केले की खेती पूरी जानकारी, कब और कैसे करें खेती

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समय के साथ-साथ केले की मांग और इसकी व्यवसायिक संभावनाओं को देखते हुए केले की खेती को विशेष प्रोत्साहन दिया जा रहा है।

सरदार वल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ, उत्तर प्रदेश के जैव प्रौद्योगिकी विभाग की ओर से 'केले की नर्सरी स्थापित करने और टिश्यू कल्चर प्रणाली के माध्यम से रोगमुक्त पौधों का उत्पादन और कम लागत में उत्पादित पौधों का किसानों के बीच वितरण' नामक परियोजना संचालित की जा रही हैं।

यह परियोजना अगस्त, 2017 में शुरू की गई थी। यह परियोजना जैव प्रौद्योगिकी विभाग, नई दिल्ली द्वारा वित्त-पोषित है, जिसके तहत पश्चिमी उत्तर प्रदेश में केले की खेती के विकास एवं लोकप्रियता बढ़ाने के लिए केले की विभिन्न रोगमुक्त और अधिक उत्पादन देने वाली प्रजातियों के गुणवत्तायुक्त पौधों का विकास पादप ऊतक संवर्धन तकनीक द्वारा किया जा रहा है। साधारण पौधे की उम्र अलग-अलग होती है, जिससे इसमें कोंध (धार) विलम्ब और विभिन्न समय पर निकलते हैं जिसके कारण कौंध काटने का सिलसिला भी लम्बे समय तक जारी रहता है।

सरदार वल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ, उत्तर प्रदेश के जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा संचालित इस परियोजना के तहत केले की प्रजाति ग्राण्ड नैन का टिश्यू कल्चर पद्धति के माध्यम से विकास किया जा रहा है। इस तकनीक के द्वारा उत्पादित पौधों की विशेषता यह होती है कि इन पौधों की वृद्धि सामान्य होती है और फल भी निश्चित समय पर आते हैं। साथ ही इसमें धार की पैदावार भी अच्छी होती है और फल की मोटाई एवं उत्पादन भी अच्छा होता है, जिससे बाजारों में इन फलों की कीमत भी अच्छी प्राप्त होती है। क्षेत्र विशेष के अनुसार इसके पौधे की लम्बाई 6-10 फीट की होती है और इसकी धार आने में 10-12 माह का समय लगता है।

इस फसल में लगभग 32-40 किग्रा. की धार में लगभग 200-240 फल तक प्राप्त हो जाते हैं। ऊतक संवर्धन पद्धति के द्वारा उत्पादित पौधे रोग रहित भी होते हैं जिसके कारण इसकी खेती अधिक सुलभ हो जाती है। विश्वविद्यालय द्वारा संचालित शोध परियोजना में किसानों को केले की वैज्ञानिक पद्वति से खेती कर प्रशिक्षण भी प्रदान किया जा रहा है, साथ ही इन केले की पौध 18 रुपये प्रति पौध की दर से किसानों को इसकी खेती के लिए उपलब्ध कराया जा रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान केले की खेती में रुचि ले रहे हैं और विश्वविद्यालय भी अपनी इस परियोजना के माध्यम से किसानों की आय वृद्धि के लिए प्रयासरत है।

क्या है टिश्यु कल्चर

कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग के प्रो. डॉ. आरएस सेंगर बताते हैं, "टिश्यु कल्चर विधि के माध्यम से उन्नत प्रजाति और रोग रहित पौधों का विकास किया जाता है। इस पद्धति में पौधे के टिश्यु (ऊतक) या एपिकल बड या मेरीस्टीम अथवा पत्ती की सहायता से बोतल या टेस्ट ट्यूब के अन्दर पौधों को विकसित किया जाता है और पौधों के दृढ़िकरण के पश्चात खेतों में रोपित कर दिया जाता है।

केले की उन्नत किस्में

ग्राण्ड नैन, रसभाती, रोबस्टा, नेन्द्रन, मोन्थन, करी बनाना, कर्पूरावली, इवार्फ कैवेष्डिश, लाल केला, पूवन, मट्टी, उदयम इत्यादि केले की उन्नत प्रजातियाँ हैं।

टिश्यु कल्चर केले की खेती

केले के पौधों को सभी प्रकार की मृदाओं में आसानी से उगाया जा सकता है। मृदा की जल धारण क्षमता एवं जल निकास की उचित व्यवस्था का होना अनिवार्य है। ऊतक सवंर्धित के माध्यम से उत्पादित केले की पौध की रोपाई अधिकतम एवं न्यूनतम तापमान की दशा को छोड़कर कभी भी रोपित किया जा सकता है। प्रजाति ग्रैण्ड नैन की पौध को 1.8 मीटर * 1.8 मीटर की दूरी पर और इसके गडढ़े का आकार 1.5*1.5*1.5 में रोपित किया जाना चाहिए।

भूमि की तैयारी

खाद नीम प्लस 240 किग्रा, बायोबूस्टर 2 किग्रा, बायोफॉस 2 किग्रा, बायोपोटयर 2 किग्रा जैव रोगनाशी अथवा फंजीक्योर 250 मिली., जैव कीटनाशी 1 किग्रा को भली प्रकार से मिट्टी में मिश्रित कर कम से कम 8 घंटे छायादार स्थान पर रखने के बाद उपरोक्त मिश्रण की 3 किग्रा मात्रा को केले की प्रत्येक पौध या प्रति गड्ढे की दर से रोपाई से पूर्व उपयोग करें।



पौध की रोपाई

केले की रोपई सकर्स या टिश्यू कल्चर के माध्यम से तैयार पौध द्वारा की जाती है। केले की रोपाई सकर्स के माध्यम से करने के लिए सकर्स का वजन लगभग 500-700 ग्राम तक होना चाहिए जो कि लगभग 2-4 महीने पुराना हो। सकर्स की रोपाई करते समय सकर्स को 17.8 प्रतिशत इमिडाक्लोरोपिड, 0.5 मिली. एसएल कीटनाशक दवा और 2.5 से 3.0 ग्राम मैन्कोजेब फंफूद नाशक को 1 लीटर पानी में घोलकर15 मिनट तक डुबोकर रखें। टिश्यू कल्चर द्वारा उत्पादित पौधों की रोपाई के लिए पौधों की ऊँचाई 1 से 1.5 फीट होनी चाहिए और पौध पंक्तियाँ 6 होनी चाहिए।

केले को प्रभावित करने वाले कीट एवं रोग

1. बन्ची टॉप

2. पनामा रोग

3. ब्लैक सिगाटोक रोग

4. बनाना लीफ रस्ट

5. क्रॉउन रॉट

6. एन्प्रैक्नोण

7.पीला सिगाटोका रोग

1. बीज- बनान बीबि (सकर्स फार्मल)

2. अंकुरणः एफिड्स (पत्तियों पर)

वनस्पित अवस्था (स्यूडोस्टेम, पत्तियों पर): बनाना बीविल, एफिउ, मिलीबग, स्पाइडर, माइट्स आदि।

प्रजनन अवस्था (पुष्प, बन्च, फिंगर पर): ऐकेलप्स, मिलीबग, थ्रिप्स।

परिपक्व अवस्था (बन्च, फिंगर, हैण्ड पर): मिलीबग, थ्रिप्स।

केले की विभिन्न अवस्था पर होने वाला कीटो का प्रभाव

1. बीज- बनान बीबि (सकर्स फार्मल)

2. अंकुरणः एफिड्स (पत्तियों पर)

वनस्पित अवस्था (स्यूडोस्टेम, पत्तियों पर): बनाना बीविल, एफिउ, मिलीबग, स्पाइडर, माइट्स आदि।

प्रजनन अवस्था (पुष्प, बन्च, फिंगर पर): ऐकेलप्स, मिलीबग, थ्रिप्स।

परिपक्व अवस्था (बन्च, फिंगर, हैण्ड पर): मिलीबग, थ्रिप्स।

टिश्यु कल्चर से उत्पादित केले के लाभ

टिश्यु कल्चर द्वारा उत्पादित केले के पौधों के लाभ एवं विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. वृद्धि में समानता

2. अधिक उपज एवं उत्पाद में एकरूपता

3. रोगमुक्त एवं गुणवत्तायुक्त पौध

4. फसल का शीघ्र ही तैयार होना

5. वर्ष भर पौध का उपलब्ध होना

6. अधिक पैदावार 20-40 किग्रा प्रति पौधा

7. कई फसलों की प्राप्ति (प्रथम फसल लगाने के 11 से 12 महीने में, द्वितीय फसल 8 से 9 महीने में तथा तृतीय फसल 7-8 महीने में)।


केले की खेती में लाभ

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान गन्ने की फसल लगाने से परेशान होकर और उससे बचने के लिए अन्य फसल विकल्प की तलाश में हैं। इस समय किसान केले की बढ़ती कीमतों एवं इसकी उच्च मांग के चलते केले की खेती की ओर आकर्षित हो रहे हैं।

इस सन्दर्भ में कृषि विश्वविद्यालय में संचालित की जा रही केला परियोजना किसानों के लिए काफी मददगार सिद्ध हो रही है। किसान बड़ी संख्या में इस परियोजना का लाभ भी उठा रहे हैं और समय-समय पर केले की पौध भी क्रय कर रहे हैं।

एक एकड़ भूमि पर केला की फसल लगाने की लागत लगभग 20 हजार रुपये आती है, वहीं इसका मुनाफा बाजार भाव के अनुसार 85 हजार से 1 लाख रुपये तक प्राप्त हो जाता है। दूसरे वर्षों में लागत कम आती है और मुनाफा बढ़ जाता है।

केले की बिक्री में आने वाली समस्या

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में केले की फसल को बेचने में किसानों को समस्या का सामना करना पड़ रहा है। यहाँ के केला व्यापारी औने-पौने दामों में केला खरीदना चाहते हैं। यदि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बाजार व्यवस्था में सुधार किया जाए तो किसानों को अधिक लाभ प्राप्त हो सकेगा।

केला भारतवर्ष की प्राचीनतम, स्वादिष्ट, पौष्टिक, सुलभ एवं लोकप्रिय फल-फसल है। भारत को विश्व का सबसे बड़ा केला उत्पादक देश होने का गौरव प्राप्त है। देश में होने वाले कुल केले के उत्पादन में केला का योगदान 32 प्रतिशत है। केले की निरन्तर बढ़ती मांग को देखते हुए केले के उत्पादन में 20 लाख टन प्रतिवर्ष की दर से वृद्धि करनी होगी। केले की खेती में टिश्यू कल्चर द्वारा उत्पादित पौधों का उपयोग कर फसल में जैविक रसायन उर्वरकों कीट/रोगनाशकों का समन्वित प्रयोग किया जा सकता है जिससे लागत में तो कमी आयेगी ही, साथ ही साथ गुणवत्तायुक्त तथा रोगमुक्त केले का भरपूर उत्पादन भी किया जा सकता है, जिससे किसानों को अधिक आमदनी प्राप्त हो सकेगी।

इन बातों का हमेशा रखें ध्यान

1. खेत को खरपतवारों से मुक्त रखें।

2. खेत में जल निकासी का समुचित प्रबन्ध करें।

3. रोग एवं कीट प्रभावित पत्तियों को जला कर नष्ट कर दें।

4. फसल में रोगों की रोकथाम के लिए कवकनाशी जैसे- कार्बेन्डाजिम 1 ग्रा. प्रति लीटर अथवा कवच 2 ग्राम/लीटर या सन 0.57 मिली/लीटर की दर से छिड़काव करते रहें।

5. अनावश्यक सकर्स को समय-समय पर निकालकर बाहर कर दें तथा एक ही मुख्या सकर को प्रति झां डमें फसल के उत्पादन के लिए छोड़ दें।

6. केले की जड़ें उथली होती हैं अतः उसकी जड़ों पर मिट्टी चढ़ाते रहें।

7. केले पर फलों के गुच्छे आने पर पौधें प्रायः नीचे की ओर झुक जाते हैं अतः पौधे को गिरने से बचाने के लिए बांसों की कैंची बनाकर पौधों को सहारा देना उचित रहता है।

8. गुच्छों को तेज धूंप से बचाने और उन्हें आकर्षक रंग प्राप्त करने के लिए गुच्छों को छिद्रयुक्त पॉलीथीन बैग से ढककर रखें।

प्रो़. आरएस सेंगर

(लेखक सरदार वल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ में वरिष्ठ प्रोफेसर हैं।)

   

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