तालानगरी डिंडीगुल की कहानी: ताला बनाने वाले 60 लोगों में से अब सिर्फ 6 लोग ही बचे, इनकी तकलीफ दूर करने की कोई चाबी नहीं है

तमिलनाडु के डिंडीगुल शहर में कभी 60 कारीगर घंटों बैठकर ताला बनाते थे। यहां के ताले अपनी कारीगरी के लिए प्रसिद्ध हैं। आज यहां ताला बनाने वाले मात्र 6 कारीगर ही बचे हैं जो इस कारोबार को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं।

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Tamil Nadu’s Dindigul, lock making industryताला उद्योग के प्रमुख 70 वर्षीय करूपणा ताले को आकार देते हुए। (सभी तस्वीरें- निकी शर्मा)

निकी शर्मा

तमिलनाडु का डिंडीगुल शहर, जिसे तालानगरी भी कहा जाता है, अपनी श्रेष्ठ गुणवत्ता के लिए जाना जाता है। लगभग चार दशक से यहां के कारीगर जीआई टैग वाले ताले बना रहे हैं। ख़ुशमिज़ाज और मिलनसार कारीगरों ने विविध प्रकार के विशिष्ट ताले बनाए हैं, जिनकी कोई बराबरी नहीं है। चेन्नई स्थित ज्योग्राफिकल इंडिकेशन रजिस्ट्री ने अगस्त 2019 में डिंडीगुल के ताला उत्पाद को उनकी गुणवत्ता और लोकप्रियता को देखते हुए जीआई टैग दिया था, हालांकि अब यहां का काम पतन की कगार पर है। इनकी चमक अब धूमिल पड़ रही है।

पिछले 40 वर्ष से इस कारीगरी से जुड़े 62 साल के निगीथन ने कहते हैं, एक दौर हुआ करता था जब एक टीन की छत के नीचे 60 कारीगर घंटों बैठकर ताले बनाने का काम करते थे। वह भी समय था जब डिंडीगुल के 300 घरों में से 200 घरों में हमारे बनाये हुए तालों का इस्तेमाल होता था। हम पूरे जोश और जुनून से लबरेज होते थे और पूरी कर्मठता से ताले बनाने का काम करते थे। हमारे उत्पाद पर लोगों का भरोसा टिका था। हम एक से एक बढ़कर ताले बनाते थे। हर छोटा बड़ा उपकरण अपना महत्व रखता था।"

निगीथन इन यंत्रों के बारे में कहते हैं कि हर यंत्र-उपकरण की अपनी छोटी ही सही पर महत्वपूर्ण कहानी होती थी। अब इसी कमरे में मात्र 6 वृद्ध कर्मचारी रह गए हैं और शहर के कुछ भागों में ही हमारे यहाँ के ताले इस्तेमाल किये जाते हैं।

निगीथन पिछले 40 वर्षों से ताले बना रहे हैं।

हालात यह है कि बेहद श्रम वाला यह उद्योग पतन की ओर है। आय इतनी कम है कि कोई श्रमिक इस विरासत को नई पीढ़ी को सौंपना नहीं चाहते। बकौल निथिगन हम मात्र छह लोग रिटायरमेंट के बाद दिन-रात पूरी मेहनत कर रहे हैं। अपने अनुभव और दक्षता का प्रयोग कर इस उद्योग को बचाने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे हैं।

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ताला उद्योग के प्रमुख 70 वर्षीय करूपणा का पूरा ध्यान अपने हाथों में कसकर पकड़े सपाट लोहे के ताले पर था, जिसे वह लगातार घुमा रहे थे। उन्होंने कहा, "हाल ही में हमने सार्वजनिक निर्माण विभाग को 275 ताले बेचे हैं। पर अफ़सोस कि कारीगरों की कमी की वजह से काम समय पर नहीं कर सके। सन 1985 में इस उद्योग में 50 से 60 लोग कार्यरत थे। तब उद्योग का रुतबा था। हममें से अधिकतर लोग रिटायर हो चुके हैं। फिर भी सरकार से अनुरोध कर उद्योग को जीवित करने के प्रयास में लगे हुए हैं।"

करूपणा ताले की टेस्टिंग करते हुए।

यह उन 60 कारीगरों का हुनर था जो तीक्ष्ण बुद्धि का प्रयोग कर एक से बढ़कर एक ताले बनाते थे। कुछ तालों की तीन चाबियां होती थीं। एक ताला खोलने के लिए, एक बंद करने के लिए और एक दोनों के लिए। कुछ तालों में अलार्म सेट होता था, जिसे अगर कोई और खोले तो अलार्म बजते हुए चाबी फँस जाती थी।

आम की आकृति वाला ताला बेहद पसंद किया जाता था। कुछ विशेष मांग पर ही ऐसे ताले बनाये जाते थे, जिनकी चाबियों की संरचना इनकी विशेषता होती थी। ताले-चाबी के इस उद्योग की मांग बिल्कुल न के बराबर है। संकट की इस घड़ी में उद्योग की विरासत, अब कोई संभालने को तैयार नहीं है। डिंडीगुल शहर में विख्यात यह ताला उद्योग अपनी बर्बादी की दास्तां खुद ही बयां कर रहा है। ये 5-6 वृद्ध कारीगर जिस उद्योग को अपने बच्चे की तरह पालकर बड़ा किया, अब उन्हें उसकी मौत की आहट सुनाई दे रही है।

पूरे देश से मंगाया जाता था कच्चा माल

ताला-चाबी बनाने के लिए पूरे देश भर से कच्चा माल मंगाया जाता था। लीवर, गाइड व चाबियां उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ से और चादरें अपने ही राज्य के त्रिपुर और मदुराई से मंगाई जाती थीं। चादरों को आकार देने के लिए डाई कास्टिंग की प्रक्रिया के तहत लोहे को पिघलाकर ढाला जाता था। हथौड़ों और चिमटों का प्रयोग कर कारीगर ताला-चाबी बनाकर आजीविका चला रहे थे। या यूँ कहें कि ज़िन्दगी किसी तरह घसीटती हुई चल रही थी। न तो पर्याप्त मेहनताना मिलता और ही फुर्सत के कुछ पल। सब कुछ अपने हाथों से करना होता था। पर इन हाथों में ताकत थी। दक्षता थी।


सरकारें रेलवे, जेलों और बांधों के लिए सिर्फ़ डिंडीगुल के तालों पर भरोसा करते थे। 60 वर्षीय वेंकटचलम ने बताया, "हर कारीगर प्रतिदिन पांच ताले बनाता और प्रति ताला उसे 76 रुपए मिलते। अधिकतर ताले लोहे, पीतल और स्टील के बनाये जाते थे। ताले की आकृति पर ताले बनाने का समय तय होता। सबसे छोटे तालों को बनाने में लगभग 3 घंटे लगते। 83 मिलीमीटर तालों का वजन मालभाग 1.5 किलोग्राम होता है, उन्हें बनाने में बहुत अधिक समय लग जाता है।"

वेंकटचलम नहीं चाहते कि उनके बच्चे इस उद्योग से जुड़ें। वे नहीं चाहते कि उनके बच्चों के आय का स्रोत यह उद्योग बनें।

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वे कहते हैं, "कठोर काम की परिस्थतियां कठोर होती हैं। ताला-चाबी बनाना एक कठोर काम ही है। हमारी मेहनत और आमदनी में बहुत बड़ा फासला है। यह फासला जीवन यापन के लिए बहुत सारी मुश्किलें खड़ी करता है। इसलिए इस क्षेत्र से अलग रहते हुए उनका बेटा रेस्तरां में शेफ है और दूसरा प्राइवेट अस्पताल में काम करता है।"


इस उद्योग की एक और खामियां बताते हुए करूपणाना कहते हैं, "बीमार पड़ने पर सहकारी समिति अस्पताल के ख़र्चे इस शर्त पर देती है कि उस महीने हमें आधा मेहनताना मिलेगा। इस शर्त को मानना हमारी बाध्यता होती है। इन बेमिसाल तालों के निर्माण के पीछे भारी भारी खतरनाक उपकरण और हमारे खाली हाथों का संयोजन होता है। हमें हर वक़्त भयंकर चोट लगने के डर के साथ ताले चाभी निर्माण की प्रक्रिया में लगे रहना पड़ता है।"

वेंकटचलम (60) ताला बनाते हुए।

वेंकटचलम ने अपनी नज़र अपने हाथों में लिए ताले की ओर डालते हुए उसे उपकरण की सहायता से मोड़ते हुए कहा कि अब कोई ताला निर्माण के उद्योग में जाना नहीं चाहता। एक अलग ही प्रकार का अद्वितीय उद्योग अब अपनी पहचान खो रहा है। समय के साथ इस उद्योग में कोई तकनीकी परिवर्तन नहीं आ पाया। आखिर युवा पीढ़ी भी इस उद्योग को अपनी रोज़ी-रोटी का ज़रिया क्यों बनाना चाहेगी? क्या ऐसी कोई चाबी नहीं जो लगभग बंद हो चुके उद्योग को खोल सके। अगर यह सच है तो वाकई में बहुत ही दर्दनाक सच है।

अनुवाद- इंदु सिंह

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