क्या 10 लाख आदिवासियों को छोड़ना होगा अपना घर?

सुप्रीम कोर्ट ने वन्य अधिकार कानून के तहत जंगलों में रह रहे उन आदिवासियों को हटाने का आदेश दिया है, जिनके 'दावे' खारिज हो गए हैं।

Daya SagarDaya Sagar   21 Feb 2019 2:12 PM GMT

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क्या 10 लाख आदिवासियों को छोड़ना होगा अपना घर?

हृदयेश जोशी/ दया सागर

लखनऊ। सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद अब 10 लाख से अधिक आदिवासी और जंगलों में रह रहे परिवारों को घर छोड़ना पड़ेगा। पिछली 13 फरवरी को दिये इस आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने 16 राज्यों में उन आदिवासियों और वन में रहने वाले परिवारों को हटाने के लिये कहा है जिनके दावे खारिज कर दिये गये हैं। केंद्र सरकार ने पिछले एक साल में इस केस के दौरान वन अधिकार के तहत इन परिवारों के पक्ष में अपने वकील खड़े नहीं किये जिससे उसे कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।

सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि मामले की अगली सुनवाई से पहले इन परिवारों को जंगलों से हटाया जाये। अगली सुनवाई 27 जुलाई को होनी है। यह फैसला वन्य जीवों के लिये काम कर रहे कार्यकर्ताओं के द्वारा दायर केस में सुनाया गया है। वन्य जीवों और वन संरक्षण के लिये काम कर रही संस्थाओं वाइल्डलाइफ फर्स्ट, नेचर कन्जर्वेशन सोसाइटी और टाइगर रिसर्च कन्जर्वेशन ट्रस्ट और कार्यकर्ताओं ने वन अधिकार कानून को चुनौती दी है और उनका कहना है कि इसकी आड़ में लाखों लोगों ने फर्ज़ी दावे ठोंके जो निरस्त हो चुके हैं।

हटाये जा रहे आदिवासियों की संख्या इतनी अधिक है कि इसकी राजनीतिक प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। आदिवासी और वन-निवासियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाली मार्क्सिस्ट कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई-एम) नेता वृंदा करात ने इस संबंध में प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस मामले में तुरंत अध्यादेश लाने की अपील की है।

वृंदा करात 'गाँव कनेक्शन' से फोन पर बताती हैं, "सरकार ने आदिवासियों को धोखा दिया है। यह हैरान कर देने वाली बात है कि सरकार ने पिछले एक साल से इस मामले में कोर्ट में कोई लड़ाई नहीं लड़ी और सबसे महत्वपूर्ण दिन 13 फरवरी को भी इसके लिए सरकार की तरफ से कोर्ट में कोई वकील पेश नहीं हुआ। इससे पता चलता है कि सरकार आदिवासियों के अधिकारों के प्रति कितनी गंभीर है।"

करात ने यह भी आरोप लगाया कि याचिका दायर करने वाले एनजीओ के पीछे कुछ रिटायर्ड वन्य अधिकारियों का हाथ है, जो आदिवासियों से उनका हक छीनना चाहते हैं। करात के अनुसार ये अधिकारी कभी भी आदिवासियों को उनके अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे। दूसरी ओर करात ने प्रधानमंत्री को जो चिट्ठी लिखी है, उसके अनुसार सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से करीब 23.30 लाख की संख्या में आदिवासी प्रभावित होंगे।

कांग्रेस का भी आरोप है, 'भाजपा सरकार ने जान-बूझकर इस केस को मजबूती से कोर्ट में नहीं लड़ा। सरकार इस मामले में मूक-दर्शक बनी रही। इस तरह सरकार वन-निवासियों और आदिवासियों को धोखा दे रही है।' वन अधिकार कानून (2006) कांग्रेस के शासनकाल में ही संसद से पारित हुआ था।

आदिवासियों के हक के लिए लड़ने वाले स्वतंत्र पत्रकार मंगल कुंजाम ने 'गाँव कनेक्शन' से फोन पर बताया कि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय अपने आप में विरोधाभासी है। कुंजाम ने सुप्रीम कोर्ट के समता निर्णय (1997) और नियमगिरी-वेदांता निर्णय (2013) का जिक्र किया, जिसके अनुसार आदिवासी इलाकों में ग्राम सभा ही सर्वोपरि है। कुंजाम ने बताया, 'सुप्रीम कोर्ट के इन आदेशों में साफ है कि ग्राम सभा अपने हित के निर्णयों को स्वयं ले सकती है। ग्राम सभा की अनुमति के बगैर ऐसे इलाकों में एक पेड़ भी नहीं काटा जा सकता और ना ही कोई खनन हो सकता है। इसके अलावा आदिवासियों के जो दावे खारिज हुए हैं, वे सभी ग्राम सभा द्वारा ही प्रस्तावित हैं। चूंकि ग्राम सभा अपने अंदरूनी मामलों के लिए सर्वोपरि है इसलिए दावों के खारिज होने का सवाल ही नहीं उठता।'

मंगल कुंजाम ने दावों के खारिज होने में वन्य अधिकारियों का भी हाथ होने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा, 'इन इलाकों में कई बार ऐसे अधिकारियों को तैनात कर दिया जाता है जिन्हें वन्य अधिकार कानूनों का ज्ञान ही नहीं है। ऐसे अधिकारी आदिवासी अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं होते। संविधान में अनुसूचित क्षेत्रों के लिए कुछ अलग कानूनों की व्यवस्था की गई है। सामान्य क्षेत्रों के कानून अनुसूचित क्षेत्रों में लागू नहीं हो सकते, जबकि कुछ अधिकारी ऐसा करने की कोशिश करते हैं। ऐसे अधिकारियों पर ही आदिवासियों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने की जिम्मेदारी होती है।'

कुंजाम ने साफ किया कि कोर्ट के इस निर्णय से ना सिर्फ आदिवासियों के मूल अधिकारियों का हनन होगा बल्कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की भी अवमानना होगी जिसमें आदिवासी इलाकों की सामुदायिक ग्राम सभा को ही सर्वोपरि माना गया था।

क्या है वन्य अधिकार कानून 2006?

वन्य अधिकार कानून कांग्रेस नीत संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान 2006 में पास किया गया था। इस कानून में जंगलों में रहने वाले आदिवासी समूहों और वन्य निवासियों को संरक्षण देते हुए उनके पारम्परिक रहने के स्थानों को वापस देने का प्रावधान गया था। इस कानून में सामुदायिक पट्टे का भी प्रावधान था, जिसके अनुसार ग्राम सभा के जंगल और जमीन पर अधिकार स्थानीय ग्राम सभा का ही होगा।

वर्ष 2006 के इस कानून के अनुसार केंद्र सरकार को निर्धारित मानदंडों के अनुरूप आदिवासियों और अन्य वन-निवासियों को उनकी पारंपरिक वन्य भूमि को वापस सौंपना था। इसके लिए आदिवासी लोगों को कुछ निश्चित दस्तावेज दिखाकर जमीनों पर अपना दावा करना था। इसके बाद अधिकारी द्वारा इन दस्तावेजों के आधार पर आदिवासी और वन्य निवासियों के दावों की जांच करनी थी।

वृंदा करात की ओर से प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में दिसंबर, 2018 के सरकारी आंकड़े के अनुसार अभी तक इस कानून की मदद से 42.19 आदिवासियों में से सिर्फ 18.89 लाख आदिवासियों को ही उनकी भूमि वापस मिली है।

मंगल कुंजाम के अनुसार, 'इस आंकड़े में भी कई आदिवासी ऐसे हैं जिन्हें कागज पर तो अधिकार दिया गया लेकिन कभी वास्तविक रूप से पट्टा नहीं दिया गया। कई बार अधिकारी ही आदिवासियों को उनका हक देने में आना-कानी करते हैं।' मंगल कुंजाम ने सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को विरोधाभासी और पीछे हटने वाला फैसला बताया।

क्या है वन्य जीव समूहों का तर्क?

इस मामले में याचिका दायर करने वाले वन्य जीव समूहों, प्रकृति विज्ञानियों और फॉरेस्ट अधिकारी 2006 के इस कानून के खिलाफ हैं। इनका तर्क है कि इस कानून के आधार पर कई गैर-आधिकारिक लोग भी जंगल के संपत्ति पर अपना दावा पेश कर रहे हैं जिससे जंगल में रहने वाले वन्य जीवों पर असर पड़ रहा है। इसके अलावा कई लोग आदिवासी जातियों के नाम पर जंगलों से अपना अवैध कारोबार और जंगलों की कटाई भी करते रहे हैं। फॉरेस्ट अधिकारियों के अनुसार इस कानून की वजह से प्रशासनिक कठिनाईयां भी आती हैं।

इस मामले में प्रमुख याचिकाकर्ता संस्था 'वाइल्डलाइफ फर्स्ट' ने उन आरोपों को निराधार करार दिया जिसमें कहा जा रहा है कि इस एनजीओ का उद्योगपतियों और फारेेस्ट अधिकारियों से सांठ-गांठ है और ये मिलकर जंगलों का दोहन करना चाहती हैं।

'वाइल्डलाईफ फर्स्ट' ने नेचर कन्जर्वेशन सोसाइटी और टाइगर रिसर्च कन्जर्वेशन ट्रस्ट के साथ एक प्रेस रिलीज जारी करते हुए कहा, 'सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से सिर्फ वही लोग ही प्रभावित होंगे जो फर्जी दस्तावेजों के आधार पर वन्य अधिकार कानून 2006 का गलत प्रयोग कर रहे हैं। ऐसे लोग इस कानून की मदद से वन्य संपदा का लगातार दोहन कर रहे हैं।'

'वाइल्डलाईफ फर्स्ट' के सह-संस्थापक प्रवीण भार्गव ने 'गाँव कनेक्शन' को ई-मेल पर बताया कि उनकी संस्था जंगलों का दोहन करने वाली कॉरपोरेट संस्थाओं और उद्योगपतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ती रही है तो उद्योगपतियों से सांठ-गांठ का कोई सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने दावा किया कि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश उन आदिवासियों और वन निवासियों को कतई प्रभावित नहीं करेगा, जिनका जंगल और जमीन पर वास्तविक हक है।


         

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