मजाज़ लखनवी का लखनऊ उन्हें कितना याद करता है?

5 दिसंबर, 1955, रात दस बजे मजाज़ लखनवी, लखनऊ ही नहीं दुनिया को अलविदा कह गए। लखनऊ के निशातगंज कब्रिस्तान में उन्हें सुपुर्द ए ख़ाक कर दिया गया, लोग उनकी नज़्में और शायरियाँ तो पढ़ते और सुनते हैं, लेकिन लखनवी का लखनऊ उन्हें कितना याद करता है ये आज भी सवाल है।

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लखनऊ के नामचीन लोगों का नाम लिया जाए और अगर ये कहा जाए कि मजाज़ लखनवी इस फेहरिस्त में सबसे ऊपर होंगे तो ये गलत न होगा; और इसी लखनऊ शहर में मजाज़ लखनवी के नाम से मशहूर असरार-उल-हक़ मजाज़ ने 5 दिसंबर, 1955 की रात अपनी आखिरी साँस ली थीं।

लखनऊ के मशहूर क़िस्सागो हिमांशु बाजपेयी ने मजाज़ लखनवी को बहुत क़रीब से पढ़ा और जाना है, उनके हिसाब से मजाज़ ने जैसे लखनऊ को अपना माना, लखनऊ ने उन्हें कभी अपना माना ही नहीं। हिमांशु गाँव कनेक्शन से कहते हैं, "मजाज़ की ज़िंदगी या मजाज़ की मौत हमारे लिए सबक है कि किस तरह से हम अपने शायरों को अपने अदीबों को देखे उनकी क़द्र करें; क्योंकि उनके साथ अच्छा सुलूक नहीं हुआ, लखनऊ आज उन पर इतराता है, लेकिन लखनऊ को शर्म आनी चाहिए मजाज़ जिस तरह से यहाँ से गए और मज़ाज की मौत लखनऊ वालों के लिए शर्म का वायफ़ है।"

मजाज़ (पीछे, बाएँ से दूसरे) और साथ ही जोश मलिहाबादी (बीच में, बैठे हुए)

वो आगे कहते हैं, "क्योंकि जब आप उनकी ज़िन्दगी को पढ़ें तो आप बार बार पाएँगे कि किस तरह से उनकी शराफत का उनकी सच्चाई का, उनकी संवेदनशीलता का फायदा उठाया गया और एक कंटीन्यूअस जर्नी थी जो मजाज़ को मौत की तरफ ले जा रही थी और आखिरकार 5 दिसंबर 1955 को मजाज़ उस शिकार उस फंदे में आ ही गए जिसे मौत कहते हैं।"

उनकी नज़्मों और शायरियों पर हिमांशु कहते हैं, "मजाज़ मशहूर तरक्की पसंद शायर थे, मजाज़ लखनवी अपनी रुमानियत भरी ग़ज़लों के लिए नज़्मों के लिए और वो नज़्में जिनमे रुमानियत और इंकलाब का इन्तेज़ाज है, उन नज़्मों के लिए मजाज़ खास तौर पर मशहूर हुए। ख़ास तौर पर उनकी जो सबसे मशहूर नज़्म है 'आवारा' उसके लिए मजाज़ बहुत मशहूर हुए; क्योंकि उन्होंने ज़िन्दगी जैसी गुज़ारी जैसी ट्रेजिक उनकी कहानी रही और कम उम्र में वो दुनिया को अलविदा कह गए तो उन्हें उर्दू का कीट्स भी कहा गया।"


वे आगे कहते हैं, "मजाज़ का सबसे बड़ा साहित्यिक योगदान यही है कि उन्होंने रुमानियत और इंक़लाब का संगम करा के ऐसी ऐसी नज़्में हमें दी, जिनमें तरक्की पसंद सोच भी है, एक नरमी एक रुमानियत भी है, ये ही उनका सबसे बड़ा कंट्रीब्यूशन है कि उस दौर में जोकि वर्ल्ड वॉर 2 के बाद की दुनिया है या उसके आस पास की दुनिया है। ख़ास तौर पर तरक्की पसंद तेरिख़ अपने उभार पर है उस दौर पर मजाज़ आए और अपना एक ख़ास आहंग लेकर आए और जो उनकी मक़बूलियत रही जो उनकी मशहूरियत रही उस वजह से मजाज़ हम सबके मेहबूब शायर बन गए।"

"तो मिसाल के तौर पर उनकी जो नज़्म है आवारा जिसकी शुरुआत यहाँ से होती है कि

शहर की रात और मैं नाशाद, ओ नाकारा फिरूँ

जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ

ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब

जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिए की किताब

जैसे मुफ़्लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ये रोमांटिक और ऐसे आशिके नाकाम की रूहदाद लगती है, लेकिन जैसे-जैसे ये नज़्म आगे बढ़ती है, वैसे वैसे ये नज़्म अपने समय से अपने दौर से अपने समाज से जुड़ती है और जब मजाज़ इस नज़्म के अख़िरात में पहुँचते हैं तो वो जिस तरह से कहते हैं कि

बढ़ के उस इन्दर सभा का साज़ ओ सामां फूँक दूँ

उस का गुलशन फूँक दूँ उस का शबिस्तां फूँक दूँ

तख़्त-ए-सुल्तां क्या मैं सारा क़स्र-ए-सुल्तां फूँक दूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

तो ये नज़्म उस वक़्त पूंजीवाद के विरुद्ध और समाजवादी सोच से जाकर जुड़ती है, तो ये ख़ास तौर पर मजाज़ की ख़ासियत है कि एक ही नज़्म में वो किस तरह से आशिकेनाकाम की फिक़्र को उसके एहसास के भी तर्ज़ुमान हो रहे हैं और उसके साथ ही वो एक तरक्की पसंद सोच को भी साथ ला रहे हैं।"

मजाज़ लखनऊ की कब्र

कहते हैं मजाज़ की मौत 5 दिसंबर 1955 को लालबाग़ की एक शराब खाने की छत पर हुई जहाँ वो अपने कुछ साथियों के साथ शराब पीने गए थे, नशा जब ज़्यादा हो गया तो बाकि सारे साथी तो आ गए , लेकिन मजाज़ वहीं रह गए और सर्दी थी और वो खुली छत के नीचे पड़े रहे और उनको ठंड लग गई। उनकी सेहत पहले से ही ठीक नहीं थी और उन्हें निमोनिया हो गया। वो मजाज़ के जीवन की आख़िरी रात थी।

हिमांशु कहते हैं, " मज़ाज की जो डेथ है वो बहुत ट्रेजिक है, लेकिन मजाज़ की ज़िन्दगी भी बहुत ट्रेजिक थी और ख़ास तौर पर जो रवैया हमारे समाज का रहता है, शायरों और अदीबों की तरफ और उनकी जो संवेदनशील पर्सनालिटी थी इस वजह से वो काफ़ी परेशान रहे; क्योंकि वो लखनऊ से बहुत मोहब्बत करते थे। वो मजाज़ लखनवी कहे जाते हैं, हालाँकि मजाज़ रुदौलवी थे क्योंकि वो रुदौली में पैदा हुए थे, लेकिन मजाज़ की ज़िन्दगी और मौत के बारे में ये बार बार इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि जब आप उनकी ज़िन्दगी को पढ़े तो आप बार-बार पाएँगे की उनकी शराफ़त का उनकी सच्चाई का, उनकी संवेदनशीलता का फायदा उठाया गया। खुद मजाज़ ने लिखा भी है- ऐ शहर-ए-लखनऊ, मेरा गुनहगार है तू।"

Majaz Lakhnavi #poetry 

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