मुश्किल दिनों में जीवन जीने की सीख देती है चार अनाथ आदिवासी बच्चों की ये कहानी

यह झारखंड के एक आदिवासी गाँव के 9 से 16 साल की उम्र के चार भाई-बहनों के जीवन में आए बदलाव की कहानी है, जिन्होंने कुछ महीनों के भीतर टीबी के कारण अपने माता-पिता और बड़ी बहन को खो दिया था। ज़िंदा रहने के लिए उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा और चावल की बीयर बेचनी पड़ी। फिर उनकी कहानी में एक नया मोड़ आया। कैसे? जानने के लिए पढ़े -

Manoj ChoudharyManoj Choudhary   3 July 2023 8:02 AM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
मुश्किल दिनों  में जीवन जीने  की सीख देती है चार अनाथ आदिवासी बच्चों की ये कहानी

अपनी मुश्किल भरी परिस्थितियों के बावज़ूद , इन भाई-बहनों ने अपनी पढ़ाई करने का सपना कभी नहीं छोड़ा। सभी फोटो: मनोज चौधरी

कलैता (पश्चिमी सिंहभूम), झारखंड। 2019 में कुछ महीनों के अंतराल में, चार भाई-बहनों ने अपनी बड़ी बहन, अपनी माँ और पिता को टीबी से मरते देखा था। वो कुछ नहीं कर पाए और न ही कर सकते थे। क्योंकि उनके पास असहाय खड़े होकर देखने के अलावा कोई चारा नहीं था।

अनाथ भाई-बहन में सबसे बड़ी बहन सुशांति हपतगड़ा की उम्र इस समय 16 साल की है। उनसे छोटी बहन मदे 14 साल की है। बीनू 13 और बरई नौ साल का है। ये बच्चे झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम ज़िले के कलैता गाँव के रहने वाले हैं।

अपने माता-पिता और बड़ी बहन के मरने के बाद, अनाथ बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया। उन्हें अपने आपको ज़िंदा रखने के लिए कई तरीके के काम करने पड़े, क्योंकि कोई भी रिश्तेदार या गाँव वाले उनकी मदद करने के लिए आगे नहीं आए थे। उन्होंने मिलकर जो थोड़ा-सा पैसा इकट्ठा किया था, उससे उन्होंने हंडिया या स्थानीय चावल बियर बनाई और बेची।


अपनी मुश्किल भरी परिस्थितियों के बावज़ूद, इन भाई-बहनों ने अपनी पढ़ाई करने का सपना कभी नहीं छोड़ा। 16 साल की सुशांति ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हमने घर पर हंडिया बनाया और इसे गाँव के बाज़ार में बेचा। हमने उस पैसे से अपने खाने के लिए चावल और सब्जियाँ खरीदीं।”

वह आगे बताती हैं, “परिवार में तीन सदस्यों को खोने के बाद हमने सामान्य जीवन जीने की सारी उम्मीदें खो दी थीं। लेकिन, हम हमेशा से जानते थे कि पढ़ाई पर वापस लौटना होगा। यह मेरी माँ का सपना था कि हम सब पढ़ें।”

तीन साल तक संघर्ष करने के बाद, भाई-बहन एक बार फिर से स्कूल लौट आए और अपनी पढ़ाई कर रहे हैं। इसका श्रेय स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता सोनू सिरका को जाता है। सिरका का अक्सर गाँव में आना-जाना लगा रहता था और वह अनाथ बच्चों को संघर्ष करते हुए देख रहे थे। और फिर एक दिन उन्होंने बच्चों की स्थिति को बेहतर करने का फैसला किया।

दोनों लड़कियों का दाखिला नोआमुंडी के कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय में करा दिया गया है, जबकि दो लड़कों को जगन्नाथपुर के सेंट पॉल मिडिल स्कूल मालुका में दाखिला दिया गया है।

-ग्रामीण अक्सर बीमार पड़ जाते हैं क्योंकि वे प्रदूषित नालों का गंदा पानी पीते हैं। आदिवासी गाँव में सुरक्षित पेयजल का कोई स्रोत नहीं है।

अब ये चारों भाई-बहन सपने देखने की हिम्मत कर पा रहे हैं। सुशाँति एक पुलिस अधिकारी बनना चाहती हैं और सारंडा में अपने गाँव की सेवा करना चाहती हैं। वही मदे का सपना डॉक्टर बनने का है ताकि किसी और को वह सब न सहना पड़े जो उसने और उसके भाई-बहनों ने सहा है। बीनू भारतीय सेना में शामिल होना चाहता है।

टीबी ने ली जान

कलैता गाँव के भाई-बहनों के लिए अब तक यह सफ़र आसान नहीं था। उनके 50 साल के पिता साहू हापतगड़ा तपेदिक से पीड़ित थे। वह कुछ काम नहीं कर पाते थे। लगभग 200 लोगों की आबादी वाले उनके सुदूर गाँव कलैता में कोई चिकित्सा सहायता उपलब्ध नहीं थी।

आँसुओं से भरी आँखों को मलते हुए सुशांति ने कहा, "मेरी माँ ने मज़दूरी करने का फैसला तब किया जब वह खुद गंभीर रूप से बीमार थीं और जून, 2019 में टीबी से उनकी मौत हो गई। मेरे पिता भी जनवरी 2020 में उनके पास चले गए थे।" अपनी माँ की मौत के बाद सुशांति को किरीबुरू शहर के अपग्रेडेड हाई स्कूल से पढ़ाई छोड़नी पड़ी। वहाँ वह आठवीं कक्षा में पढ़ती थीं।

बच्चों की एक रिश्तेदार रोशनी कंदैबुर ने कहा कि गाँव के लोग अक्सर बीमार पड़ जाते हैं क्योंकि वे प्रदूषित नालों का गंदा पानी पीते हैं। आदिवासी गाँव में साफ़ पीने के पानी का कोई स्रोत नहीं है।

-सामाजिक कार्यकर्ता सोनू सिरका से हुई मुलाकात ने उनके अंधेरे जीवन में रोशनी ला दी।

कंदैबुर ने गाँव कनेक्शन को बताया, "हमें पास के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तक जाने के लिए 20 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है और वहाँ तक आने-जाने के लिए कोई साधन नहीं है।" उन्होंने कहा कि बच्चों के सभी रिश्तेदार ख़ुद गरीब हैं और उनकी देखभाल करने में असमर्थ हैं।

उन्होंने कहा, “गाँव में नियमित जाँच और समय पर इलाज़ न हो पाने के कारण माँ, बेटी और पिता तीनों चल बसे। अशिक्षा, गरीबी और सही इलाज के बारे में जागरूकता की कमी ही उनकी मौत का कारण थी।”

ज़िंदा रहने के लिए, अनाथ बच्चे हंडिया या स्थानीय रूप से तैयार चावल की बीयर बनाकर बेचने लगे थे।

अँधेरे में रोशनी की एक किरण

सामाजिक कार्यकर्ता सोनू सिरका से हुई मुलाकात ने उनके अँधेरे जीवन में कुछ रोशनी ला दी। दिसंबर, 2021 में सिरका को उनकी गंभीर स्थिति के बारे में पता चला और उन्होंने उन्हें धर्मार्थ संगठनों से जोड़ने का फैसला किया जो उनकी मदद कर सकते थे। वह इस गाँव से लगभग 20 किलोमीटर दूर किरूरू गाँव में रहते हैं।

सिरका ने नोवामुंडी में टाटा स्टील के कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) प्रोजेक्ट के प्रमुख अनिल ओराँव से बात की और बच्चों को मुफ़्त में अपनी पढ़ाई जारी रखने का मौका मिला।

सिरका ने बताया, “इन बच्चों को जनवरी 2021 में, सबसे पहले मेडिकल जाँच के लिए पश्चिमी सिंहभूम ज़िला मुख्यालय चाईबासा ले जाया गया, फिर उन्हें उनके गाँव से लगभग 50 किलोमीटर दूर नोआमुंडी में टाटा स्टील द्वारा संचालित कैंप स्कूल के एक आवासीय शैक्षणिक संस्थान में भर्ती कराया गया। बच्चे फरवरी 2021 में वहाँ गए और उन्हें वहाँ नौ महीने के लिए मुफ़्त खाना और रहने की जगह दी गई।”

नोआमुंडी क्षेत्र में टाटा स्टील के सीएसआर प्रमुख ओराँव ने गाँव कनेक्शन को बताया कि टाटा स्टील फाउंडेशन कई तरह के कल्याण कार्यक्रम चलाता है। विशेष रूप से आदिवासी क्षेत्रों में जरूरतमंद बच्चों के लिए एमईएस कार्यक्रम चलाया जाता है। और इसी कार्यक्रम के तहत इन चार भाई-बहनों की भी मदद की गई है।

ओराँव ने कहा, "चार बच्चों को आकांक्षा कार्यक्रम के तहत सहायता दी गई है। वहाँ उन्हें बेहतरीन शिक्षा और सुविधाएं दी जा रही हैं।"

तेज़ी से सेहत में सुधार

कैंप स्कूल में, बच्चों को मिलने वाले उचित आहार और दिनचर्या से वो जल्दी ठीक हो गए।

कैंप स्कूल की आंगनवाड़ी कोऑर्डिनेटर अंजलि सुलंकी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “चारों बच्चों ने बहुत कम समय में अपनी शैक्षणिक योग्यता साबित कर दी। अपनी सबसे बड़ी बहन और माता-पिता को खोने के सदमे से उबरने में उन्हें कुछ समय लगा, लेकिन जल्द ही वे स्कूल के अन्य छात्रों और शिक्षकों के साथ घुल-मिल गए।”

उन्होंने कहा, "दोनों लड़कियों को दिसंबर, 2021 में नोवामुंडी में कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय में, जबकि दोनों लड़कों को जगन्नाथपुर के सेंट पॉल मिडिल स्कूल मालुका में दाखिला दिया गया।"

सीएसआर प्रमुख ओराँव ने कहा, "टाटा स्टील ने पालन-पोषण पर सरकारी नियमों के अनुसार, इन चार बच्चों को शैक्षणिक और अन्य सहायता दी है।"

पश्चिमी सिंहभूम ज़िला बाल संरक्षण कार्यालय, बच्चों के रिश्तेदारों और ग्रामीणों से भाई-बहनों को पालने की मंज़ूरी मिलने के बाद, टाटा स्टील अब उन्हें वित्तीय, शैक्षिक और अन्य सहायता भी देती है। ओरांव ने कहा, "यह तब तक मदद करता रहेगा जब तक वे आत्मनिर्भर नहीं हो जाते।"

मदद के एक हाथ बढ़ने से अब ये अनाथ भाई-बहन अपने गाँव और देश की सेवा करने का सपना देख रहे हैं।

#Jharkhand 

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.