कला का मंच बना अश्लीलता का कारोबार

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कला का मंच बना अश्लीलता का कारोबार

''नैनों में सपना, सपनों में सजना, सजना पे दिल आ गया," हिम्मतवाला फिल्म के इस गाने पर नृत्य करती फिल्म की अभिनेत्री बड़ी अच्छी लगती है। रजत पटल पर दिखाया गया मनोरंजन का ये आयाम इतना मनोहारी लगता है कि बॉलीवुडिया नृत्य गीत पर झूमना बिलकुल हमारे दिलो-दिमाग को दुरुस्त करने जैसा हो जाता है। और शायद इसलिए न सिर्फ  हमें खुद थिरकना अच्छा लगता है बल्कि हमें गाने के बोल से मेल खाते औरों को देखने में भी अच्छा लगता है। वैसे भी नृत्य संगीत हमारी पुरानी परंपरा रही है, स्वयं नटराज शिव से लेकर अप्सराओं और आदि सुंदरी आम्रपाली की नृत्य कला का वर्णन हमारे प्राचीन इतिहास से लेकर किंवदंतियों तक में है।

और इसी नृत्य के मंचीय प्रदर्शन को आधुनिक युग में ऑर्केस्ट्रा के नाम से परोसा गया है। उत्तर भारत के गँवई इलाकों में त्योहारों और मेलों का मुख्य आकर्षण ऑर्केस्ट्रा अक्सर संघर्षरत गरीब गायक, गायिकाओं और नर्तक-नृत्यांगनाओं के लिए कला प्रदर्शन का एक मंच होता है। लेकिन क्या सचमुच, आप ही बताइए, वर्तमान युगीन ऑर्केस्ट्रा को लेकर आपके मन में क्या भावनाएं आती हैं। भौंडे द्विअर्थी गीतों पर थिरकती लड़कियां, अश्लील नृत्य और संवेदनहीन दर्शकों की भीड़ फिलहाल इस नृत्य मंच की अहमियत इससे इतर कुछ और नहीं रह गयी है।

बीबीसी हिंदी में छपी एक रपट के अनुसार, बंगाल, नेपाल, बिहार और उत्तर प्रदेश के गरीब घरों से लड़कियां आकर इन गानों पर अपने पैरों को बल देती हैं। अकसर किशोरवय, ये लड़कियां ये काम शौकिया नहीं करती हैं। किसी के आँखों में डॉक्टर बनने का सपना होता है तो किसी के दिल में परिवार को बदहाली से दूर ले जाने के अरमान और कई बार कुछ वो बदनसीब भी होती हैं जो मानव तस्करों की वजह से अपने घर बार से दूर भौंड़ेपन की इस प्रदर्शनी में फंस जाती हैं।

एक अनुमानित आंकड़े के हिसाब से लगभग 7000 नेपाली लड़कियां हर साल येन केन प्रकारेण भारत लायी जाती हैं। इनमे से जहां अधिकांशत: देश की विभिन्न काली गलियों में छोड़ दी जाती हैं वहीं कुछ उत्तरी भारत में ऑर्केस्ट्रा की शान भी बन जाती हैं।

कानफाडू गाने जिन्हें संगीत कहना संगीत के साथ अन्याय होगा, नृत्य जो कहीं से भी नृत्य की आदिकालीन परंपरा से मेल नहीं खाता, दर्शक जिन्होंने कभी शायद भद्रता का पाठ नहीं पढ़ा है और वो लड़कियां जिन्हें मजबूरी ने यहां झोंक रखा है और हम ने इसे पाल रखा है 'मनोरंजन' का नाम देकर।

यहां सवाल उस मंच पर नही है प्रश्न उस व्यवस्था पर है जो कला के एक मंच को अश्लीलता का कारोबार बना दे रही है।

 

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