यूपी का सैनिकों वाला गांव, जहां हर घर से निकलते हैं सैनिक, आजाद हिंद फौज से लेकर कारगिल तक है नाता

देश भक्ति का जुनून इस गांव से सीखा जा सकता है। पुलवामा हमले के बाद इस गांव के कई पूर्व सैनिकों ने अपनी पूरी पेंशन प्रधानमंत्री राहत कोष में दान कर दी थी

Divendra SinghDivendra Singh   20 Jun 2020 6:14 AM GMT

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अरविंद शुक्ला/दिवेंद्र सिंह

सैदपुर (बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश)। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले में एक गांव है जहां के लोगों की रगों में देशभक्ति बहती है। जहां की मिट्टी में वीर पैदा होते हैं, यहां के हर घर से सैनिक निकलते हैं।

बुलंदशहर के किसी कोने में आप इस गांव के बारे में पूछना शुरू करेंगे तो लोग रास्ता बता देंगे, अच्छा वो सेना वाला गांव… अच्छा वो गांव जहां के हर घर में सैनिक हैं। कुछ ऐसे ही पहचान है सैदपुर की। और हो भी क्यों न करीब 20 हजार वाली सैदपुर ग्राम पंचायत का नाता आजाद हिंद फौज से लेकर देश की तीनों सेनाओं, दिल्ली, यूपी की पुलिस और कई सुरक्षा बलों से हैं। सैदपुर ने देश को हजारों जवानों से लेकर मेजर जनरल तक दिए हैं। पहले विश्वयुद्द से लेकर करगिल तक कई युद्दों में सैदपुर ने सहादत दी है।

सैदपुर के युवाओं के लिए सेना में जाना है एक जुनून है। फोटो- अरविंद शुक्ला


गांव में दो शहीद स्तंभ हैं। एक जहां पहले विश्वयुद्ध में शहीद हुए सैनिकों के नाम वाला शिलालेख है तो दूसरा गांव के दूसरी छोर पर इंटर कॉलेज मैदान के बगल में स्थित है। यहां करगिल में शहीद हुए नायब सुरेन्द्र सिंह अहलावत की मूर्ति लगी है। ये गांव के युवा और बुजुर्गों के लिए बैठकी का बड़ा अड्डा भी है।

बांग्लादेश (‍Bangladesh ) की आजादी में निर्याणक भूमिका निभाने वाली इंडियन नेवी की तरफ मुक्ति वाहिनी सेना में शामिल रहे देविंदर सिंह सिरोही 7 भाई थे, जिनमें से पांच सेनाओं में थे। देविंदर बताते हैं, "मैं नेवी में था बाकी 4 भाई आर्मी में थे। हमारे पिता, बाबा भी सेनाओं में थे, मेरे बच्चे भी सेनाओं में हैं। हमारे यहां लोगों की रगों में सेना का जुनून बहता है। मेरे परिवार ही क्या मेरे गांव में ही सेना का जुनून सर चढ़कर बोलता है।"

गाँव के इंटर कॉलेज में बना शहीद स्तंभ, यहां करगिल में शहीद हुए नायब अहलावत की मूर्ति लगी है। ये गांव के युवा और बुजुर्गों के लिए बैठकी का बड़ा अड्डा भी है।

सेना और युद्द का नाम लेते दिवेंदर सिरोही की सूखी आंखों में चमक बढ़ जाती है। वो बताते हैं, कैसे इंडियन नेवी ने पाकिस्तान को 1971 के युद्ध में छकाया था.. कैसे करांची का बंदरगाह का तबाह किया था। देविंदर बताते ये नौसेना की पहली लड़ाई थी और इसमें नेवी ने शानदार काम भी किया था।

देविंदर पाकिस्तान ( Pakistan ) का नाम लेते ही भड़क जाते हैं। "जब भी पाकिस्तानी सेना या फिर किसी आतंकी की तरफ से कोई घटना होती है हमारा खून खौलने लगता है। मन करता है हथियार उठाएं और बॉर्डर पर पहुंच जाएं। हम सैदपुर के लोग चाहते हैं और अगर सेना ( Indian Army ) और सरकार हमें इजाजत दे तो हमारे गांव के सैकड़ों लोग सीमा पर लड़ने को तैयार हैं। हमारे लिए देश की इज्जत से बढ़कर कुछ नहीं।'

इस गांव के लिए देशभक्ति के क्या मायने हैं वो लोग तो बताते हैं ही हैं यहां के दरोदिवार भी उसकी गवाही देते हैं। कई घरों में तिरंगा बना है। कई घरों में पेंटिंग भी तिरंगे के रंग वाली है। सैदपुर के प्रधान धीरज सिरोही कहते हैं, ये शहीदों वाला सैदपुर है। हमारी मिट्टी में ही कुछ ऐसा है कि हर घर से जवान निकलते हैं। हमारे यहां विभिन्न सेनाओं से रिटायर जवानों (पेंसनर्स) की संख्या करीब 3500 है, जबकि 1500 लोग अभी सेना, एयरफोर्स, नेवी और दूसरे सुरक्षाबलों में तैनात है। हमारे गांव की एक बेटी पायलट भी है। गांव ने मेजर जनरल भी दिए हैं।' मेजर जनरल श्योराज सिंह अहलावत इसी गांव के हैं।

देश को लेकर लोगों की भावना पूछने पर धीरज बताते हैं, "पुलवामा हमले के बाद कई पूर्व सैनिकों ने अपनी पूरी पेंशन प्रधानमंत्री कोष में भेज दी। और साथ ही ये भी लिखा कि हमें भले पेंशन न दो, हमसे और पैसे लो, और उनसे हखियार खरीदों लेकिन पाकिस्तान को सबक सिखाओ।"

गांव के सरकारी इंटरकॉलेज के पास खेल का कच्चा मैदान है। जहां सुबह से लेकर देर शाम तक गांव के बच्चे और जवान दौड़ लगाते हैं। गांव के युवा मोनू (18 वर्ष) बताते हैं कि वो दो बार भर्ती दौड़ में शामिल हो चुके हैं, लेकिन चयन नहीं हुआ है। " मेरा सपना है शरीर पर सेना की वर्दी पहनना। जब तक शरीर में ताकत है और सर्टीफिकेट में उम्र है भर्तियों में शामिल होता रहूंगा। उम्मीद है अगले एक दो साल में चुन लिया जाउंगा।'

सैनिकों के गाँव में सेना के पूर्व जवान के घर बैठी गाँव कनेक्शन की टीम

सेना में जाने का सपना सिर्फ युवा या किशोर नहीं देखते हैं। यहां प्राइमरी में पढ़न वाले बच्चे भी सेना और पुलिस में जाने का ख्वाब लिए बड़े होते हैं। नीति शर्मा 6वीं में पढ़ती हैं, लेकिन अभी से फोर्स में जाने की तैयारी शुरु है। अपने स्कूल में पढ़ती मिली नीति बताती, मेरे दादा, पापा सेना में हैं दो चाचा पुलिस में हैं आगे मुझे भी सेना में सेना है।" स्कूल के 75 फीसदी से ज्यादा बच्चे नौकरी और करियर के नाम पर सेना और सुरक्षा बलों का नाम लेते हैं।

पूर्व माध्यमिक विद्यालय सैदपुर के अध्यापक रॉबिन सिरोही इसकी वजह कुछ यूं बताते हैं, "किसी का पापा, किसी चाचा, किसी का भाई सेना में है। गांव में कोई कोई घर तो ऐसा है कि पूरा परिवार सेना की सेवा कर रहा है। बच्चे जो देखते हैं वैसे ही बनना चाहते हैं। वो अपने पापा और भाई को देकर प्रेरित हो रहे हैं। अब तो गांव की बेटियां भी फोर्स में पहुंच रही हैं।'


सेना से लौटने के बाद ज्यादातर लोग दूसरी नौकरियों में चले जाते हैं तो बुजुर्ग लोग गांव लौट आते हैं। कुछ साल पहले तक सेना से रिटायर के बाद सभी गांव में आते थे। यहां आकर खेती करना उनका शौक था। गांव में बड़े –बड़े घर.. दरवाजों पर ट्रैक्टर और हर घर में गाय-भैंस सैदपुर को जड़ों से जोड़े भी रखते हैं। गांव के हर घर से सैनिक निकलने के पीछे यहां की महिलाओं की भूमिका अहम है। जब पति और बेटे घर के बाहर होते हैं वो घर संभालती है, खेत देखती हैं और बच्चे पालती हैं।

गांव की कमलेश सिरोही के ससुर और जेठ सेना में थे। उनके बेटे भी सेना के लिए तैयार हैं। वो बताती हैं, "हम अपने को देश सेवा की लिए तैयार करते हैं। उन्हें खूब दूध दही खिलाते हैं। हमारे लिए भी गर्व की बात होती है कि हमारे बच्चे से देश के काम आते हैं।"

सहादत का जिक्र आने पर कमलेश थोड़ा रुककर बोलती हैं, "हमारे गांव के बहुत लोग शहीद हुए हैं। दुख किसे नहीं होता होता लेकिन इससे हमारे लोगों के जुनून पर कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर बच्चे अपने तैयारी में जुटते हैं माएं फिर वैसे उनकी तैयारी में जुटती हैं।"

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