यहाँ चिता की अधजली लकड़ियों से जलाना पड़ता है घर का चूल्हा

प्राचीन शहर वाराणसी में गंगा के घाटों पर, डोम समुदाय शव के अंतिम संस्कार के लिए ज़रूरी होते हैं। फिर भी वे सामाजिक रूप से बहिष्कृत (अस्वीकार) हैं, उनकी शिक्षा तक पहुँच नहीं है और वे गरीबी का जीवन जीते हैं। बावज़ूद इसके उन्हें उम्मीद है उनके बच्चों के शिक्षित होने से हालात बदलेंगे।

Dewesh PandeyDewesh Pandey   17 Aug 2023 6:15 AM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
यहाँ चिता की अधजली लकड़ियों से जलाना पड़ता है घर का चूल्हावाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर साल के बारह महीने चिताएँ चलती रहती है। फोटो: निधि जम्वाल

वाराणसी, उत्तर प्रदेश। विपुल डोम वाराणसी में गंगा के तट पर सबसे पवित्र घाटों में से एक मणिकर्णिका घाट पर काम करते हैं, जहाँ मृत व्यक्ति को मोक्ष मिलने की उम्मीद में हर दिन सैकड़ों चिताएँ लगातार जलती रहती हैं।

विपुल के पास काम करने का कोई निश्चित समय नहीं है। ऐसे दिन होते हैं जब उनका काम सूरज की पहली किरण के साथ मणिकर्णिका घाट पर शुरू होता है और कई बार तो दोपहर में खाने तक का समय नहीं मिल पाता है। क्योंकि घर चलाने के लिए एक बाद एक चिता जलाने का काम मिलता रहता है। जलते शवों की तीखी गंध और हवा में उड़ती राख के अब वो आदी हो गए हैं।

विपुल डोम वाराणसी में गंगा के तट पर सबसे पवित्र घाटों में से एक मणिकर्णिका घाट पर काम करते हैं। फोटो: देवेश पांडेय

विपुल ने गाँव कनेक्शन को बताया, "हम भूखे रहते हैं क्योंकि मृतकों के लिए कोई 'निश्चित समय' नहीं है।" “यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम जितनी जल्दी हो सके चिता को आग लगा दें, ताकि लंबी दूरी की यात्रा करने वाले मृतक के रिश्तेदारों को ज़्यादा इंतजार न करना पड़े। हम सिर्फ अपना पेट पानी से भरते हैं, ''उन्होंने आगे कहा।

विपुल उत्तर प्रदेश के प्राचीन शहर काशी के डोम समुदाय से हैं, जिनके सदस्य घाट के किनारे एकांत जीवन जीते हैं। 2015 में रिलीज़ हुई नीरज घायवान की बॉलीवुड फिल्म 'मसान', वाराणसी के दलित डोम समुदाय पर केंद्रित है जो बहिष्कार और भेदभाव का सामना करता है।

शव जलाने वाले ये लोग आग से काम करते हैं, लेकिन अक्सर उनके घरों में ही चूल्हा नहीं जलता है। फोटो: मानवेंद्र सिंह

डोम को काव्यात्मक रूप से 'स्वर्ग के द्वारपाल' के रूप में कहा गया है, क्योंकि वे ही सबसे पहले मृतक की चिता को आग लगाते हैं। और वे पूरे साल दिन-ब-दिन ऐसा करते हैं। लेकिन 'निचली जाति' माने जाने के कारण, वे अत्यंत गरीबी का जीवन जीते हैं और कम उम्र में विवाह सहित कई सामाजिक बुराइयों में फंस जाते हैं।

हालाँकि, उच्च कुल में जन्मे लोगों के भी अंतिम संस्कार करने के लिए डोम की ज़रूरी होते हैं, लेकिन आज भी कई लोग उन्हें 'अछूत' मानते हैं। अजय डोम ने कहा, ''उच्च जाति के लोग हमारे घर से पानी की एक बूंद भी नहीं पीएंगे।''

शव जलाने वाले ये लोग आग से काम करते हैं, लेकिन अक्सर उनके घरों में ही चूल्हा नहीं जलता है। “हमारी कमाई कम है और हम आमतौर पर लकड़ी खरीदने या गैस सिलेंडर लेने में सक्षम नहीं हैं। इसलिए हम अक्सर चिता से लकड़ी के आधे जले हुए लट्ठे घर लाते हैं और हमारे घर की औरते उसी पर खाना बनाती हैं, ”संजय डोम ने गाँव कनेक्शन को बताया।

संजय भी डोम समुदाय से हैं, जिनके यहाँ पीढ़ियों से चिता चलाने का काम करते हैं। फोटो: देवेश पांडेय

अंत्येष्टि में किए जाने वाले काम से समुदाय की कोई तय आय नहीं होती है। विपुल ने कहा, "कई बार परिवार के सदस्य हमें वह भुगतान करते हैं जो उन्हें उचित लगता है या वे वहन कर सकते हैं।"

यह एक मुश्किल भरा जीवन है और जो कभी-कभी उनकी आत्मा को झकझोर कर रख देती है। “एक दिन में मणिकर्णिका घाट पर लगभग एक हज़ार लाशें आती हैं। मोटे तौर पर, हम मृतकों के आदी हो गए हैं और अंत्येष्टि केवल एक काम है जिसे किया जाना है। लेकिन, ऐसे भी दिन होते हैं जब किसी बच्चे का शव दाह संस्कार के लिए लाया जाता है और यह हृदय विदारक होता है, ''एक अन्य डोम प्रवीण ने कहा।

उन्होंने आह भरते हुए कहा, "हमारे भी बच्चे हैं और एक ऐसे बच्चे की चिता जलाना जो हमारा अपना हो सकता था, भयानक है।"

अधिकांश समुदाय के लिए, अपनी नौकरी से दूर जाने का कोई रास्ता नहीं है। "हम गरीबी में पैदा हुए हैं और पीढ़ियों से गरीबी में पले-बढ़े हैं, और ज़्यादातर पढ़े-लिखे नहीं है। " अजय डोम ने कहा, जो हाल ही में घाट और अंतिम संस्कार से लौटे थे।

डोम का काम केवल पुरुष ही करते हैं। लड़कियों की शादी जल्दी कर दी जाती है।

उनके अनुसार, मई और जून के महीनों में भीषण गर्मी में उनकी चुनौतियाँ अधिक मुश्किल भरी होती हैं, जब उन्हें 38 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान में चिता जलानी पड़ती है। “जब जुलाई और अगस्त के बीच गंगा में बाढ़ आती है, तो घाट डूब जाते हैं। ऐसे समय में हम अपने घरों के पास की गलियों में ही अंतिम संस्कार करते हैं।” प्रवीण ने कहा।

“कभी-कभी अंतिम संस्कार की चिता में इस्तेमाल की जाने वाली नम लकड़ी से इतना धुआँ निकलता है कि हमारे घर काले धुएँ से भर जाते हैं। उन दिनों हम बाहर से खाना ऑर्डर करते हैं।'' उन्होंने कहा।

डोम का काम केवल पुरुष ही करते हैं। लड़कियों की शादी जल्दी कर दी जाती है, कभी-कभी जब वे केवल चौदह या पंद्रह साल की होती हैं और लड़कों की उम्र 18 या 20 वर्ष से अधिक नहीं होती है।

लेकिन अंतिम संस्कार में महिलाओं की एक अहम भूमिका होती है। वे अग्निकुंड को सजाती हैं, जहाँ से चिता के लिए पहली मशाल जलाई जाती है। “महिलाएँ इसे बारी-बारी से करती हैं। हर कोई यह कर सकता है। केवल महिला को मासिक धर्म नहीं होना चाहिए, वह गर्भवती नहीं होनी चाहिए, और उसे दूसरों को इसके बारे में बताए बिना बेहद गोपनीयता से सजावट का काम करना चाहिए। ”अजय ने समझाया।

बड़ी संख्या में डोम समुदाय के सदस्य अशिक्षित हैं। “हमारे समुदाय में बहुत से लोग शिक्षित नहीं हैं। एक तो, हमारे माता-पिता स्कूली शिक्षा को बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं समझते थे, और दूसरे हम हमेशा गरीब थे। हम पर जल्द से जल्द कमाई शुरू करने का दबाव था, इसलिए स्कूल पीछे छूट गया। ”अजय ने कहा।

डोम समुदाय को गर्व है कि कैसे उनके लोगों को महाराजा हरिश्चंद्र के अलावा किसी और के साथ काशी विश्वनाथ मंदिर में जाने से रोक दिया दिया गया था। जब ऐसा हुआ तो राजा हरिश्चंद्र ने घाट पर शिव मंदिर स्थापित किए, जिन्हें बाबा मसान के नाम से जाना जाने लगा।

लेकिन, समुदाय में बदलाव की बयार बह रही है। “अब, हम यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं कि हमारे बच्चे स्कूल जाएँ। हमारी आशा है कि शिक्षा उनके लिए दरवाजे खोलेगी और उन्हें समाज से सम्मान मिलेगा, जिससे हम वंचित हैं।''

“हम अपने समुदाय के लिए बेहतर जीवन पाने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं, ''वाराणसी डोम समुदाय के प्रमुख ओंकार चौधरी ने गाँव कनेक्शन को बताया। उन्होंने कहा, हमने कई बार सरकार के सामने अपनी माँगें रखी हैं।

जब गाँव कनेक्शन ने वाराणसी के मेयर अशोक तिवारी से संपर्क किया, तो उन्होंने कहा, “डोम समुदाय हमारे समाज का ज़रूरी हिस्सा है। हम नगर पालिका निधि बजट का उपयोग करके बच्चों को बेहतर शिक्षा प्रदान करने की योजना पर काम कर रहे हैं।"

बहिष्कार के बावज़ूद, डोम समुदाय को यह कहानी साझा करने पर गर्व है कि कैसे उनके लोगों को महाराजा हरिश्चंद्र के अलावा किसी और के साथ काशी विश्वनाथ मंदिर में जाने से रोक दिया दिया गया था। जब ऐसा हुआ तो राजा हरिश्चंद्र ने घाटों पर शिव के मंदिर स्थापित किए, जिन्हें बाबा मसान के नाम से जाना जाने लगा।

“बाबा मसान हमारे देवता हैं। वह सुख और दुख में हमारे साथ हैं। वह जीवन भर हमारा साथ निभाते हैं और हमेशा हमारे लिए मौजूद रहते हैं। '' अजय ने कहा। हर सुबह, दहन घाट के लिए रवाना होने से पहले, डोम बाबा मसान की पूजा करते हैं।

“बाबा मसान के बिना वह करना बहुत मुश्किल होगा जो हम करते हैं। गंध असहनीय है और कभी-कभी जब हमें पोस्टमार्टम के बाद शव मिलते हैं, तो यह भयानक होता है। ” प्रवीण ने कहा,वे मणिकर्णिका घाट पर एक और चिता जलाने के लिए अपने घर से बाहर निकल रहे थे।

#varanasi #banaras 

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.