"हम घर-घर जाकर, घंटे भर टॉयलेट ढूंढते रहे…"

दो रिपोर्टर, एक दुपहिया, एक यात्रा।थोड़ी यायावर, थोड़ी पत्रकार बनकर गाँव कनेक्शन की जिज्ञासा मिश्रा और प्रज्ञा भारती ने बुंदेलखंड में पांच सौ किलोमीटर की यात्रा की। दो-दीवाने के पहले सीरीज़ की यात्रा में हमारा (जिज्ञासा और प्रज्ञा का) एक स्टॉपेज मझगवां के पहले लोखरिहा गाँव था। सतना जिले में आने वाले इस गाँव ने हमें जिस कदर टॉयलेट की अहमियत सिखाई, हम कभी नहीं भूल पाएंगे।

Jigyasa MishraJigyasa Mishra   21 May 2019 5:59 PM GMT

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भाग-2

दो-दीवाने के पहले सीरीज़ की यात्रा में हमारा एक स्टॉपेज मझगवां के पहले लोखरिहा गाँव था। सतना जिले में आने वाले इस गाँव ने हमें जिस कदर टॉयलेट की अहमियत सिखाई, हम कभी नहीं भूल पाएंगे। "हम घर-घर जाकर, घंटे भर टॉयलेट ढूंढते रहे: ऐसा नहीं है कि शहर में, पहले कभी टॉयलेट न ढूँढा हो लेकिन 'यहाँ कहीं नहीं है बाथरूम, खेत में ही जाना पड़ेगा' जैसा जवाब पहली बार मिला था"

लोखरिहा (मध्य प्रदेश)। शहर में कुछ चीज़ों की कैसे आदत पड़ जाती है ना?

जैसे वॉशरूम?

हमारी यात्रा का पहला ही दिन था ये। सतना और चित्रकूट के बीच जंगलों वाले रस्तों से गाड़ी चलते हुए, दो कप चाय सुड़कते हुए, अपनी दो पहिया चलाकर मैं और यात्रा में मेरी साथी प्रज्ञा एक गाँव में आ रुके थे। दिन के बारह बज रहे थे और हम उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बॉर्डर से 30 किलोमीटर आगे, सतना जिले के लोखरिहा गाँव में अपनी स्कूटर लगा चुके थे और महिलाओं से पानी की दिक्कतों के बारे में चर्चा चालू थी।


एक महिला से बातचीत ख़त्म होते ही मैंने प्रज्ञा से कहा कि मुझे टॉयलेट जाना है उसके बाद और महिलाओं से बात करेंगे। हमने लेपल माइक समेटा और ट्राइपॉड किनारे कर मैंने उसी महिला से पुछा, "आंटी, आपका टॉयलेट यूज़ कर सकते हैं?" 10-15 सेकंड उसने हमें देखा, फ़िर अपने बेटे को और फ़िर हँसते हुए बोली, "यहाँ टोइलेट नहीं होते। नहीं है हमारे यहाँ।"


यूं तो मार्च महीने की धूप मीठी मानी जाती है लेकिन अगर आप बुंदेलखंड के पथरीले रास्तों पर दिन के 12 बजे, 10 मिनट भी टिक जाएं तो वह चिलचिलाती धूप आपका स्किन टोन बदलने के लिए काफी होती है। और उस तपती धूप के नीचे, जब एक अनजान गाँव में सिर्फ टॉयलेट ढूंढने के लिए घर-घर भटकना पड़े, तब तो क्या कहना!

अगले घर में भी हमे यही जवाब मिला, फ़िर अगले और उसके बाद वाले में भी। इस बार तो एक बूढी अम्मा ने सीधा आकर बोला, "इन्घे नहीं है बाथरूम-वाथरूम, खेत में ही जाई पड़ी!"

कहाँ थे वो बाथरूम जो हमने सुना था कि पूरे ज़िले में बन गए हैं? सरकारी आंकड़ों के अनुसार 22 लाख, 28 हज़ार की आबादी वाला सतना जिला पूर्णतः खुले में शौच से मुक्त हो चुका है।


कागज़ी आंकड़ों और ज़मीनी सच्चाई में गाँव में उस वक़्त उतनी ही दूरी लग रही थी जितनी हम में और एक साफ़ टॉयलेट में।

करीब एक घंटे घरों में पूछने और पब्लिक टॉयलेट ढूंढने के बाद जब हमने गाँव की एक लड़की सुनीता से पूछा कि क्या पूरे गाँव भर में बाथरूम किसी के घर में बना ही नहीं है? उसने बताया, "मैडम बना तो है हमारे यहाँ एक लेकिन उसमें गढ्ढा नहीं खुदा है और दरवाज़ा भी ठीक नहीं है।" कम से कम बाथरूम तो मिला, ये सुन कर जान में जान आयी और हम उसके पीछे-पीछे चल दिए।

सुनीता के कच्चे घर को घेरे हुए, लकड़ी के बाड़ों को फांद कर जब हम अंदर पहुंचे तो दो टॉयलेट दिखाई दिए, टिन के दरवाज़ों वाले। अपना बैग प्रज्ञा के हवाले कर जब मैंने दरवाज़े को धक्का दिया तो अंदर का दृश्य देखकर सर घूम गया। पूरी तरह चोक था वह टॉयलेट, ऊपर तक भरा हुआ। तुरंत दरवाज़ा वापस बंद किया और हिम्मत करके दूसरा वाला खोला। साफ़ तो नहीं कह सकते, हाँ लेकिन पहले वाले से बेहतर था ये! यहाँ तो टॉयलेट हो लिए हम लेकिन मन में यही चल रहा था कि अब पानी हिसाब से पीना है।


हमें आश्चर्य हुआ ये जान कर कि` शौच के लिए रोज़ का संघर्ष अब भी बहुत सी महिलाओं की सच्चाई है।

"यहीं, खेत में ही जाते हैं सुबह-सुबह हम लोग सब, एक साथ," सुनीता ने बताया। "अब तो फ़सल कटने लग गई है तो वो भी एक बड़ी दिक्कत है हमारे लिए। कोई देख ले तो वहीँ गाली देकर भगाने लगता है। भले ही गरीब हैं लेकिन औरत हैं तो इज़्ज़त का भी देखना तो पड़ता ही है।"

स्वच्छ भारत मिशन की वेबसाइट के अनुसार मध्य प्रदेश 88.51% खुले में शौच से मुक्त है। शायद गणना करते वाले इस गाँव नहीं पहुँच पाए।

यहाँ पढ़ें सीरीज़ की पहली खबर:"गांव में तो बिटिया बस बूढ़े बच रह गए, सबरे निकल गए शहर को..."

"डर भी लगता है जब रात को जाना पड़ता है," सुनीता की सहेली गुडिया ने कहा।"जब तक कोई साथ चलने को तैयार न हो, अकेले जाने का सोच भी नहीं सकते खेतों में।"


मैं और प्रज्ञा निशब्द थे।

ऐसा नहीं है कि शहर में, पहले कभी टॉयलेट न ढूँढा हो लेकिन "इन्घे नहीं है बाथरूम-वाथरूम, खेत में ही जाई पड़ी" जैसा जवाब पहली बार मिला था; वो भी एक घंटे तक टॉयलेट ढूँढने के बाद। कुछ और देर होती तो शायद हमें भी खेत का ही रुख करना होता।


ये सब होते-होते जब घड़ी की ओर नज़र घुमाई तो दो बज चुके थे। अपने बैग्स स्कूटी पर सेट करके, ट्राइपॉड पीछे बाँधा और आगे के सफ़र के लिए निकल गए हम। अभी हमें शाम ढलने से पहले मझगवा होते हुए सतना पहुंचना था; करीबन 70 किलोमीटर का सफर तय करके। वो भी अगली बार टॉयलेट की ज़रुरत महसूस होने से पहले!


               

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