खेजड़ी, जाल और केर वो 3 पेड़ जिनसे गर्मियों में आबाद रहता है रेगिस्तान

गाँव कनेक्शन | Jun 08, 2021, 10:25 IST
पेड़ों की अहमियत थार के लोगों से बेहतर कौन समझ सकता है, क्या आप जानते हैं वो कौन से तीन पेड़ हैं जो मई-जून की तपते दिनों रेगिस्तान को आबाद रखते हैं।
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सुमेर सिंह राठौड, राजस्थान


गर्मियों के दिन ज्यों-ज्यों तपते हैं रेगिस्तान के पेड़-पौधे भी खिलने लगते हैं। खिलने क्या लगते हैं जीवन से भर जाते हैं। गर्मियों के महीने में जिन तीन पेड़-पौधों पर रेगिस्तान आबाद रहता है वे हैं खेजड़ी, जाल और कैर।

राजस्थान में ये पेड़ लोगों के जीवन का हिस्सा होते हैं। इन पेड़ों के नाम या पहचान भी होती है। जिसे लोग सालों-साल याद रखते हैं। जैसे कि अब भी बैठने पर कोई बात निकलती है पेड़ों की तो कहते हैं "धोरे के पीछे वाली तीखी जाल के पीलू कितने मीठे होते हैं। " या फिर "खेत के बीचोबीच कुएँ के पास वाली खेजड़ी के खोखे बहुत स्वादिष्ट होते हैं।"

खेजड़ी का पेड़ काफी बड़ा होता है। ज्यादा विशालकाय होता है तो उसे खेजड़ भी कहते हैं। खेजड़ी राजस्थान का राज्यवृक्ष है। यह वृक्ष गर्मी हो या सर्दी हर विपरीत से विपरीत परिस्थिति को आराम से झेल लेता है। और यहां के लोगों का भी हर विपरीत परिस्थिति में साथ देता है।

स्थानीय के लोग बताते हैं कि जब छपनिया अकाल पड़ा था तब लोगों ने खेजड़ी की छाल पीसकर रोटियां बनाकर खाई थीं। थार के रेगिस्तान के लगभग हर गाँव में खेजड़ी का पेड़ जरूर मिल जाएगा। यहाँ के लोग इसे पवित्र भी मानते हैं। राजस्थान में पर्यावरण तंत्र का आधार है खेजड़ी। इसपर लगने वाले फल को सांगरी कहते हैं। सांगरी को कैर तथा कूमट की फलियों के साथ मिलाकर बहुत ही स्वादिष्ट सब्जी बनती है। खेजड़ी के पेड़ खेतों की मेड़ पर भी लगाए जाते हैं जिससे मेड़ मजबूत बनती है। मनुष्य के साथ-साथ पशुओं के लिए भी खेजड़ी उपयोगी है। ऊँट व भेड़, बकरियों के लिए खेजड़ी के पत्ते और सांगरी जरूरी भोजन है। सांगरी जब सूख जाते हैं तो उसे खोखे कहते हैं। अब थार में खेजड़ी के वृक्षों की संख्या लगातार कम हो रही है। वे खेजड़ी के ही वृक्ष थे जिन्हें बचाने के लिए अमृता बाई ने बलिदान दिया था। 1730 ई. के उस दिन जोधपुर के पास खेजड़ली गाँव में विश्नोई समाज के 363 लोगों ने पेड़ों को बचाने के लिए पेड़ों से लिपटकर अपनी जान दे दी थी।

कुछ कुछ खेजड़ी जैसा ही होता है जाल का पेड़

जाल भी झाड़ी जैसा ही होता है पर कुछ-कुछ जगहों पर पेड़ जैसा भी दिखता है। इस पर लगने वाले फल को पीलू कहते हैं। मई के महिने में गांवों के पास से निकलेंगे तो सुबह और शाम जब मौसम थोड़ा ठंडा होता है और जाल के पेड़ बच्चों से भरे हुए होते हैं। कमर में बर्तन बांधे या तो वे पीलू खा रहे होते हैं या इकट्ठे कर रहे होते हैं।

ये फल दो रंग के होते हैं लाल और पीले। जिन्हें मारवाड़ी में रातिया (लाल) और सेड़िया (पीले) पीलू कहते हैं। जाल के पेड़ का कई औषधियों में भी उपयोग होता है। पीलू इकट्ठे करके सालभर खाते हैं इन सूखे हुए पीलूओं को कोकड़ भी कहते हैं।

कैर से अचार और चटनी भी बनती है

कैर की झाड़ी होती है। जिसपर कैर लगते हैं। ये तीखे और कड़वे होते हैं। कैर का अचार, कढ़ी और चटनी बनती है। इससे पहले छाछ में डालकर इन्हें मीठा कर दिया जाता है। कैर पकने के बाद पाके हो जाते हैं लाल रंग के, जो खाने में मीठे होते हैं। कहीं-कहीं इन्हें ढालू भी कहते हैं।

कैर उगने के मौसम में आप थार रेगिस्तान के गांवों की ओर जाएंगे तो औरतें अपने ओढ़ने की झोली बनाकर और मर्द अंगोछो की झोली बनाकर इसे तोड़ते हुए दिख जाएंगे। कैर इकट्ठे करके यहाँ के लोग संग्रहित करके रखते हैं और सालभर खाते हैं।अब धीरे-धीरे कैर, सांगरी या पीलू लाने में लोगों की दिलचस्पी कम हो रही है। हमारे देखते-देखते ही आस पास से ये सब पेड़ गायब हो रहे हैं। हमारी अनदेखी हमें ही भारी पड़ रही है।

आबाद पेड़-पौधों को बर्बाद करके हम अपना जीवन भी बर्बाद ही कर रहे हैं। यह बात कब समझी जाएगी, पता नहीं। बर्तन पीलूओं से भरकर दिन गर्म होने पर वापिस घर लौटते बच्चे। अंगोछे खोखों से भरकर लौटते चरवाहे। कैर की झाड़ियों के चारों और इकट्ठे होकर कांटों से हाथ बचाकर कैर इकट्ठे करती औरतें। घरों के आगे उगे जाल और खेजड़ी की छाँव में गर्म दोपहरों में बैठकर काम करते लोग। अब ये नज़ारे नहीं दिखते बस खबरें आती हैं कि आज उस प्रोजेक्ट के लिए गांव में इतने हरे पेड़ काट दिये गए।

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