आज भी लैंगिक असमानता से क्यों जूझ रही हैं नौकरीपेशा महिलाएँ

बेशक देश में बालिका शिक्षा पर ज़ोर दिया जा रहा है, लड़कियों के स्कूलों की संख्या बढ़ी है, लेकिन दफ़्तरों में आज भी महिलाएँ लैंगिक असमानता का शिकार है। इससे जुड़ी 'भारत भेदभाव रिपोर्ट 2022' और वर्ल्ड बैंक की ताज़ा रिपोर्ट चौंकाने वाली है।

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आज भी लैंगिक असमानता से क्यों जूझ रही हैं नौकरीपेशा महिलाएँ

भारत में वर्तमान केंद्र सरकार ने राजनीति में महिलाओं की दशा दिशा सुधारने के लिए 33 प्रतिशत हिस्सेदारी बेशक तय कर दी है; लेकिन यह समाज में महिलाओं को लैंगिक समानता और उनके हक दिलाने के लिए नाकाफी है। राजनीतिक भूमिका बढ़ने के बाद भी भारत में सदियों पुराना लैंगिक असमानता का भाव आज भी कायम है।

कॉरपोरेट से लेकर सरकारी नौकरियों और छोटी निजी नौकरियों में महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कम आंका जाता है। उनके वेतन, काम की ज़िम्मेदारी, तरक्की में आज भी तमाम बाधाएं हैं। सबसे बड़ी मुश्किल उनका महिला होना है। अक्सर महिलाओं को मज़दूरी के मुताबिक़ वेतन नहीं दिया जाता है। हद तो तब हो जाती है जब दफ़्तर में महिला, पुरुष समान पद, समान ज़िम्मेदारी पर होने के बाद भी बराबर वेतन पाने की हकदार नहीं होती। प्रमोशन, इंक्रीमेंट से लेकर तरक्की के हर पायदान पर उन्हें अहसास कराया जाता है कि वो महिला हैं। उन्हें तरक्की, अच्छे वेतन की आवश्यकता पुरुषों से कम है।

दुनिया भर में करीब 240 करोड़ महिलाएँ, पुरुषों के समान अधिकारों से वंचित हैं। अनुमान है कि उनके बीच के इस अंतराल को भरने में अभी 50 साल और लगेंगे। पिछले दिनों सोशल नेटवर्किग साइट लिंक्डइन द्वारा 'वाट वुमेन वांट' शीर्षक से कराए गए सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत में 94 प्रतिशत महिलाएँ मानती हैं कि उनका करियर सफल है। वहीं दुनियाभर की 63 प्रतिशत महिलाओं ने काम और व्यक्तिगत ज़िंदगी के बीच सही संतुलन को पेशेवर ज़िंदगी माना है। जबकि करीब तीन चौथाई यानी 74 प्रतिशत महिलाओं का मानना है उन्हें काम और सफल व्यक्तिगत जीवन दोनों मिल सकता है।

कुप्रथाएँ ख़त्म फिर भी कायम है लैंगिक भेदभाव

महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव की बात करें तो पुरुष कहते हैं कि अब लड़कियाँ पहले के मुकाबले आज़ाद हैं। मनचाहे कपड़े पहनती हैं। फैशन करती हैं, शॉपिंग, घूमना, जॉब सब करती हैं। उच्च शिक्षा ले रही हैं। पहले के मुकाबले तमाम कुप्रथाएँ भी बंद हुई हैं। इसलिए अब लड़कियों, महिलाओं को खुला आकाश मिल रहा है।



इन सबके बावज़ूद ये एक कड़वी सच्चाई है कि वर्कप्लेस पर आज भी महिलाओं को जेंडर इनइक्वेलिटी का शिकार होना पड़ रहा है। रोज़गार में महिलाओं के पास पुरुषों से कम मौके होते हैं। अगर मौका मिल भी जाए तो उन्हें पुरुषों से कम वेतन दिया जाता है। एक सर्वे के अनुसार पुरुषों और महिलाओं के बीच वेतन असमानता का 93% हिस्सा भेदभाव के कारण है।

तीन दशकों से हालातों में नहीं आया बदलाव

दुनिया में आज भी काम करने की उम्र वाली केवल 61.8 फीसदी महिलाएँ श्रम बल का हिस्सा हैं। यह आंकड़ा पिछले तीन दशकों में नहीं बदला है। इसके उलट पुरुषों की बात करें तो 90 फीसदी काम कर रहे है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी नई रिपोर्ट "द पाथ्स टू इक्वल" में चौंकाने वाली बातें सामने आई हैं। इस रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र की दो प्रमुख एजेंसियों यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) और महिला सशक्तिकरण के लिए काम कर रहे संगठन यूएन वीमेन ने मिलकर तैयार किया है।

इस रिपोर्ट में लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण को मापने के लिए महिला सशक्तिकरण सूचकांक (डब्ल्यूईआई) और वैश्विक लैंगिक समानता सूचकांक (जीजीपीआई) को उपकरण के रूप में पेश किया गया है। 90 फीसदी से ज़्यादा यानी 310 करोड़ महिलाएँ ऐसे देशों में रहती हैं, जहां उन्हें अभी भी पुरुषों से कमतर आंका जाता है। इन देशों में भारत भी शामिल है।

वर्कप्लेस पर जेंडर इक्वेलिटी लाने में लगेंगे 50 साल

वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में करीब 240 करोड़ महिलाएँ, पुरुषों के समान अधिकारों से वंचित हैं। अनुमान है कि उनके बीच के इस अंतर को भरने में अभी 50 साल और लगेंगें। आय के मामले में भी महिलाओं की स्थिति कहीं ज़्यादा ख़राब है। यदि 2019 के आंकड़ों पर गौर करें तो वैश्विक स्तर पर जहाँ पुरुषों ने आय के रूप में एक रूपया कमाया था, वहीं महिलाओं ने केवल 51 पैसे ही अर्जित किए थे। यह गैप निम्न-मध्यम आय वाले देशों में ज़्यादा बड़ा है जहाँ पुरुषों के एक रुपए की कमाई की तुलना में महिलाओं को केवल 29 पैसे ही मिले थे।

जेंडर नहीं काम योग्यता बने पैमाना

पुलिस, सेना, राजनीति, कॉरपोरेट, स्पेस साइंस जैसे चैलेंजिंग सेक्टर में आज महिलाओं की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। लेकिन उनकी आर्थिक हिस्सेदारी को भी अहमियत देना होगा। तभी लैंगिक असमानता के जाल से देश को आज़ादी मिलेगी। कंपनियों, नियोक्ताओं को समझना होगा कि ज़िम्मेदारी जेंडर से तय नहीं होती। बल्कि काम की सफलता, असफलता योग्यता पर निर्भर होती है।

कंपनियों को इंक्रीमेंट, प्रमोशन, सैलरी और तरक्की का पैमाना जेँडर नहीं काबिलियत बनाना होगा। ऑक्सफैम इंडिया के एक नए विश्लेषण के अनुसार, शहरी भारत में पुरुषों और महिलाओं के बीच रोज़गार अंतर का 98 प्रतिशत हिस्सा लैंगिक भेदभाव के कारण है। 'भारत भेदभाव रिपोर्ट 2022' शीर्षक वाली इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भेदभाव ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं द्वारा सामना की जाने वाली 100 प्रतिशत रोज़गार असमानता का कारण बनता है।

(सीमा अग्रवाल स्वतंत्र लेखक हैं और ये उनके निजी विचार हैं )

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