भारत में कुम्हारों का वो गांव , जहां के कारीगरों का हाथ लगते ही मिट्टी बोल उठती है...

पूरे बस्तर में मशहूर है इस गांव के कुम्हारों का हुनर

Divendra SinghDivendra Singh   1 July 2019 6:09 AM GMT

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कोंडागांव (छत्तीसगढ़)। यहां आज भी घरों में मड़की, घाघरी, कनजी, परई/फोरई जैसे मिट्टी के बर्तन दिख जाएंगे, तभी तो यहां बाजार और मेले में मिट्टी की बर्तन की दुकानें सबसे ज्यादा दिखती हैं।

कोंडागाँव जिला मुख्यालय से लगभग छह किलोमीटर दूर मसौरा ग्राम पंचायत के कुम्हार पारा गांव अपनी मिट्टी की कारीगरी के लिए जिले ही नहीं पूरे बस्तर में मशहूर हैं। कुम्हार पारा गांव के कुम्हार बंशीधर चक्रधारी बताते हैं, "मिट्टी का सामान बनाते हुए 35 साल से ज्यादा हो गए हैं, मिट्टी का बहुत सारा सामान बनाते हैं, इसमें घर सजाने के लिए हाथी, घोड़ा जैसे शोपीस आइटम के साथ ही बहुत कुछ बनाते हैं।''

कच्ची मिट्टी के बर्तनों को पकाने की तैयारी करते कुम्हार

कुम्हारपारा गाँव में कुम्हारों के करीब दो सौ घर हैं। ज्यादातर परिवार मिट्टी के बर्तन ही बनाते हैं, लेकिन कई परिवार ऐसे भी हैं जो टेराकोटा मूर्तियां भी मूर्तियां भी बनाते हैं।

बंशीधर चक्रधारी आगे कहते हैं, "दिन भर में दस आइटम बना ही लेते हैं, लोकल मार्केट जैसे कोंडागाँव में अपना सामान बेचते हैं, कई बार तो बाहर भी जाते हैं सामान बेचने के लिए। हमारे गाँव में 200 से ज्यादा मकान हैं, जिसमें पौने दो सौ परिवार यही काम करते हैं।''

ये मिट्टी के वो बर्तन हैं जो छत्तीसगढ़ के आदिवासी परिवार के हर घर में प्रयोग होते हैं।

बर्तन यहां लाल रंग के बनाये जाते हैं। बर्तन बनाकर पहले छांव में सुखाए जाते हैं फिर उन्हें धूप में रखा जाता है। यदि बर्तन बनाकर सीधे धूप में रख दिये जाए तो वह फट जाते हैं। इसके बाद नदी से लाई गई लाल मिट्टी जिसे खरा कहते हैं, से बर्तन रंगे जाते हैं। इस मिट्टी को कूटकर एक घड़े में घोलकर 15 दिन तक रखते हैं फिर इसे निथार कर नीचे का रेतीला भाग अलग इकट्ठा कर लेते हैं और ऊपर का घोल अलग निकाल लेते हैं।

इस घोल को धूप में नहीं रखते नहीं तो यह खराब हो जाता है। अब निथार कर निकाले गये ऊपर वाले घोल को किसी बर्तन में लेकर आग पर गर्म करते हैं ।जब यह घोल गोंद जैसी गाढ़ी हो जाती है तब उसे उतार ठण्डा कर लेते हैं। जिन बर्तनों को रंगना है पहले उस पर एक बार नीचे वाला रेतीला घोल लगाते हैं, फिर सूखने पर दो बार आग पर पकाया घोल लगाया जाता है इस प्रकार रंगाई करने से पकने के बाद बर्तन पर बहुत अच्छी पालिश हो जाती है। इस पालिश में यदि तेल का जरा सा भी अंश मिल गया तो यह खराब हो जाती है।

नारायणपुर जिले के साप्ताहिक बाजार में मिट्टी के बर्तनों की खूब बिक्री होती है।

इस बारे में चक्रधारी आगे बताते हैं, "यह हम लोग मिट्टी के बर्तनों को कलर नहीं करते हैं, इसको ऑटोमेटिक टेरा कोट कलर इसलिए कहते हैं, क्योंकि हम मिट्टी का ही कलर बनाते हैं और मिट्टी के ऊपर मिट्टी का ही कलर चढ़ाते हैं वो भी कच्चा में चढ़ जाता है उसके बाद हम पकाते हैं।"

बर्तन पर पालिश हो जाने के बाद प्रत्येक कुम्हार उस पर सफेद खड़ी मिट्टी से अपना पहचान चिन्ह बना देता है, जैसे बर्तन के मुंह और गर्दन पर एक एक सफेद धारी बनाते हैं। यह एक प्रकार से किसी कुम्हार परिवार के हस्ताक्षर चिन्ह होते हैं, जिनसे यह पहचाना जा सकता है की यह बर्तन किस कुम्हार परिवार ने बनाया है।

मिट्टी के बर्तन बनाते कुम्हार पारा गाँव के बंशीधर

बर्तन पकाने की भट्टी को अबा कहते हैं। यह समतल होती है किसी प्रकार का गड्ढ़ा नहीं बनाया जाता। बर्तन पकाने के लिए इसमें पहले लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े बिछाते हैं। फिर इसके ऊपर टूटे हुए मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े रखते हैं। अब इसके ऊपर बनाई हुई हांडियां उल्टी करके जमाई जाती हैं। नीचे बड़े बर्तन और उपर छोटे रखे जाते हैं। अब चारों ओर किनारों पर लकड़ी के टुकड़े जमा दिये जाते हैं। फिर सभी को धान के पैरे से ढक कर इसे, तालाब से लाया गया कीचड़ (जिसे चिखला कहते हैं) से लीप दिया जाता है। फिर इसे आग लगा दी जाती है। अधिकांशतः भट्टी शाम के समय पकाते हैं। सुबह तक बर्तन पक जाते हैं और भट्टी ठंडी हो जाती है। अब पके हुए बर्तन भट्टी से निकाल लिए जाते हैं।

इसी भट्ठी पर पकाए जाते हैं मिट्टी के बर्तन

बेचने के लिए तैयार बर्तन कांवड पर लाद कर आदमी या औरतें अपने आस पास के गांवों में ले जाते हैं। कुछ लोग घर से ही बर्तन खरीद कर ले जाते हैं। हाट बाजारों में बर्तन बेच कर भी ये कुछ पैसा कमा लेते हैं। गांवों में जाकर बेचने पर इन्हे धान और चावल भी मिल जाता है । सबसे अधिक बिकने वाला बर्तन हांडी है और सारे कुम्हार इसे सबसे अधिक बनाते हैं।

       

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