रंगीला राजास्थान : खेतिहर नारियों की सहेली रंग-बिरंगी ईढाणियां

राजस्थानी साहित्य में जेआरएफ सरोज रामावत ने ईढाणियों के विविध पहलूओं पर समाजशास्त्रीय वैज्ञानिक अध्ययन की जरूरत बताते हुए अपने शोधपत्र के जरिये यह संभावना जताई कि आने वाले वर्षों में शोधरत व्यावसायिक संस्थाएं प्लास्टिक-रबर एवं कपड़े से बनी उन्नत ईढाणियां बाजार में लांच कर सकती हैं।

mohit asthanamohit asthana   26 May 2018 12:55 PM GMT

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रंगीला राजास्थान : खेतिहर नारियों की सहेली रंग-बिरंगी ईढाणियां

जयपुर। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में शुरू से ही महिलाओं ने खेती के काम में बराबरी का योगदान दिया है। खेत-खलिहान, हाट और पनघट में देहाती बहू-बेटियों के माथे पर इठलाती-इतराती रंग-बिरंगी साज-सज्जा वाली ईढाणियों की निराली छटा देखते ही बनती है। आज के मशीनी युग में भी बेहद सरल उपकरण के रूप में ईढाणी का महत्व कम नहीं हुआ है। किसान नारियों के जीवट कार्यभार को बांटकर हल्का अनुभव करवाने वाली ईढाणी आज भी महिलाओं को उतनी ही प्रिय है, जितना उनका उनका गहना। पशुबाड़े में गोबर ढोती, ईंधन की गठरी लाती, चारा डालती, दूध की मटकी, बिलौवणी हांडी, देगची को सिर पर उठाती, पनघट पर पानी भरती हमारी ग्रामवधुएं इस अदनी-सी ईढाणी के साथ रहते हुए अकेलेपन का अनुभव नहीं करतीं।
ग्रामीण औरतें अलग-अलग डिजाइन की ईढाणियां तैयार रखती हैं
राजस्थानी साहित्य में जेआरएफ सरोज रामावत ने ईढाणियों के विविध पहलूओं पर समाजशास्त्रीय वैज्ञानिक अध्ययन की जरूरत बताते हुए अपने शोधपत्र के जरिये यह संभावना जताई कि आने वाले वर्षों में शोधरत व्यावसायिक संस्थाएं प्लास्टिक-रबर एवं कपड़े से बनी उन्नत ईढाणियां बाजार में लांच कर सकती हैं। मनरेगा के आंकड़ों से साफ जाहिर होता है कि गांवों में श्रम का पलड़ा आज भी महिलाओं के पक्ष में ही है। लिहाजा ईढाणियों का उपयोग उतना ही अधिक रहा। अनेक जातियों की औरतें भारी श्रम किया करती हैं, मसलन दूध का धंधा करने वाली, फेरी वाली, ग्वारिन, ग्वालिन आदि। माथे पर भारी बोझ के अनुपात में ही ग्रामीण औरतें अलग-अलग डिजाइन की ईढाणियां तैयार रखती हैं जैसे कांटेदार ईंधन को लाने के लिए मोटी-चौड़ी लेकिन पिचकी हुई ईढाणियां, चारे की पुआल लाने के लिए चौड़ी लेकिन पानी की मटकी लाने के लिए सुघड़ मजबूत कसी हुई ईढाणी इत्यादि।


हजारों बार पटकने-गिरने पर भी वे उधड़ती नहीं
देहाती श्रममूर्तियां कमठा-तगारी, खान-मजदूरी के लिए साधारण कपड़े से बुनी हुई ईढाणियां काम लेती हैं। स्थानीय साधनों के अनुसार पुराने खाट, चारपाई की मूंज, बदाण आदि के आठ-दस लपेटों पर पुनः कसकर बंधी हुई लपेटन के ऊपर पुरानी कूरपण (कपड़ों की कतरन), पुरानी धोती-साड़ी की लीरियां इतनी कसकर लपेटी जाती हैं कि हजारों बार पटकने-गिरने पर भी वे उधड़ती नहीं। भारतीय नारियों के कर्मठ जीवन में शायद इन मजबूत ईढाणियों की भी प्रेरणा शामिल लगती है। राजस्थानी लोकजीवन में ईढाणी का महत्व एक लोकगीत से भी स्पष्ट हो जाता है जिसमें नायिका (वधू) के पीहर से बड़े जतन से तैयार की हुई सवा लाख कीमत वाली ईढाणी कहीं खो जाती है। गांव की महिलाओं में ईढाणी की कीमत उस पर बड़ी मेहनत से महीन चिढ़ों-मिणियों, शंखों-सीपी, कांच-मोतियों की जड़ाई के कारण ही आंकी जाती है।
राजस्थानी लोकगीतों में भी ईढाणी का है जिक्र
एक-एक ईढाणी में सवा लाख महीन मोती-मणके (चिढें) पिरोई जाती थीं, इसलिए उनको 'सवा लाख री लूम' कहा जाता था। लोकगीतों में ईढाणी के महत्व को लेकर कहे गये तथ्य एकदम निराधार नहीं हैं। हकीकत यह है कि ईढाणियां देहाती नारियों की निजी सम्पत्ति होती हैं। इनको स्त्री धन के रूप में समझा जाता था। ईढाणी खोने का अर्थ है उस महिला का लापरवाह होना और श्रमप्रधान ग्रामीण कृषक समाज में लापरवाही को बड़ी घृणा के साथ देखा जाता है। खूंटी पर सजी टंगी हुई ईढाणियां अपनी मालकिनों को संबंधित कार्य का स्मरण कराती रहती हैं। सरोज का मानना है कि गांवों में वफादार बैल, गाय, कुत्ते, बिल्ली आदि की तरह ही ईढाणियों को भी पूरी आत्मीयता से रखा जाता है। विवाहोपरांत बेटी की विदाई में उसकी सहेलियां और रिश्ते की भाभियां उपहार-स्वरूप दर्जनों ईढाणियां देती थीं।
ईढाणी निर्माण के कुटीर उद्योग चल रहे
बाड़मेर के कुछ गांवों में कलात्मक ईढाणी निर्माण के कुटीर उद्योग चल रहे हैं, जिनमें कांच के टुकड़ों की जड़ाई की जाती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ईढाणियों का व्यापक महत्व आज भी उतना ही प्रभावी है। कृषि क्षेत्र में नित नये विकास और नवाचारों के आलोक में इस बात की संभावना है कि मेहनती महिलाओं के लिए टिकाऊ, सस्ती और एडजस्टेबल ईढाणियों की तकनीक ईजाद हो जाए और परंपरागत ईढाणी निर्माण कला को हस्तशिल्प कला के रूप में बाजार में उतारा जा सके।


प्रस्तुति: मोईनुद्दीन चिश्ती (लेखक कृषि-पर्यावरण पत्रकार हैं)

 

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