नक्सली हिंसा के आगे भी बुलंद हैं छत्तीसगढ़ के आदिवासी स्कूलों के बच्चों के हौसले

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नक्सली हिंसा के आगे भी बुलंद हैं छत्तीसगढ़ के आदिवासी स्कूलों के बच्चों के हौसले

स्वाति सुभेदार,

जगदलपुर (छत्तीसगढ़): गांधी जयंती पर छत्तीसगढ़ के आदिवासियों ने राज्य में नक्सली हिंसा से शांति के लिए एक पदयात्रा निकली थी। इसमें 150 लोग आंध्रप्रदेश के चट्टी गांव से पदयात्रा करते हुए 10 दिन में छत्तीसगढ़ के जिले बस्तर के जगदलपुर पहुंचेे। यह यात्रा 2 अक्टूबर से 13 अक्टूबर तक चली। ये पदयात्री रात में रास्ते में पड़ने वाले स्कूलों में रुके। इन स्कूलों में 6 से लेकर 15 और कई में 17 साल तक के बच्चे छात्र हैं। ये सारे आवासीय स्कूल हैं, मतलब ये सभी बच्चे अपने माता-पिता को छोड़कर अपने घरों से दूर रहकर इन स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को देखकर पहले-पहल तो खुशी हुई लेकिन जब उनसे बातचीत हुई तो पता चला कि ये कितनी मुसबीतों के बीच यहां पढ़ रहे हैं, पर इसके बावजूद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी है।

इन पोटा केबिनों में बच्चों को उम्र के हिसाब से भर्ती किया जाता है। यहां उनका खाना-पीना और रहना सब निशुल्क है। रोकेल गांव का पोटा स्कूल

इन आवासीय स्कूलों को स्थानीय भाषा में पोर्टा या पोटा केबिन कहा जाता है। ये स्कूल नक्सल प्रभावित बस्तर, दंतेवाडा, नारायणपुर, सुकमा और बीजापुर में देखने को मिलते हैं। बांस और प्लाइवुड के बने ये स्कूल वॉटर और फायर प्रूफ हैं। लेकिन दूर-दराज के इलाके में बने ये स्कूल बदहाल सड़कों और खराब संचार साधनों की वजह से बाहरी दुनिया से कटे हुए हैं। इसके अलावा ये स्कूल नक्सलियों के सबसे आसान निशाना होते हैं। अधिकांश सुरक्षाबल स्कूलों में ही शरण लेते हैं इस वजह से नक्सली इन स्कूलों को जला देते हैं। इस तरह बहुत से स्कूल या तो नक्सलियों के डर से बंद हैं या नक्सलियों के हाथों जलाए जा चुके हैं।

2011 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार 6 से 14 साल के स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या केवल दंतेवाडा में ही 50 प्रतिशत थी, यहां 20 से 30 प्रतिशत स्कूल बंद हो चुके हैं। एक ऐसा भी समय था जब सुकमा में ही लगभग 21 हजार बच्चे स्कूलों से बाहर थे।

इन पोटा केबिनों में बच्चों को उम्र के हिसाब से भर्ती किया जाता है। यहां उनका खाना-पीना और रहना सब निशुल्क है। जो बच्चे पढ़ाई में कमजोर हैं उन पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। पाकेला के एक पोटा केबिन में पढ़ाने वाले शिक्षक धनंजय साहू दुर्ग के रहने वाले हैं, वह बताते हैं, 'कई ऐसे बच्चे हैं जो 10-12 साल के हैं लेकिन अभी भी पहली कक्षा में ही पढ़ रहे हैं। यहां स्कूल छोड़ने वालों की दर बहुत ज्यादा है। हाई स्कूल आते-आते बहुत से बच्चे स्कूल छोड़कर वापस उसी दुनिया में चले जाते हैं। गांवों में अभी भी 9-10 साल के बच्चों को नक्सल ले जाते हैं। उन्हें लगता है कि बच्चा अगर पढ़-लिख गया तो वह भविष्य में हमसे नहीं जुड़ेगा। इस सोच को बदलना बहुत जरूरी है।'

"इनमें से ज्यादातर बच्चे हिंसा से पीडि़त इलाकों या परिवार से आते हैं। कुछ बच्चे कभी घर से बाहर नहीं निकले, वे वापिस घर जाने की बात करते हैं। कई बच्चों ने हिंसा देखी है वे काफी सहमे हुए हैं। काश शहरी स्कूल के बच्चों जैसे इन बच्चो के लिए भी मनोचिकित्सक होते।'' इसी स्कूल के अधीक्षक राजेंद्र जैन ने बताया।

रोकेल गांव के पोटा स्कूल में पढने वाले 10 साल के कुंजुम राकेश येरुंडा

रोकेल गांव के पोटा स्कूल में पढने वाले 10 साल के कुंजुम राकेश येरुंडा ने बताया, "मैं काफी दूर के गांव में रहता हूं। वहां तक पहुंचने में पूरा एक दिन लगता है। पूरे इलाके में सुरक्षाबल तैनात हैं। जहां एक तरफ वे लोग आदिवासियों को मारते हैं वहीं दूसरी तरफ गांव वाले नक्सलियों से डरे रहते हैं। गांव में स्कूल तो है पर शिक्षक नहीं हैं। हम कुछ बच्चे तो बाहर आ गए हैं पढ़ने लेकिन ज्यादातर बच्चे गांवो में ही रहते हैं और कुछ नहीं करते।''

हड्मा मडके इसी स्कूल में पढ़ते हैं। नक्सली हिंसा में उन्होंने अपने पिता को खो दिया, इस दुख में उनकी मां ने भी अपनी जान दे दी। हड्मा कहते हैं, ''हमारे गांव में एक प्राइमरी स्कूल है। 10-12 बच्चे भी हैं लेकिन शिक्षक कोई नहीं। मेरे घर में कोई नहीं बचा। मैं खूब पढ़-लिखकर अधिकारी बनना चाहता हूं और बस्तर से बाहर निकलना चाहता हूं।''

"ज्यादातर पोटा केबिन स्कूल 8वीं तक हैं। उसके बाद ये बच्चे आगे नहीं पढ़ते या नहीं पढ़ पाते। कॉलेज जाने वाले बच्चो की संख्या तोे और भी कम है। ये बच्चे या तो अपने गांव चले जाते हैं और खेती करते हैं। ज्यादातर बच्चे जो पारंपरिक काम जैसे खेती या महुआ बेचने का काम नहीं करना चाहते वो बाहर चले जाते हैं... इधर-उधर। लेकिन इनकी पढाई की समस्या तो हल नहीं होती," प्रताप प्रधान ने बताया। प्रताप सुकमा के एक स्कूल में पढ़ाते हैं और शिक्षार्था एनजीओ से जुड़े हैं।

गांव के बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने में पोटा केबिन का बहुत बड़ा योगदान रहा है।

गांव के बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने में पोटा केबिन का बहुत बड़ा योगदान रहा है। 2011 से जब पहले पोटा केबिन बने तो उसके एक साल में 6-14 वर्ष के स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या 21,816 से घटकर करीब 5,000 हो गई, और पोटा केबिनों की संख्या बढ़कर 43 हो गई। ये आंकड़े अकेले दंतेवाड़ा के हैं।

2017 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार सुकमा, नारायणपुर, दंतेवाडा, और बीजापुर में स्तिथ 49 पोटा केबिन को पक्के स्कूलों में बदलने की मंजूरी दी गई है। यह एक बड़ी बात है।

अपनी पदयात्रा में जब यात्री एर्राबोर गांव के एक कन्या विध्यालय में रुके तो वहा पढ़ रही लडकियों के आशावाद को देखकर बहुत अच्छा लगा। सारी लड़कियां कॉलेज तक पढ़ना चाहती हैं और आगे जाकर ''कुछ बहुत बड़ा'' बनना चाहती हैं।

(स्वाति सुभेदार अहमदाबाद से हैं, कई बड़े मीडिया संस्थानों के साथ जुड़ी रही हैं, फिलहाल स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

      

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