छत्तीसगढ़: VIDEO से स्कूली बच्चों में जहर घोल रहे नक्सली, मुखबिरी और सप्लाई का करा रहे काम
नक्सली यहां के अंदरूनी और दुर्गम इलाकों में अपना कब्जा जमाए हुए हैं और इन इलाकों में बने स्कूल को तबाह कर चुके हैं।
Ranvijay Singh 30 April 2019 5:34 AM GMT
रानू तिवारी/रणविजय सिंह
दंतेवाड़ा। ''वो हमारे स्कूल में पढ़ता था। दादा लोग (नक्सली) उससे मलेरिया की दवाई मंगाए थे। घर जाते हुए पुलिस ने उसको पकड़ा और पूछताछ करने पर उसके पास से दवाई मिली और एक मोबाइल भी मिला। मोबाइल में नक्सियों के वीडियो थे।'' यह बात दंतेवाड़ा के एक पोटाकेबिन (आवासीय स्कूल) में पढ़ने वाला बच्चा अपने साथी बच्चे के बारे में बता रहा है, जिसे पुलिस ने कुछ दिनों पहले ही हिरासत में लिया था।
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों से लड़ाई सबसे अहम है। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा से हमेशा नक्सलियों और सुरक्षाबलों के बीच मुठभेड़ की खबरें आती रहती हैं। नक्सली यहां के अंदरूनी और दुर्गम इलाकों में अपना कब्जा जमाए हुए हैं और इन इलाकों में बने स्कूल को तबाह कर चुके हैं। इसके पीछे उनकी मंशा है कि बच्चे शिक्षा हासिल कर दुनिया से जुड़ न सकें और उनकी विचारधारा का पालन करते रहें। साथ ही उन्हें सुरक्षाबलों से लड़ाई के लिए लड़ाके भी चाहिए, जिनकी पूर्ति इन्हीं बच्चों से हो सकती है।
ऐसे में नक्सलियों के प्रभाव को कम करने के लिए राज्य सरकार ने पोटाकेबिन और आश्रम जैसे आवासीय विद्यालय खोल रखे हैं, जहां अंदरूनी इलाकों के बच्चे आकर रह सके औंर पढ़ाई कर सकें। लेकिन अब इन पोटाकेबिन और आश्रम में भी नक्सलियों की पहुंच हो रही है और वो वीडियो के माध्यम से बच्चों को बहकाने में लगे हैं।
इस बात का खुलासा दंतेवाड़ा जिले के एक पोटाकेबिन में पढ़ने वाले एक बच्चे की तलाशी के बाद हुआ। 20 अप्रैल को यह बच्चा पोटाकेबिन से घर जा रहा था। रास्ते में जब बच्चे की तलाशी की गई तो उसके पास से मलेरिया की दवाई और मोबाइल बरामद हुआ। इस मोबाइल में नक्सलियों के गीत, नक्सलियों की तस्वीरें, चेतना नाट्यदल (नक्सलियों का सांस्कृतिक दल) के वीडियो फुटेज मिले।
इस मामले पर दंतेवाड़ा के एसपी अभिषेक पल्लव बताते हैं, ''पिछले तीन महीने में ऐसे नौ बच्चे मिले हैं जिनके पास से मोबाइल बरामद हुआ है और उनमें नक्सलियों के वीडियो मिले हैं। यत तब है जब पोटाकेबिन में मोबाइल रखने की इजाजत नहीं है। अभी जो बच्चा सामने आया है वो अंदरूनी गांव का रहने वाला है। गांव में ही इसकी मुलाकात नक्सली कमांडर एसीएम वर्गिस से हुई थी। वर्गिस ने ही इसे मोबाइल दिया था, ऐसी बात सामने आई है। वर्गिस की मौत के बाद यह बच्चा भावुक हो गया था, इसके बाद से ही सुरक्षाबल इस पर नजर रख रहे थे।'' बता दें, नक्सली एसीएम वर्गिस पर पांच लाख का इनाम था, जिसे सुरक्षाबलों ने मुठभेड़ में 18 अप्रैल को मार गिराया था।
अभिषेक पल्लव बताते हैं, ''दंतेवाड़ा में 39 हजार बच्चे स्कूल में हैं। उसमें से 21 हजार बच्चे आवासीय स्कूल में हैं, जिन्हें आश्रम और पोटाकेबिन के रूप में जाना जाता है। अंदरूनी इलाकों के जो बच्चे हैं वो ज्यादातर आश्रम और पोटाकेबिन में ही हैं। गांव में उनका कनेक्शन रहता है। जो अंदर के बच्चे आते हैं उनकी भाषा भी गोंडी होती है तो उनको शुरू में स्कूल में अर्जेस्ट होने में भी दिक्कत होती है, ऐसे में नक्सली पहले यही कोशिश करते थे कि बच्चे स्कूल छोड़ दें, लेकिन जब वो इसमें कामयाब नहीं हो पाए तो वीडियो के माध्यम से उनपर असर डालने का नया तरीका निकाला है।''
अभिषेक पल्लव बताते हैं, नक्सली इन बच्चों का कई तरह से इस्तेमाल कर रहे हैं। पहला तो वीडियो के माध्यम से अपनी विचारधार फैलाने में कर रहे हैं। बच्चे मोबाइल को देखकर अट्रैक्ट होते हैं। ऐसे में वो इन्हें मोबाइल देते हैं और उनमें अपने वीडियो भी देते हैं। इस तरह से पोटाकेबिन में एक बच्चे से दूसरे बच्चे तक इनका प्रोपोगैंडा पहुंच जाता है। इसके अलावा जिन बच्चों के पास मोबाइल होता है उन्हें यह संत्री (मैंसेंजर) के तौर पर भी इस्तेमाल करते हैं। क्योंकि पोटाकेबिन सड़क के नजदीक होते हैं, ऐसे में रात में सुरक्षाबलों की बस निकलने पर यह बच्चे नक्सलियों तक इनकी जानकारी दे देते हैं। ऐसे में नक्सली पहले से सचेत हो जाते हैं।''
अभिषेक बताते हैं, ''नक्सली इन बच्चों का सप्लाई चेन के तौर पर भी इस्तेमाल कर रहे हैं। ज्यादातर पोटाकेबिन छोटे कस्बों में मौजूद हैं, जिनकी आबादी 4-5 हजार है। नक्सलियों को इन्हीं कस्बों से खुद के लिए सामान चाहिए होता है। ऐसे में बच्चे इन कस्बों से दवाइयां और अन्य सामान लेकर इन तक पहुंचते हैं। बच्चों को रोक भी नहीं सकते क्योंकि वो स्कूल ड्रेस में हैं। अगर उन्हें रोकेंगे तो नक्सली मानवाधिकार की बात उठा कर फायदा हासिल करना चाहते हैं।''
अभिषेक नक्सलियों की इस नई चाल को लेकर चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं, ''यह हमारे लिए बहुत बड़ा चैलेंज है। क्योंकि यह बच्चों को आगे करके जंग लड़ना चाहते हैं। यह बच्चे ही तो आगे का भविष्य हैं, अगर यही डिस्टर्ब हो जाएंगे तो बहुत खराब हालात हो सकते हैं। आवासीय सकूल में 200 से 250 बच्चे रहते हैं। ऐसे में नक्सलियों की इस चाल से यह मास रिक्यूमेंट सेंटर बन सकते हैं, क्योंकि बच्चों का रेडिकलाइजेशन और ब्रेन वॉश करना बहुत आसान होता है।''
अभिषेक पल्लव कहते हैं, ''नक्सली अगर स्कूल को टारगेट नहीं करेंगे तो पूरा जनरेशन ही उनके हाथ से निकल जाएगा। नक्सलियों को लग रहा है कि कहीं ऐसा न हो जाए इसलिए वो इस तरह की हरकत कर रहे हैं। पहले रेडिकलाइजेशन के लिए नक्सली इंटरनेट और मोबाइल का इस्तेमाल नहीं कर रहे थे, लेकिन अब वो इसे एक टूल के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं।'' अभिषेक मानते हैं कि नक्सलियों ने रेडिकलाइजेशन का यह नया तरीका आतंकी संगठनों से सीखा है।
नक्सलियों के इस नए तरीके पर नक्सल विरोधी अभियान से जुडे और एक्शन ग्रुप ऑफ नेशनल इंट्रिगिटी (AGNI) के सदस्य फारुख अली कहते हैं, ''दिक्कत यह है कि इन आवासीय स्कूल में जो बच्चे आते हैं वो अंदरूनी इलाकों से होते हैं। उनके मां बाप अंदर जंगलों में रहते हैं और वो यहां स्कूल में रहते हैं। ऐसे में नक्सली उन्हें डराते हैं कि अगर वो उनका काम नहीं करेंगे तो उनके मां बाप को मार दिया जाएगा। इस दबाव में भी बच्चे नक्सलियों के लिए काम करने लगते हैं।''
फारुख बताते हैं, ''पोटाकेबिन और आश्रम को लेकर अक्सर ऐसी खबरें आती रहती हैं कि यहां नक्सली भेष बदलकर बच्चों से मिलने आते हैं। उसके पीछे की यही वजह है कि बच्चों को अपनी विचारधारा बताकर अपने पक्ष में किया जा सके और अगर तब भी बच्चे न मानें तो उन्हें परिवार का डर दिखाकर राजी किया जा सके।''
फारुख एक घटना को याद करते हुए कहते हैं, ''दो छात्रों को नक्सलियों ने मार दिया था। उनपर मुखबिरी का आरोप लगाकर मार दिया गया। यह लड़के अंदर गांव के थे। नक्सलियों को थोड़ी भी भनक लगती है कि कोई लड़का होशियार है या अपने मां बाप को उनके चक्कर में न रहने की सलाह दे रहा है तो वो उसपर मुखबिरी का आरोप लगाकर मार देते हैं। इससे उनका डर भी कायम होता है और इस डर से वो बच्चों का इस्तेमाल खुद के लिए कर सकते हैं।''
करीब 22 साल से नक्सल प्रभावित इलाकों की रिपोर्टिंग करते आए वरिष्ठ पत्रकार मनीष गुप्ता इसपर कहते हैं, ''नक्सलियों की भर्ती का मुख्य आधार ही बच्चे हैं। इनके यहां बाल संघम करके एक विंग होती है। उसमें यह बच्चों की ही भर्ती करते हैं। खास तौर से इसमें स्कूल से ड्रॉप आउट बच्चे शामिल होते हैं। यह बच्चे फेल हो जाते हैं ऐसे में इनके मन में कुंठा होती है, नक्सली इसका ही फायदा उठाते हैं। यह बच्चे जब देखते हैं कि गांव में नक्सली हरी वर्दी पहन कर, बंदूक लटकाकर आए हैं और एक मुखिया के तौर पर संबोधित कर रहे हैं तो उनका झुकाव नक्सलियों की ओर हो जाता है।''
मनीष गुप्ता बीजेपुर जिले के आश्रम की बात को याद करते हुए कहते हैं, ''करीब एक दशक पहले बीजापुर जिले में एक आश्रम हुआ करता था। वहां के अधीक्षक मेरे मित्र थे। मैंने उनसे पूछा कि आश्रम कैसे चल रहे हैं। उन्होंने जो बात बताई वो चौकाने वाली थी। उन्होंने बातया कि वैसे तो वो आश्रम में रात को रुकते नहीं थे, क्योंकि रात में नक्सलियों का वहां आना होता था। एक रोज कुछ काम था तो वो कुछ देर तक आश्रम में रुक गए। करीब रात के 8 बज रहे होंगे कि बच्चों की ओर से 'जीड़दा-जीड़दा' की आवाज आने लगी। गोंडी भाषा में जीड़दा का मतलब होता है जिंदाबाद। जब मैंने वहां जाकर देखा तो रेडियो पर किसी नक्सली हमले में 2 जवानों के शहीद होने की जानकारी दी जा रही थी। बच्चे इससे खुश होकर नारे लगा रहे थे।''
मनीष गुप्ता बताते हैं, ''मेरे मित्र ने पता किया तो जानकारी हुई कि नक्सली पास के इलाके में कैंप लगाते थे और आस पास के आश्रमों से 10-10 बच्चों को 3 दिन के लिए वहां ले जाते थे। यह कैंप आवासीय होता था, जहां उन्हें उनके मिशन के बारे में जानकारी दी जाती थी।'' मनीष कहते हैं, यह बात मैंने इस लिए बताई कि बच्चे नक्सलियों के लिए हमेशा से जरूरी रहे हैं। क्योंकि लड़ाई जवान लोग ही लड़ेंगे और उन्हें यह जवान लोग बच्चों से ही मिलेंगे। इसी कड़ी में नक्सली अब पोटाकेबिन और आश्रम में मोबाइल और वीडियो से अपनी पहुंच बना रहे हैं।''
हालांकि नक्सलियों के इस प्लान को फ्लॉप करने के लिए प्रशासन भी काम में लग गया है। दंतेवाड़ा के एसपी अभिषेक पल्लव बताते हैं, ''हमने शिक्षा विभाग को लिखती में यहां रहने वाले बच्चों के लिए कुछ नियम दिए हैं। जैसे- जब बच्चे स्कूल से घर जाएं तो उनका सामान चेक किया जाए, ऐसा ही घर से वापस आते हुए भी किया जाए। पोटाकेबिन में कौन उनके मिलने आ रहा है इसकी जानकारी रखी जाए। बच्चों को मोबाइल न दिया जाए।'' अभिषेक पल्लव बताते हैं, ''ऐसे बच्चों को चिन्हित कर हम सही दिशा में लाने की कोशिश करते हैं। इसके लिए हेल्प लाइन सेंटर भी बनाया गया है। जिन बच्चों को हिरासत में लिया गया उन्हें चाइल्ड वेलफेयर कमेटी के सामने पेश करने के बाद बाल गृह भेजते हैं या तो काउंसलिंग सेंटर भेजते हैं। वहां हमारी कोशिश होती है कि बच्चों को समझा कर सही दिशा पर लाया जाए।''
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