पलायन का श्राप लेकर यहां पैदा होता हर युवा

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पलायन का श्राप लेकर यहां पैदा होता हर युवाgaonconnection

चचावली (टीकमगढ़, मध्य प्रदेश)। दोपहर के दो बजे हैं, लकड़ी के मोटे बल्लों और मिट्टी से बनाई गई छत वाली एक कच्ची कोठरी में उन्नीस साल का सौरभ सिंह अपने पिता-दोस्तों और गाँव के अन्य बुज़ुर्गों के साथ दोपहर में ताश खेलने में मशगूल है। सौरभ की उसके गाँव में ये आखि़री दोपहर है।

दाएं कान में छोटी गोल बाली पहने सौरभ खेल में डूबा है, हंसी-मज़ाक में जमकर हंस रहा है, लेकिन दोस्तों और परिवार का ये साथ बस कुछ ही घंटों का और है, क्योंकि उसके पास अन्य 19 साल के नौजवानों की तरह अपने परिवार के साथ रहने की स्वतंत्रता नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि वो बुंदेलखंड में पैदा हुआ है, वो इलाका जो दर्जन भर से ज्यादा सूखे झेल चुका है। जहां के परिवारों में लड़का सोचने-समझने वाला होते ही घर छोड़कर बड़े शहरों में मजदूरी करने निकल जाता है, ताकि तबाह खेती से डूब चुकी घर की आर्थिक स्थिति को सहारा दे सके।

सौरभ और उस जैसे लाखों लोगों का — यूपी और एमपी में आने वाले बुंदेलखंड के 13 ज़िलों— से पलायन एक सच्चाई है और इस क्षेत्र का अभिशाप भी। किसी भी गाँव में चले जाइए युवा कम ही दिखेंगे। महिलाएं, बच्चे और बुज़ुर्ग ही आपका स्वागत करेंगे। कहीं-कहीं तो पूरे के पूरे परिवार ही पलायन करके जा चुके हैं।

"बाहर से कमा कर लाते हैं तब तो घर की चीज़ें हो पाती हैं, वरना खेती में कुछ नहीं बचा। उसमें हमें फंसना भी नहीं है। आज-तक कभी हमने नहीं देखा जब खेती में कुछ अच्छा हो गया हो," सौरभ ने बताया।

सौरभ के परिवार के पास गाँव में दो एकड़ खेती है। इतनी खेती से यूपी के मध्य या पश्चिमी भाग के किसान हज़ारों का मुनाफा कमाते हैं लेकिन मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 300 किमी दूर उत्तर में एमपी-बुदेलखंड के टीकमगढ़ जिले में स्थित सौरभ के गाँव चचावली में ज़मीन का इतना बड़ा टुकड़ा परिवार की कोई मदद नहीं कर पाता। इस ज़मीन से पिछले दो सालों मे लगातार पड़े सूखे के कारण लागत भर भी फसल नहीं उपज पाई, खेती के बीज-दवाई-सिंचाई के लिए जो सौरभ के पिता ने कर्ज लिया सो अलग।

ऊपर से एमपी-बुंदेलखंड में सिंचाई व्यवस्था यूपी-बुंदेलखंड से भी बदतर है। यूपी के हिस्से में तो फिर भी नहरों-बांधों के मेल और तालाबों की कुछ योजनाओं से स्थिति थोड़ी सुधरी है लेकिन एमपी-बुंदेलखंड में ऐसी कोई योजना नहीं है। खेत की सिंचाई कुंओं और बारिश पर निर्भर है। घर का खर्च खेती से ही चलता था, लेकिन खेती ने साथ छोड़ा तो कोई चारा नहीं बचा।

ऐसे में कर्ज़ और मुफ़लिसी से तंग आकर सौरभ ने तय किया कि वो गाँव के अन्य लड़कों की तरह पैसे कमाने बाहर जाएगा। "घर पर कर्ज़ था 30-40 हज़ार रुपए का। उसी बीच पापा छत ठीक करते-करते गिर गए थे तो उनके इलाज की भी बात आ गई थी। ये सारा हमने बाहर से मंजूरी (मजदूरी) लाकर निपटाया," सौरभ ने कहा।

समूचे बुंदेलखंड की 80 प्रतिशत जनसंख्या प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपनी आजीविका के लिए खेती पर ही आधारित है। उद्योग यहां इतने हैं नहीं, न ही टूरिज्म से इतने रोजगार के अवसर मिल पाते हैं। ऐसे में खेत में कुछ न होने पर यहां के लोगों के पास आजीविका कमाने का पलायन करने के अलावा अन्य कोई उपाय नहीं।

सौरभ जब गाँव छोड़कर पहली बार कमाने निकला था तब वो केवल सोलह साल का था। तब से अब तक वो दिल्ली, गुजरात, फरीदाबाद से लेकर पश्चिम बंगाल तक मजदूरी करने जा चुका है।

आज सौरभ उत्तराखंड के रुद्रपुर के लिए निकल रहा है। वहां उसे निर्माणाधीन इमारत में माल-मसाला ढुलाई का काम मिला है, जिसकी दिहाड़ी मजदूरी 250 से 270 रुपए मिलेगी। इस तरह के काम अक्सर सौरभ के गाँव में ठेकेदारों के सहारे आते हैं। बड़े-बड़े शहरों के ठेकेदार अपने यहां काम करने वाले मजदूरों से गाँव से और लड़के लाने को कह देते हैं।

चार बजे शाम को एक झोले में कपड़े और कुछ खाने-पीने की सामने बांधकर, हल्के गुलाबी रंग की टी-शर्ट पहनकर सौरभ अपने गाँव के टेम्पो स्टैंड से टेम्पो में बैठा, उसके साथ गाँव के कई और लड़के भी हैं, जो उसी की तरह पलायन करके रुद्रपुर जा रहे हैं।

गाँव से शुरू हुए उनके सफर का अगला पड़ाव 15 किमी दूर का बस अड्डा था, जहां से सब ने झांसी की बस पकड़ी। झांसी से रात की ट्रेन थी, रुद्रपुर के लिए।

आम दूरी की बात करें तो सफर कुछ सौ किमी का था, लेकिन सौरभ और उसके दोस्तों के लिए ये यात्रा दो ज़िंदगियों के बीच की है। पहली जिंदगी यानी उनका घर, जहां सुरक्षा थी, अपनापन था। दूसरी वो ज़िंदगी जो उन्होंने मजबूरी में चुनी, जिसमें वो कुछ ही घंटों में शामिल होने जा रहे थे, अगले कई महीनों तक। जहां अपनापन तो दूर रहने, सोने और खाने के लिए भी संघर्ष है।

इस सफर में इन लड़कों की मदद शराब ने भी की, जो गाँव से निकलते वक्त खरीदी गई थी। ये घर से दूर जाने में होने वाली तकलीफ को कुछ कम कर देती है, ऐसा लड़कों का कहना है। हालांकि, सौरभ शराब से दूर ही रहा पर झांसी पहुंचने के रास्ते भर दोस्तों के 'बड़े-बड़े शहरों में छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं सेनोरीटा' जैसी फिल्मी कहावतें उसे गुदगुदाती रहीं।

बुंदेलखंड से निकलकर खानाबदोशों वाली ये जिंदगी चुनने वाले लोगों की संख्या पर कभी कोई वृहद सर्वे नहीं हुआ। बुंदेलखंड से प्रकाशित होने सामुदायिक अख़बार 'ख़बर लहरिया' ने अपने एक अध्ययन और केंद्रीय सरकार के मंत्रिमण्डल द्वारा 2014 में तैयार की गई एक रिपोर्ट के आधार पर लिखा कि केवल यूपी-बुंदेलखंड के सात जिलों से ही पिछले कुछ सालों में 60 लाख लोग पलायन कर चुके हैं।

घर से इतनी दूर अजनबी जगह पर लंबे समय तक रहते हुए डर नहीं लगता, इसके जवाब में सौरभ ने कहा, "शुरू में थोड़ा था, अब ये तो आम बात हो गई है, सब लोग बाहर जाते हैं, तो हम भी जाते हैं, गाँव में रखा ही क्या है।" इसके बाद वो झांसी रेलवे स्टेशन की ओर चला गया, जहां उसे हज़ारों लोगों की भीड़ के बीच अभी टिकट खरीदने और फिर जनरल डिब्बे में सफर की भी जंग लड़नी थी।

नोट- ये खबर वर्ष 2016 में बुंदेलखंड में 1000 घंटे सीरीज में मूल रुप से प्रकाशित की गई थी।

   

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