कहीं आपकी गेहूं की फसल को भी तो बर्बाद नहीं कर रहा है पीला रतुआ रोग, समय रहते करें प्रबंधन
इस समय मौसम में बदलाव से हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और यूपी-उत्तराखंड के तराई क्षेत्रों में गेहूं की फसल में पीला रतुआ रोग लग सकता है।
Divendra Singh 14 Jan 2021 12:28 PM GMT

जनवरी-फरवरी के महीने में गेहूं की फसल में कई तरह के रोग-कीट लगने लगते हैं, इन्हीं में से एक रोग है गेहूं का पीला रतुआ रोग, सही समय पर अगर इस रोग का प्रबंधन न किया जाए तो पूरी फसल बर्बाद हो जाती है।
भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल के प्रधान वैज्ञानिक (कृषि प्रसार) डॉ. अनुज कुमार गाँव कनेक्शन को बताते हैं, "हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गेहूं की खेती पीला रतुआ से प्रभावित होती है। लगातार बादल और और वातावरण में नमी से ये रोग गेहूं की फसल में तेजी से बढ़ता है। दिसंबर के आखिरी सप्ताह से जनवरी में इसके बढ़ने के संभावना बढ़ने लगती है, अगर वातावरण में आर्दता है, कोहरा लगातार बना हुआ रहता है और ठंड बढ़ने पर ये बढ़ने लगता है।"
पीला रतुआ पहाड़ों के तराई क्षेत्रों में पाया जाता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में इस रोग का प्रकोप पाया गया है। उत्तर भारत के पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में पीला रतुआ के प्रकोप से साल 2011 में करीब तीन लाख हेक्टेयर गेहूं के फसल का नुकसान हुआ था।
डॉ अनुज आगे कहते हैं, "ये बीमारी खासकर पहाड़ों से शुरू होती है, इसमें पहले फसल में पहले पीले-पीले धब्बे आते हैं, जो बाद में पूरी पत्तियों पर फैल जाते हैं। उसको छूने पर पीले हल्दी जैसा पाउडर हाथ में लग जाता है। अगर आप खेत में घुसते हैं तो पूरे कपड़ों में पीला पाउडर लग जाता है। कई साल पहले गेहूं की किस्म डीबीडब्ल्यू में पीला रतुआ बीमारी तेजी से फैली थी, उस साल पंजाब, हरियाणा में कई किसानों के यहां तो लगभग आधी पैदावार हो गई थी। क्योंकि उस समय ज्यादा एरिया में इस किस्म की बुवाई हुई थी, एक ही तरह की किस्म लगी होने के कारण ये बीमारी भी तेजी से फैली थी।"
"उसके बाद कई नई किस्में आ गईं हैं जो पीला रतुआ अवरोधी किस्म हैं, लेकिन अगर फिर भी मौसम ने साथ नहीं दिया तो कई बार बीमारी फैल जाती है। इस समय किसान को लगातार खेत का निरीक्षण करते रहना है, और जहां खेत के मेड़ों पर पेड़ लगे होते हैं, छायादार क्षेत्र में पहले फैलना शुरू होता है। ये गोल क्षेत्रफल में आता है इसलिए खेत का निरीक्षण करते रहे हैं।, अनुज ने आगे कहा।
पीला रतुआ की पहचान
पत्तों का पीलापन होना ही पीला रतुआ नहीं होता, अगर पत्तियों को छूने पर पीला पाउडर हाथ में लगता है तो समझिए फसल में पीला रतुआ रोग लगा है।
पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग की धारी दिखाई देती है, जो धीरे-धीरे पूरी पत्तियों को पीला कर देती है।
जमीन पर भी पीला पाउडर फैला हुआ देखा जा सकता है।
पहली अवस्था में यह रोग खेत में 10-15 पौधों पर एक गोल दायरे में शुरु होकर बाद में पूरे खेत में फैल जाता है।
तापमान बढ़ने पर पीली धारियां पत्तियों की निचली सतह पर काले रंग में बदल जाती है।
पत्तों का पीला होना ही पीला रतुआ नहीं है, पीला रंग होने के कारण फसल में पोषक तत्वों की कमी, जमीन में नमक की मात्रा ज्यादा होना व पानी का ठहराव भी हो सकता है।
जैविक प्रबंधन
एक किग्रा. तम्बाकू की पत्तियों का पाउडर 20 किग्रा. लकड़ी की राख के साथ मिलाकर बीज बुवाई या पौध रोपण से पहले खेत में छिड़काव करें।
गोमूत्र व नीम का तेल मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर लें और 500 मिली. मिश्रण को प्रति पम्प के हिसाब से फसल में तर-बतर छिड़काव करें।
गोमूत्र 10 लीटर व नीम की पत्ती दो किलो व लहसुन 250 ग्राम का काढ़ा बनाकर 80-90 लीटर पानी के साथ प्रति एकड़ छिड़काव करें।
पांच लीटर मट्ठा को मिट्टी के घड़े में भरकर सात दिनों तक मिट्टी में दबा दें, उसके बाद 40 लीटर पानी में एक लीटर मट्ठा मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें।
रसायनिक प्रबंधन
रोग के लक्षण दिखाई देते ही 200 मिली. प्रोपीकोनेजोल 25 ई.सी. या पायराक्लोट्ररोबिन प्रति लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें। रोग के प्रकोप और फैलाव को देखते हुए दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल में करें।
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