तेजी से बढ़ता आयात खेती को बना रहा है घाटे का सौदा

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तेजी से बढ़ता आयात खेती को बना रहा है घाटे का सौदागेहूं की कटाई करते किसान।

अजीत सिंह

दिल्ली/लखनऊ। करीब नौ महीने पहले कृषि मंत्रालय वर्ष 2015-16 के लिए फसल उत्पादन के अग्रिम अनुमान जारी करता है। बाजार और मानसून पर निर्भर किसानों की तकदीर अक्सर इन आंकड़ों से भी बनती-बिगड़ती है। सरकार गेहूं के बंपर (940 लाख टन) उत्पादन की उम्मीद जताती है। ये चौंकाने वाले आंकड़े थे। क्योंकि दो साल से खेती सूखे की मार झेल रही थी, इसलिए गेहूं उत्पादन में 75 लाख टन (8.6 फीसदी) की बढ़ोतरी समझ से परे थी। जल्द ही इन आंकड़ों की पोल खुल गई, जब गेहूं की सरकारी खरीद 300 लाख टन के लक्ष्य के मुकाबले सिर्फ 230 लाख टन के आसपास रही। सरकारी खरीद में कमी के आंकड़े गेहूं उत्पादन में बंपर वृद्धि‍ के दावों पर सवालिया निशान लगा रहे थे।

8 दिसंबर, 2016- गेहूं उत्पादन में बंपर बढ़ोतरी के अनुमान के बावजूद केंद्र सरकार गेहूं पर आयात शुल्क पहले 25 फीसदी से घटाकर 10 फीसदी करती है और फिर इसे पूरी तरह समाप्त कर देती है। आयात शुल्क खत्म होने का मतलब है, विदेश से गेहूं की खरीद को बढ़ावा देना। लेकिन जब देश में 70-75 लाख टन ज्यादा गेहूं पैदा होने का अनुमान है तो हमें विदेशी गेहूं की क्या जरूरत? जबकि सरकार मान रही है कि चालू रबी सीजन (2016-17) में गेहूं की बुवाई पिछले साल से करीब आठ फीसदी अधिक हुई है।

आज हम दालों की कुल खपत का करीब 25 फीसदी आयात करते हैं।

कितनी विचित्र बात है, पिछले साल गेहूं उत्पादन करीब आठ फीसदी बढ़ने का अनुमान है और इस साल बुवाई में भी इतनी ही बढ़ोतरी हुई है। फिर भी सरकार गेहूं का आयात बढ़ाना चाहती है! मतलब साफ है, गेहूं उत्पादन में बढ़ोतरी के अनुमानों में कुछ तो गड़बड़ है। वरना उत्पादन बढ़ा तो सरकारी खरीद और मंड़ियों में गेहूं की आवक क्यों नहीं बढ़ी? और गेहूं के आयात की नौबत क्यों आ गई? लेकिन गड़बड़ी सरकारी आंकड़ों से ज्यादा उन नीतियों में है जो आयात को खाद्यान्न उत्पादन में कमी का विकल्प मान चल रही हैं।

वर्ष 2015-16 में गेहूं के बंपर उत्पादन के सरकारी दावों के उल्ट बाजार को देश में गेहूं की कमी की भनक लग चुकी थी। गेहूं के साथ-साथ आटे दाम भी बढ़ने लगे थे। अप्रैल, 2016 से दिसंबर, 2016 के बीच आटा करीब 25 फीसदी महंगा हुआ तो सरकार की चिंता बढ़नी लाजमी थी। इसका हल आयात शुल्क हटाकर निकाला गया, ताकी सस्ते विदेशी गेहूं की खरीद को बढ़ावा मिल सके। चालू सीजन में ऑस्ट्रेलिया, यूक्रेन और फ्रांस से करीब 30 लाख टन गेहूं का आयात हो चुका है जो फरवरी के आखिर तक 40 लाख टन तक पहुंच सकता है।

श्रोत: कृषि सांख्यकी, 2015 और कृषि व खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय से जुटाए आंकड़े (ग्राफिक: राज कुमार सिंह)

हरित क्रांति का कैसा जश्न?

एक तरफ जहां हम हरित क्रांति के 50वें साल का जश्न माना रहे हैं, वहीं इस साल 50 साल टन से अधिक गेहूं आयात करने की स्थिति में पहुंच गए हैं। सरकारी गोदामों में गेहूं का भंडार पिछले एक दशक के निम्नतम स्तर पर आ गया है। इस साल एक जनवरी को सरकारी गोदामों में 137.47 लाख टन गेहूं बचा है, जबकि पिछले साल इस समय गेहूं भंडार 240 लाख टन था। देश में गेहूं भंडार एक जनवरी के लिए तय 138 लाख टन की बफर स्टॉक सीमा से भी नीचे आ गया है। यही वजह है कि इस साल भारत में पिछले एक दशक का सर्वाधिक गेहूं आयात होने जा रहा है। खाद्यान्न के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने वाले हरित क्रांति का जश्न मनाने के लिए यह कोई आदर्श स्थि‍ति नहीं है। गेहूं आयात को बढ़ावा देने का यह मामला दिखाता है कि कैसे हम खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर होने के बाद अब आयात निर्भरता की ओर मुड़ रहे हैं। इससे भी गंभीर बात यह है कि आयात निर्भरता की कीमत उन किसानों को चुकानी पड़ सकती है, जिनकी लगन और मेहनत ने देश में हरित क्रांति ला दी थी।

सन 2013-14 में भारत में रिकॉर्ड 958 लाख टन गेहूं उत्पादन हुआ। सवा सौ करोड़ की आबादी का पेट भरने के साथ-साथ भारत गेहूं का निर्यात भी कर रहा था। लेकिन विडंबना देखिए, इस साल देश में करीब 50 लाख टन गेहूं आयात की नौबत आ चुकी है, जबकि 2012-13 में हमने 65 लाख टन गेहूं का रिकॉर्ड निर्यात किया था।

यह 21वीं सदी का वह दौर है, जब हम ‘शिप टू माउथ’ की स्थिति को बहुत पीछे छोड़कर दुनिया के प्रमुख गेहूं और चावल उत्पादन बन चुके हैं। 1964 में देश में सालाना केवल एक करोड़ टन गेहूं पैदा होता था, जो हरित क्रांति के बूते 1970 तक दोगुना हो गया। सन 2013-14 में भारत में रिकॉर्ड 958 लाख टन गेहूं उत्पादन हुआ। सवा सौ करोड़ की आबादी का पेट भरने के साथ-साथ भारत गेहूं का निर्यात भी कर रहा था। लेकिन विडंबना देखिए, इस साल देश में करीब 50 लाख टन गेहूं आयात की नौबत आ चुकी है, जबकि 2012-13 में हमने 65 लाख टन गेहूं का रिकॉर्ड निर्यात किया था।

देश में दालों की खेती को बढ़ावा देने की बजाए विदेशों से मंगवाई जा रहे हैं दालें।

हालांकि, खाद्य सुरक्षा के मामले में अब हमारे सामने वैसा संकट नहीं है, जैसा हरित क्रांति से पहले था। देश में सालाना 850 लाख टन से अिधक गेहूं उत्पादन और करीब 820 लाख टन की खपत को देखते हुए 50-60 लाख टन गेहूं का आयात मात्रा के लिहाज से उतना बड़ा संकट नहीं है, जितना आयात उन्मुख नीतियों का प्रभाव। क्योंकि थोड़ी मात्रा में आयात भी घरेलू बाजार पर बड़ा असर डालता है। सरकार भी इस बात को बखूबी समझती है, इसलिए कीमतों पर काबू पाने के लिए अक्सर आयात-निर्यात नीतयों का सहारा लिया जाता है। इस तरह महंगाई प्रबंधन की मार आखिरकार किसानों पर पड़ती है।

सस्ते आयात से प्रतिस्पर्धा

भारतीय किसान यूनियन के पंजाब प्रांत के अध्यक्ष अजमेर सिंह लाखोवाल का कहना है कि गेंहू से आयात शुल्क हटाने का फैसला ऐसे समय लिया गया है, जब नोटबंदी से परेशान किसान सरकार से कुछ राहत पाने की उम्मीद कर रहा था। सस्ता विदेशी गेहूं बाजार में आने से भाव गिरने तय हैं। शायद सरकार चाहती है कि किसान प्रतिस्पर्धा से बाहर होकर खेती छोड़ने को मजबूर हो जाएं। देश के कई किसान संगठनों ने गेहूं पर 40 फीसदी आयात शुल्क लगाने की मांग की है।

कृषि व्यापार के जानकार आरएस राणा का मानना है कि उत्तर भारत के गेहूं उत्पादक राज्यों से खरीद के बजाय दक्षिण भारत की आटा मिलों को आयातित गेहूं 10-15 फीसदी सस्ता पड़ रहा है। गेहूं का ड्यूटी फ्री आयात जारी रहा तो अप्रैल में नई फसल आने पर गेहूं का भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी नीचे जा सकता है। क्योंकि चालू रबी सीजन में गेहूं की बुवाई पिछले साल से 7-8 फीसदी अधिक है। ऐसे में आयात शुल्क में बढ़ोतरी ही भारतीय किसानों को सस्ते आयात की प्रतिस्पर्धा में बने रहने दे सकती है, लेकिन यह कवच भी किसानों से छीना जा रहा है।

हालांकि, केंद्र सरकार ने गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1525 रुपये से बढ़ाकर 1625 रुपये प्रति कुंतल किया है, लेकिन सस्ता आयात इस बढ़ोतरी पर भी पानी फेर सकता है। मतलब, एक तरह सरकार ने फसल का समर्थन मूल्य बढ़ाया तो दूसरे हाथ से इस फायदे को निपटाने का इंतजाम भी दिया।

जाने-माने कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन आयात के खतरे से आगाह करते हुए ट्वीट करते हैं, “अतीत में भी अमेरिका के पीएल-480 कार्यक्रम के तहत सस्ता आयात गेहूं उत्पादन में हमारी प्रगति में बाधक बना था। ...अगर गेहूं के सस्ते आयात के जरिये बाजार को बिगाड़ा जाता है तो यह गेहूं क्रांति के मामले में वापस अतीत की तरफ लौटने जैसा होगा।”

किसानों पर दोहरी मार

दरअसल, हरित क्रांति इसलिए संभव हो पाई थी, क्योंकि उन्नत खाद, बीज और तकनीक के साथ-साथ किसानों को सरकारी खरीद के जरिये फसल का उचित दाम दिलाने का भरोसा दिया गया था। सस्ता आयात किसानों के इस भरोसे पर चोट करता है। आयात के जरिये सरकार भले ही किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलवाने की जिम्मेदारी से बच जाए, लेकिन किसानों पर दोहरी मार पड़ती है। एक तरफ सरकारी खरीद कम होती जबकि दूसरी तरफ बाजार में उपज के दाम गिर जाते हैं। अगले कुछ महीनों में ऐसा ही होने जा रहा है। कृषि को आयात के चंगुल में फंसाने की यह एक सोची-समझी रणनीति है, जिसके संकेत दो साल पहले दिखाई देने लगे थे।

वर्ष 2014 में केंद्र की सत्ता संभालते ही एनडीए सरकार ने राज्यों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया था कि वे न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक भाव यानी बोनस पर गेहूं की खरीद न करें। किसानों को इस प्रकार बोनस देकर ही मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ ने कृषि उत्पादन में लंबी छलांग लगाई है। लेकिन पिछले दो-तीन साल से गेहूं की सरकारी खरीद का हतोत्साहित किया गया। जिसका नतीजा सबके सामने है। सरकारी गोदामों में बफर स्टॉक की सीमा से भी कम गेहूं बचा है। ऐसे में आयात के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। कुल मिलाकर एक सोची-समझी रणनीति के तहत पहले देश में अनाज की कमी पैदा की गई। और फिर सस्ते आयात के लिए दरवाजे खोल दिये गए।

कृषि आयात मतलब खेती की आउटसोर्सिंग

देखा जाए तो गेहूं जैसी वस्तुओं का आयात खेती की आउटसोर्सिंग की तरह है। स्वामीनाथन खाद्य आयात को बेरोजगारी के आयात की संज्ञा दे चुके हैं। लेकिन यह किसानों की आजीविका के साथ-साथ हमारी खाद्य सुरक्षा और संप्रभुता से जुड़ा मुद्दा भी है। वर्ष 2008-09 में देश के कुल आयात में कृषि आयात की हिस्सेदारी 2.09 फीसदी थी, तब हम सालाना करीब 29 हजार करोड़ रुपये का कृषि आयात करते थे। लेकिन वर्ष 2014-15 में देश के कुल आयात में कृषि आयात की हिस्सेदारी बढ़कर 4.22 फीसदी तक पहुंच गई है। अब हम सालाना 1.15 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा मूल्य का कृषि आयात करते हैं। यह पैसा कृषि संकट से जूझ रहे किसानों की जेब में जा सकता था। पांच-छह साल के अंदर हम कृषि आयात पर चार गुना ज्यादा रुपया खर्च करने लगे है। जब देश में ‘मेक इन इंडिया’ जैसी मुहिम छिड़ी है, तब कृषि आयात तेजी से बढ़ रहा है।

आयात-निर्यात नीतियों के दुष्चक्र में फंसी कृषि को चीनी के उदाहरण से भी समझा जा सकता है। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) के महानिदेशक अबिनाश वर्मा बताते हैं कि पिछले छह वर्षों के दौरान देश में घरेलू खपत से अधि‍क चीनी उत्पादन हुआ। लेकिन इसी दौरान वर्ष 2012-14 में कुल 7.75 लाख टन चीनी का आयात भी किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि साल 2015-16 में चीनी की कीमतें छह साल के निम्नतम स्तर पर आ गईं। इससे चीनी मिलों का घाटा बढ़ा तो गन्ना किसानों का बकाया भुगतान 22 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया।

आज भी यूपी के गन्ना किसान अपने बकाया भुगतान के लिए धरने-प्रदर्शन पर उतारू हैं। वर्मा का कहना है कि जिन वर्षों में हम चीनी का सरप्लस उत्पादन था और हम चीनी निर्यात कर रहे थे, तब हमें इसके आयात से बचना चाहिए था। गन्ना किसानों और चीनी उद्योग को इसका भारी नुकसान उठाना पड़ा। गौरतलब है कि इस साल चीनी पर भी आयात शुल्क में कटौती या इसे समाप्त किये जाने की अटकलें लगाई जा रही हैं।

ऐसे ही गुम हुई 'पीली क्रांति'

कृषि आयात को बढ़ावा देने की नीतियों के चलते ही आज भारत खाद्य तेलों और दालों का प्रमुख आयातक बन गया है। सन 1993-94 तक हम अपनी जरूरत का मात्र 3 फीसदी खाद्य तेल आयात करते थे, लेकिन खाद्य तेलों पर आयात शुल्क में हुई कटौतियों ने हमारे बाजारों को सस्ते पाम ऑयल और सोयाबीन तेल से भर दिया। आज भारत अपनी जरूरत का करीब 65-70 फीसदी खाद्य तेल आयात करता है, जिस पर सालाना करीब 70 हजार करोड़ रुपये का खर्च होता है। यह मांग घरेलू उत्पादन से पूरी होने के बजाय आयात से पूरी हो रही है।

आयात उन्मुख नीतियां घरेलू उत्पादन और किसानों पर निरंतर चोट कर रही हैं। गत खरीफ सीजन में तिलहन की बंपर पैदावर की उम्मीद थी, लेकिन नई फसल बाजार में आने से पहले ही क्रूड व रिफाइंड पाम ऑयल पर आयात शुल्क 5 फीसदी घटा दिया गया। नतीजा फिर वही, घरेलू बाजार में सोयाबीन और मूंगफली के दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी नीचे जा गिरे। ऐसी नीतियों के चलते किसानों से उत्पादन बढ़ाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? आंकड़े बताते हैं कि आयात पर बढ़ती निर्भरता घरेलू उत्पादन को भी बुरी तरह प्रभावित कर रही है। पिछले एक दशक में जहां खाद्य तेलों का आयात तीन गुना बढ़ा, वहीं इस दौरान देश में तिलहन उत्पादन करीब 5-10 फीसदी घटा है।

कृषि नीति के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं, “ऐसा नहीं कि हमारे किसान खाद्य तेलों की मांग पूरा करने में सक्षम नहीं हैं, लेकिन सरकार इंपोर्ट लॉबी के निहित स्वार्थों के सामने झुक गई है। गेहूं के मामले में भी यही हो रहा है। जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं के दाम कम थे, तब सरकार ने आयात शुल्क हटाकर सस्ते आयात का रास्ता खोल दिया।” दलहन के मामले में तो एक कदम आगे जाते हुए सरकार सीधे तौर पर खेती की आउटसोर्सिंग की तरफ बढ़ रही है। पिछले साल दालों की कीमतें आसमान छूने लगीं तो केंद्र सरकार ने अफ्रीकी देश मोजांबिक में दालों की खेती करवाने का समझौता कर लिया। अगले पांच साल में मोजांबिक से 7.20 लाख टन दालों का आयात होना है। ब्राजील और बर्मा जैसे देशों से भी दलहन आयात के मौके तलाश रही है।

देविंदर शर्मा कहते हैं कि जिस तरह नब्बे के दशक में पीली क्रांति (तिलहन उत्पादन में बढ़ोतरी) को तबाह किया गया था, अब उसी तरह गेहूं उत्पादन को हतोत्साहित करने वाला कोई भी कदम हरित क्रांति के खात्मे की शुरुआत हो सकता है। अब दोबारा ‘शिप टू माउथ’ की स्थिति की तरफ मुड़ना हमारे लिए आत्मघाती साबित होगा। शर्मा इस बात पर भी हैरानी जताते हैं कि कैसे घरेलू उत्पादकों के हितों को नजरअंदाज कर सेब के आयात को बढ़ावा दिया जा रहा है। गौरतलब है कि पिछले एक दशक में ताजे फलों का आयात तेजी से बढ़ा है और कुल कृषि आयात में इनकी हिस्सेदारी करीब 8 फीसदी तक पहुंच गई है।

दलहन के साथ भी यही त्रासदी

दलहन की कहानी खाद्य तेलों से मिलती-जुलती है। यहां भी महंगाई रोकने के नाम पर आयात को खूब बढ़ावा दिया गया। आज हम दालों की कुल खपत का करीब 25 फीसदी आयात करते हैं। पिछले एक दशक में दलहन आयात तीन गुना से ज्यादा बढ़ चुका है, जो सालाना करीब 20 हजार करोड़ रुपये का है। यह पैसा भी किसानों की जेब में जा सकता था, लेकिन आयात की भेंट चढ़ गया।

पिछले साल दालों की महंगाई देश में बड़ा मुद्दा थी। बाजार में 200 रुपये कि‍लो के भाव तक बिकती अरहर को देखते हुए किसानों दलहन का रुख किया। मानसून ने भी साथ दिया और चालू खरीफ सीजन 2016-17 में दालों का बंपर उत्पादन हुआ। अरहर का उत्पादन तो 74 फीसदी बढ़ गया। लेकिन घरेलू उत्पादन बढ़ने के बावजूद देश में दालों का आयात जारी रहा। अक्टूबर से दिसंबर 2016 के दौरान देश में 24.5 लाख टन दालों का आयात हुआ जो पिछले साल के मुकाबले 29 फीसदी अधिक है। नतीजा फिर वही, खरीफ की फसल मंडियों में पहुंचते ही अरहर, मूंग के दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे आ गए और किसान के हाथ सिर्फ हताशा लगी। किसानों के साथ ऐसी त्रासदी के तमाम उदाहरण हैं, जो खेती को घाटे का सौदा बना रहे हैं।

कृषि मूल्य एवं लागत आयोग के पूर्व अध्यक्ष टी. हक कहते हैं कि आयात और निर्यात के मामले में हमारी नीतियां अस्थिर रही हैं। कृषि वस्तुओं का घरेलू अधिक उत्पादन होने के बावजूद हम आयात को बढ़ावा देते रहे, जिसका खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ता है। कई उपजों पर आयात शुल्क शून्य कर दिया गया है। जिससे सस्ते आयात को बढ़ावा मिलता है और किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता। भारतीय कृषि को इस दुष्चक्र से निकालने के लिए सबसे पहले कृषि से जुड़े विदेश व्यापार की नीतियों को दुरुस्त करने की जरूरत है।

साभार डाउन टू अर्थ

                 

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