बदरका : ‘आज़ाद’ का वो गांव जहां मेरा बचपन बीता
Diti Bajpai 21 Jan 2018 1:09 PM GMT
मेरा गाँव -
बचपन में गाँव में की गई शैतानियों की याद जब भी आती है, मुस्कुराहट चेहरे पर अपने आप आ जाती है। गाँव में बिताया का हर एक पल हमें हूबहू याद होगा , भले ही हम वर्षों से अपने गाँव न गए हों। गाँव कनेक्शन की विशेष सीरीज़ ' मेरा गाँव कनेक्शन ' के सातवें भाग में बात उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गाँव की।
गाँव बायोडाटा -
गाँव- बदरका गाँव
ज़िला - उन्नाव
राज्य - उत्तर प्रदेश
नज़दीकी शहर - उन्नाव सिटी
गूगल अर्थ पर बदरका गाँव -
बदरका गाँव -
उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में बदरका गाँव पड़ता है। गाँव में रहने वाले अधिकतर लोग गेहूं-धान की खेती और पशुपालन करते हैं। वर्ष जनगणना 2011 के अनुसार इस गाँव की अबादी 2,834 है। यह गाँव उन्नाव शहर के नज़दीक है , इसलिए विकास के मामले में यहां अच्छा काम हुआ है। इस गाँव की साक्षरता दर 74.33 प्रतिशत है। यह गाँव अमर शहीद चंद्र शेखर आज़ाद का गाँव भी है।(जन्मस्थान को लेकर अभी भी विवाद भी है।)
गाँव की यादें -
‘ बदरका ’ गाँव से जुड़ी हुई यादें हमें बता रही हैं ' दिति बाजपेई ', जो इस गाँव में खूब शैतानियां कर चुकी हैं।
क्लास में पहाड़ा न सुना पाने पर बनना पड़ता था मुर्गी
जब भी हमारी गर्मी की छुट्टियां होती थी, तो मैं उन्नाव रेलवे स्टेशन से सात किमी. दूर अपने नाना के घर बदरका जाती थी। नाना के घर पर मेरा आधा बचपन गुज़ारा। शहर से पास होने के कारण यह जगह गाँव जैसी लगती थी। लेकिन यह एक छोटा सा कस्बा था। गाँव में मेरे नाना का बड़ा सा घर था और यहीं पर मेरे चार मामा भी रहते थे। जैसे लोग अपनी व्यस्त जीवन में शान्ति पाने के लिए किसी रिज़ॉट या फिर हिल स्टेशन जाते हैं। वैसे ही मुझे अपने नाना के घर जाने पर अनुभव होता था। मामा के बच्चों के साथ आंगन में जमा हो जाते पानी छकपक छईयां खेलना हो, या फिर देर रात तक लूडो खेलने। मैंने अपने बचपन के सारे खेल अपने नाना के घर पर ही रह कर सीखे हैं।
गाँव के बीचो-बीच अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की मूर्ति है , जहां पर चंद्रशेखर आज़ाद के जन्मदिन, स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर छोटा सा मेला भी लगता था। गर्मियों में आम के बगीचों में आम खाने की प्रतियोगिता होती थी.. कौन कितने आम खा सकता है, ये देखा जाता था। मेरी छुट्टियों का अधिकतर समय आम के बाग में ही बीतता थ। शाम होते ही घर के दरवाजे पर ऊंच-नीच पहाड़ और पोशंपा का खेल होता था, जो तब तक खेला जाता, जब तक कि चंदा मामा दिखाई नहीं पड़ जाते थे।
खेलते-खेलते बहुत देर हो जाती, तो नाना बाहर आकर खूब डांटते और कहते....... थोड़ा पढ़-लिख भी लो तुम लोग नहीं तो बड़े होकर भैंस चराओगे! फिर सबको एक साथ बैठाकर नाना की शाम की क्लास शुरू होती थी। सबसे पहाड़ा पूछा जाता और जो नहीं बता पाता उसे मुर्गा या मुर्गी बनना पड़ता था। शाम होते ही चूल्हे जलने लगते और उनके पास से खाने की महक मुझे अपनी ओर खींचने लगती। शहर की बाज़ार घर से बहुत पास थी, इसलिए सर्दियों में भी रात के खाने के बाद हम वहां पर आइसक्रीम खाने चले जाते थे।
पूरे घर में सबकी लाडली थी, हमारी भैंस 'चांदनी'। लाडली होने के कारण चांदनी बहुत नखरीली भी थी। वो अपने पास केवल नाना को ही आने देती थी। घर का दूसरा कोई भी व्यक्ति उसके पास नहीं जा सकता था। उसके दूध से बना मक्खन हम सभी भाई-बहन बड़े चाव से खाते थे। चांदनी की एक छोटी बेटी रूपा भी थी, जो दिखने में बहुत ही मासूम और प्यारी थी। मैं उसे जब भी चारा खिलाती, तब वो अपनी ज़ुबान से मेरे कपड़ों को चाटने लगती थी।
जब छुट्टियां खत्म होने को आती तो मम्मी फोन कर के मुझे परेशान करना शुरू कर देती थी। मेरे नाना जी के घर पुराने ज़माने का टेलीफोन था, जिसमें बात करने के लिए नंबर को घुमाकर कॉल करनी पड़ती थी। उस बीच माँ का फोन आता तो मेरा मन खराब होने लगता, मैं यही सोचती थी कि मेरी छुट्टियां कभी खत्म न हो और मैं हमेशा नानी के घर पर ही रहूं।
छुट्टिय़ां खत्म हो जाने के बाद जब नाना मुझे घर वापस छोड़ने जाते तो मैं बहुत रोती थी। ऐसा लगता मानो मैं अपने घर नहीं बल्कि किसी जेल में कैद होने जा रही हूं। एक साल पहले किडनी खराब होने के कारण मेरे नाना जी इस दुनिया को छोड़कर चले गए। आज जब भी उनका दिया हुआ स्वेटर पहनती हूं, एकाएक उनकी याद आ जाती है। गाँव गए हुए एक साल पूरा होने वाला है, लेकिन ऐसा लगता है कि 10 साल से ज़्यादा हो गए हैं गाँव गए हुए।
लखनऊ में काम करते हुए कभी कभी रिपोर्टिंग पर उन्नाव जाना पड़ता है, तो गाँव जाने का मन बना लेती हूं। नाना का घर मुझे अपने घर से ज़्यादा अच्छा लगता है।
दिति बाजपेई की तरह अगर आपके मन में भी अपने गाँव से जुड़ी यादें हैं, तो उन्हें हमारे साथ साझा करें- [email protected] पर। आख़िर यही तो है हम सबका गाँव कनेक्शन
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