सो जाना। किसानों का कहना है कि हमारा भी परिवार है। हम उनसे दूर नहीं रहना चाहते। अगर सरकार हमें मजबूर न करती तो ये मेहनत हम खेतों में करते। अगर सरकार चाहती तो किसान खेत में होता, सड़कों पर नहीं।
खैर, सरकार ने किसानों की कई मांगे मान ली हैं और किसान अपने गांव, अपने खेतों को लौट गया है। लेकिन लौटने हुए भी वो इस बात की चिंता जता रहा है कि कहीं उससे किए वादे अधूरे न रह जाएं। कहीं इस यात्रा की मेहनत पानी न हो जाए, जिस तरह से खेतों में उनकी मेहतन पानी हो रही है।
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