कहानियों में ही न बाकी रह जाएं कुम्हार

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कहानियों में ही न बाकी रह जाएं कुम्हारkumhaar

मेरठ। कुम्हार की चाक मिट्टी आज अपना ही वजूद तलाश रही है। कड़ी मेहनत से मिट्टी के दिये और बर्तन बनाने वाले इन कुम्हारों को आज खरीददार नहीं मिल रहे हैं। एक दौर था जब कुम्हार दिपावली का बेसब्री से इंतजार करते थे। उस समय मिट्टी से बने दियों की बहुत मांग रहती थी और बाजारों में इनके खरीदारों की भीड़ नजर आती थी। मगर अब बदलते दौर के साथ इन मिट्टी के दियों और बर्तनों को बनाने वाले कुम्हार इक्का-दुक्का ही नजर आते हैं। अब चीन से आए रंग-बिरंगे डिजायनर दीपों की डिमांड ज्यादा है। इसका मुख्य कारण है संगठित बाजार, सरकारी समर्थन की कमी और विदेश वस्तुओं की भरमार। पहले जिन गांवों में कुम्हारों की भरमार होती थी, वहां अब बहुत कम ही कुम्हार ही बचे हैं। कहीं ऐसा न हो कि आने वाले समय में कुम्हार कहानियों में ही बचें।

चाक से वीरपाल की कई पीढ़ियों का नाता

देखिए...लगन देखिए... मेरठ शहर से करीब 30 किलोमीटर दूर घोपला गांव में कितनी बारीकी से अपने चाक पर मिट्टी के गुल्लक बना रहे हैं। इन मिट्टी के गुल्लकों में बच्चे सिक्का जमा करेंगे... लेकिन, कुम्हारी के इस पेशे से दिन-रात मेहनत करने के बाद भी दो वक्त की पूरी रोटी इनके परिवार को नहीं मिल पाती...तो भला एक गुल्लक घर के किसी कोने में रखकर भी क्या करेंगे? मिट्टी और चाक से वीरपाल की कई पीढ़ियों का नाता रहा है।


रोज सुबह अपने मिट्टी के बर्तनों को देखते हैं

वहीं, परमाल सिंह ने भी बचपन में ही बड़े-बुर्जुगों की देखा-देखी चाक से दोस्ती कर ली...आखिर, इसके अलावा किसी और को कुछ आता भी तो नहीं था। रोज सुबह अपने बनाए मिट्टी के बर्तनों को देखते हैं। उससे होने वाले मुनाफे के बारे में सोचते हैं और पूछने पर दर्द कुछ इस अंदाज में निकलता है। इतनी मेहनत और लगन से बनाए गए मिट्टी के बर्तनों को आज खरीददार नहीं मिल रहे...बदलते वक्त के साथ मिट्टी की सुराही की जगह फ्रीज ने ले ली है। ऐसे में सुराही और घड़े या तो गरीबों के घर पहुंच रहे हैं या फिर फैशन के तौर पर रईसों के घर।

कुम्हार की कमाई ऊंट के मुंह में जीरा जैसी

अब चीन से आए रंग-बिरंगे डिजायनर दीप मिट्टी से बने परंपरागत दीयों को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। हालांकि, शादी-ब्याह और पूजा-पाठ के मौकों पर मिट्टी दीयों की मांग जरुर बढ़ जाती है...जो दम तोड़ती कुम्हार की चाक को थोड़ी राहत मिल जाती है। चाक पर मिट्टी से सुन्दर बर्तन गढ़ने वाले कुम्हार ज्यादातर गांवों में ही मिलते हैं। मिट्टी पर कोमल हाथों से कारीगरी का काम एक पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को सीखाती रही है...मेरठ में अभी भी ये सिलसिला बिना रुके चल रहा है। लेकिन, इससे होने वाली कमाई गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए ऊंट के मुंह में जीरा जैसी है। शायद, इसीलिए कुम्हारों को दुनिया वीरानी लग रही है।


      

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