किसानों का दर्द: यही हाल रहा तो हम भी खेती छोड़ देंगे

Divendra SinghDivendra Singh   4 Aug 2019 11:35 AM GMT

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दुगड्डा, पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)। "यहां खेत में लोग आते हैं फोटो खींचते हैं और चल जाते हैं, कुछ नहीं होता है फसल तो हमारी बर्बाद होती है, इसीलिए लोग गाँव छोड़कर चले जा रहे हैं, "जंगली जानवरों से परेशान किसान प्रेमलाल कहते हैं।

प्रेमलाल उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के दुगड्डा ब्लॉक के अमसौर गाँव के रहने वाले हैं, उत्तराखंड के दूसरे गाँवों की तरह ही पिछले कुछ वर्षों में यहां पर पलायन हुए हैं। जबकि यहां पर धान, गेहूं और दलहनी फसलों और आलू की अच्छी पैदावार होती थी। लेकिन अब तो जंगली जानवर आकर सारी फसल बर्बाद कर देते हैं।

किसान इस समय धान की फसल लगा रहे हैं, लेकिन ये भी डर है कि जैसे फसल तैयार होगी, जंगली सुअर, बंदर जैसे जानवर आकर बर्बाद कर देंगे। अब तो गाँव तक हाथी भी आने लगे हैं। अपने धान की नर्सरी को रोपाई के लिए उखाड़ती यशोदा गुस्से में कहती हैं, "खेत में जाकर फोटो लो न जहां पर हाथी ने फसल बर्बाद की है, लोग बड़े-बड़े कैमरा लेकर आते हैं फोटो खींचते हैं और चले जाते हैं, अभी उस दिन एक हाथी आया था, खेत को कुचल दिया था।"

धान की नर्सरी को रोपाई के लिए उखाड़ती यशोदा

कोटद्वार से पहले दुगड्डा गढ़वाल का व्यवसायिक केंद्र हुआ करता था, लेकिन साल 1953 में कोटद्वार में रेलवे लाइन के शुरू होने से कोटद्वार वो केंद्र बन गया। यहां से ही पहाड़ी क्षेत्र की शुरुआत होती है, खोह नदी पर बनी नहर से यहां पर सिंचाई की भी अच्छी खासी व्यवस्था है। इससे यहां पर धान, गेहूं के साथ ही दलहनी फसलों की भी अच्छी खेती होती है।


गर्मियों में सबसे जानवर नुकसान पहुंचाते हैं, जब जंगलों में पानी स्रोत सूख जाते हैं तो हाथी पानी पीने के लिए आते हैं, अक्सर ये जानवर खेतों तक आ जाते हैं और फसल बर्बाद कर देते हैं। पलायन आयोग के मुताबिक उत्तराखंड में 2011 की जनगणना के बाद से अब तक 734 गांव पूरी तरह खाली हो गए हैें, वहीं 565 ऐसे गांव हैं जिनकी जनसंख्या 50 प्रतिशत से कम हो गई है।

चारे की फसल में हाथी के पैरों के निशान

अखिल भारतीय किसान महासभा के मुताबिक वर्ष 2016-17 में पर्वतीय क्षेत्रों में मात्र 20 फीसदी कृषि भूमि थी, बाकी या तो बंजर छोड़ दी गई या फिर कमर्शियल उद्देश्यों के चलते बेच दी गई। महासभा का मानना था कि जंगली जानवरों द्वारा फसलों को नुकसान पहुंचाना एक बड़ी समस्या है। राज्य में मात्र 7,84,117 हेक्टअर क्षेत्र में कृषि उत्पादन होता है। जबकि राज्य की 90 फीसदी आबादी आजीविका के लिए खेती पर ही निर्भर करती है। इसमें भी सिर्फ 12 फीसदी ज़मीन पर सिंचाई की व्यवस्था है, बाकि वर्षा आधारित खेती करते हैं।"

किसान मुकेश कहते हैं, "हम लोग यहां धान-गेहूं उगाते हैं, यहां पर आठ-दस साल से हाथी बहुत नुकसान पहुंचा रहे हैं और बंदर तो लगातार ही आ रहे हैं, अब खेती में कुछ हो नहीं रहा है तो लोग पलायन करेंगे ही।"


उत्तराखंड हाईकोर्ट ने अगस्त, 2018 में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पर्वतीय क्षेत्र के किसानों की हालत पर चिंता जतायी थी। कोर्ट ने कहा है कि किसानों का पलायन चिंताजनक है। इसलिए अब उत्तराखंड के किसानों के अधिकारों को मान्यता देते हुए पूरी प्रक्रिया को उलट देना चाहिए। कोर्ट में किसानों के ज़मीन के हस्तांतरण के अधिकार को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता रघुवर दत्त ने जनहित याचिका दायर की थी।

वहीं पेशे से रोडवेज ड्राईवर और किसान संतोष जियाल कहते हैं, "खेती तो हम कर ही रहे हैं, लेकिन जितनी हमारी मेहनत है उतना हमें फायदा नहीं मिलता है, जंगली जानवर बहुत नुकसान करते हैं, पहले ये कम था लेकिन अब बहुत ज्यादा हो गया है।

पलायन आयोग के उपाध्यक्ष एसएस नेगी द्वारा उत्तराखंड सरकार को 7950 गांवो के सर्वेक्षण के आधार पर भेजी गयी रिपोर्ट में यह बताया गया की उत्तराखंड के सभी जिलों से पलायन हो रहा है लेकिन पहाड़ी क्षेत्र में आने वाले जिलों में पलायन का प्रतिशत अधिक और चिंताजनक हैं। इन जिलों में पलायन का प्रतिशत 60 प्रतिशत तक पहुच गया हैं। पलायन के कारणों में आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 50 फीसदी लोगों ने आजीविका के चलते जबकि 73 फीसदी लोगों ने बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य के चलते उत्तराखंड के ही शहरी क्षेत्र या अन्य राज्यों में मजबूरी में पलायन किया हैं।

   

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