उत्तर प्रदेश में बचे हैं मात्र 1350 प्रकृति के सफाईकर्मी
Ashwani Nigam 11 Dec 2016 8:52 PM GMT
लखनऊ। दो दशक पहले तक गावों और कस्बों में एक खास जगह हुआ करती थी, जहां पर मरे हुए मवेशियों को रखा जाता था। वहां पर मवेशियों के मृत शरीर को भक्षण करते हुए गिद्ध दिख जाते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं दिखता, जिसका नतीजा है आज इन जगहों पर कई-कई दिनों तक मवेशियों की लाश पड़ी रहती है। इससे दुर्गन्ध फैलती है और वायुमंडल में प्रदूषण भी फैलता है। ऐसे इसलिए हो रहा क्योंकि प्रकृति के सफाईकर्मी कहे जाने वाले गिद्ध विलुप्त होने की कगार पर है। स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश में मात्र 1350 गिद्ध ही बचे हैं। यह आंकड़े उत्तर प्रदेश वन विभाग के हैं।
सबसे ज्यादा नुकसान पर्यावरण पर
हालांकि गिद्धों बचाने के लिए पर्यावरणविद और राज्य सरकार काम कर रही है। गिद्धों की संख्या कम होने से सबसे ज्यादा नुकसान पर्यावरण पर पड़ रहा है। मरे हुए मवेशियों के अवेशष से फैलने वाली गंदगी से गांव और शहर हर जगह लोग परेशान हैं। उत्तर प्रदेश में कम होती गिद्दों की संख्या को लेकर लखनऊ विश्वविद्यालय के जन्तु विज्ञान विभाग की प्रोफेसर डॉ. अमिता कनौजिया और उनके सफाई की एक कुदरती मशीन गिद्धों की पर्यावरण संतुलन और सफाई में बहुत बड़ी भूमिका है। खासकर ऐसे समय में मवेशियों की मौत हो जाती है। मशूहर पक्षीविद डाक्टर सालिम अली ने अपनी पुस्तक इंडियन बड्र्स में गिद्धों को वर्णन करते हुए इनको सफाई की एक ऐसी कुदरती मशीन बताया है, जिसकी जगह कभी मानव अविष्कार से बनी कृत्रिम मशीनें नहीं ले सकती हैं। गिद्धों का एक दल एक मरे हुए सांड़ को केवल 30 मिनट में ही साफ कर सकता है। सिर्फ सफाई ही नहीं, बल्कि गिद्धों की संख्या में तेजी से हो रही कमी पर्यावरण की खाद्य कड़ी के लिए भी खतरा है।
गिद्धों की संख्या कम होने से रेबीज का बढ़ा खतरा
गिद्धों का प्रकृति में अतुलनीय योगदान है। अगर गिद्ध हमारी प्रकृति का हिस्सा न हो तो हमारी धरती हड्डियों और सढ़े मांस का ढेर हो जाती। गिद्ध प्रकृति का सफाईकर्मी होने के साथ ही समाज में कई प्रकार की सुविधा देते हैं। जिसमें सबसे बड़ा है मृत शरीर का भक्षण करने से गिद्ध हमें कई तरह की बीमारियों से बचाता है। गिद्धों की घटती संख्या से मृत शरीरों के निस्तारण की सबसे ज्यादा समस्या आ गई है। जिसके कारण आवारा कुत्तों और चूहों की संख्या बढ़ी है, ये मृत मवेशियों के मांस का भक्षण करते हैं जिनसे रेबीज रोग का खतरा फैलने की आशंका रहती है।
मनुष्य और रासायिनक दवाएं हैं गिद्ध की घटती संख्या के जिम्मेदार
गिद्धों की संख्या कम हो रही है, इसको लेकर सत्तर के दशक से लेकर अभी तक वैज्ञानिकों ने कई रिसर्च किया है। उत्तर प्रदेश के मुख्य वन संरक्षक एसके शर्मा के अनुसार, पहले माना जाता था कि पशुओं के मृत शरीर में डीडीटी का अंश बढ़नने के कारण यह गिद्धों के शरीर में पहुंच गया, जिससे उनकी मौत हो जारी है। मगर उसके बाद वैज्ञानिकों ने कहा कि गिद्धों पर किसी वायरस का हमला हुआ है। जिस कारण वह सुस्त हो जाते हैं। गिद्ध अपने शरीर का तापमान कम करने के लिए ऊंची उड़ान भरते हैं और ऊंचाई में वायुमंडल में ऊपर का तापमान कम होता है। वहां जाकर ठंठक प्राप्त करते हैं। वायरस के आक्रमण के कारण वह सुस्त हो गए और उड़ान नहीं भर पा रहे थे। जिससे बढ़ते तामपान के कारण उनके शरीर में पानी की कमी हो गई। इससे यूरिक एसिड के सफेद कण इनके हृदय, लीवर और किडनी में जम जाते हैं। जिससे उनकी मौत हो जाती है। इसके बाद रिसर्च में पता चला कि पशुओं में बुखार, सूजन और दर्द कम करने के लिए डायक्लोफेनेक दवाई दी जाती है। मृत पशु को गिद्ध जब खाते हैं तो उनके शरीर में पहुंच जाती है। जिससे गिद्धों के किडनी में गाउट नामक रोग हो जाता है और गिद्धों की मृत्यु हो जाती है। इस रिसर्च के बाद 11 मई 2006 को सरकार ने इस दवा को बैन कर दिया। जिसमें इसका उत्पादन और बिक्री कोई नहीं कर सकता। इसके साथ ही पेड़ों की कटाई-छंटाई के कारण गिद्धों के घोंसले खत्म हो गए। साथ ही खनन में होने वाले धमाकों के कारण भी गिद्धों की संख्या कम हो गई।
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