नीलेश मिसरा के मंडली की सदस्या रश्मि नामबियार की लिखी कहानी पढ़िए: 'सौ का नोट'    

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नीलेश मिसरा के मंडली की सदस्या रश्मि नामबियार  की लिखी कहानी पढ़िए: सौ  का नोट    पढ़िए कहानी सौ का नोट।

वो कहानियां तो आज तक आप किस्सागो नीलेश मिसरा की आवाज़ में रेडियो और ऐप पर सुनते थे अब गांव कनेक्शन में पढ़ भी सकेंगे। #कहानीकापन्ना में इस बार पढ़िए नीलेश मिसरा की मंडली की सदस्या रशिमी नामबियार की लिखी कहानी 'सौ का नोट'

बाबूजी ई वाला नोट नहीं चलेगा" सब्ज़ी वाले ने सौ का नोट विमलेन्दु को वापस करते हुए कहा।

"अरे क्यों नहीं चलेगा भाई, नकली है क्या?" विमलेन्दु ने झुझलाते हुए पूछा। "बाबूजी इस पे कुछ लिखा हुआ है, आगे नहीं चला तो हम क्या करेंगे इसका ?" "सौ रुपये का नोट है चलेगा कैसे नहीं ?"

"तो आप ही रख लीजिये न अपने पास , कहीं और चला लीजियेगा "सब्जीवाला अपनी वॉल्यूम बढ़ाते हुए बोला! आस पास की दुकान में खड़े हुए लोग घूम कर उसे देखने लगे, बस यही तो पसंद नहीं था विमलेंदु को। वह हमेशा लोगों की नज़र से दूर रहना चाहता था। उसने धीरे से हाथ बढ़ाकर नोट वापस लिया और उसे अपनी शर्ट की जेब में रख लिया।

अकेलापन, विमलेन्दु की जिंदगी में तो कूट-कूट के भरा हुआ था। पिता की सूरत उसे याद भी नहीं थी, ग्रेजुएशन के दूसरे ही साल में जब माँ भी गुज़र गयी तो वो नितांत अकेला हो गया था। कोई भाई बहिन नहीं, किसी रिश्तेदार से नाता नहीं और दोस्त बनाना, उस से कभी हो ही नहीं पाया था। ये बात नहीं थी की दुनिया बुरी थी बस उसे यूं लगता था कि मनो वो ही दुनिया के काबिल नहीं था।

घर आकर रोज़ की तरह उसने खाना बनाया और रेडियो ऑन कर के लेट गया। सूरज ढल जाने के बाद भी कमरे में मद्धम सी रौशनी आ रही थी, अचानक उसे आज बाज़ार में हुई बात याद आ गयी। शर्ट की पॉकेट से उसने वो नोट निकाला, उस पर लाल रंग से अंग्रेजी में लिखा था "LONELY" फिर एक क्वेश्चन मार्क था और उसके नीचे एक मोबाइल नंबर लिखा था!

Lonely यानि कि अकेलापन, विमलेन्दु की जिंदगी में तो कूट-कूट के भरा हुआ था। पिता की सूरत उसे याद भी नहीं थी, ग्रेजुएशन के दूसरे ही साल में जब माँ भी गुज़र गयी तो वो नितांत अकेला हो गया था। कोई भाई बहिन नहीं, किसी रिश्तेदार से नाता नहीं और दोस्त बनाना, उस से कभी हो ही नहीं पाया था। ये बात नहीं थी की दुनिया बुरी थी बस उसे यूं लगता था कि मनो वो ही दुनिया के काबिल नहीं था। ग्रेजुएशन के बाद से और पिछले 16 साल से वो "सहनी टूर्स एंड ट्रेवल्स" में काम कर रहा था। एक कमरे के ऑफिस में एक तरफ सहनी साहब बैठते थे और दूसरी तरफ विमलेंदु। सहनी साहब के लिए विमलेंदु ऑलमोस्ट अदृश्य था, सिर्फ काम के वक्त वो उन्हें दिखाई पड़ता था और विमलेन्दु भी अपनी इस अदृश्यता में खुश था, शायद इसीलिए, वो इतने सालों इतने कम वेतन पर भी वहां टिका हुआ था।

उसका एक और लॉग ट्रम रिलेशनशिप था और वो था उस बरसाती के साथ जिसमें वो पिछले 16 साल से किराये पर रह रहा था। एक छोटे से 8 by 10 के कमरे में उसने अपनी दुनिया समेट ली थी लेकिन वो जानता था की इतने छोटे कमरे और इतने कम वेतन में गृहस्थी नहीं समेटी जा सकती इसलिए उसने कभी शादी की बात सोची भी नहीं।

खलता तो उसे रोज़ ही था ये अकेलापन लेकिन वो ऑफिस में फाइलों के बीच खो जाता और घर पर खुद को वो चार दीवारों के बीच रख देता। साहसी हालात से लड़ते हैं, कायर भागते हैं और आम आदमी हालात से समझौता कर वक्त की चरखे पे उम्र की सूत काटता रहता है। विमलेन्दु भी एक ऐसा ही जुलाहा बन चुका था अब। विमलेन्दु पिछले 10 मिनट से उसी नोट को ताके जा रहा था। उसने कई किस्से पढ़े थे अखबारों में जहां लोगों के अकेलापन का फायदा उठा कर उन्हें लूट लिया जाता था। कहीं ये भी तो कुछ ऐसा नहीं? एक पल को उसके मन में ये सवाल उठा, अगले ही पल उसके चेहरे पर एक मुस्कान तैर उठी वो कांधे उचकते हुए बड़बड़ाया "मेरे पास लूटने को है ही क्या?"

उस नोट के बारे में सोचते-सोचते उसकी आंख लग गयी। उठा तो, रात के 9 बज चुके थे। उसके सामने अंधेरा फैला हुआ था और उसमें पसरा हुआ था उसका अकेलापन। उसे ऐसे अंधेरों से डर लगता था। उसने डर से मुट्ठी भींची तो उसे एहसास हुआ कि वो नोट अब भी उसके हाथ में था। उसने नोट को एक बार और देखा और न जाने क्यों उसकी उंगलियों ने उसके मोबाइल से वो नंबर डायल कर दिया। 4 रिंग के बाद उधर से आवाज़ आई "हैल्लो"

विमलेन्दु ने आवाज़ से अंदाजा लगाया की उस तरफ कोई 60-65 साल का इंसान होगा।

"हैल्लो" फिर से आवाज़ आई। "ओह हां, वो सौ रुपये के नोट पर आपका नंबर था "विमलेन्दु हड़बड़ाते हुए बोला। "अच्छा वो, क्या नाम है आपका?" उस व्यक्ति ने पूछा। "विमलेन्दु शर्मा"।

"क्या करते हो ?" "एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी "विमलेन्दु ने अनमना होकर कहा।" "अच्छा, घर पर कौन कौन है "उस आवाज़ ने बड़े नरमी से पूछा।

विमलेन्दु को उसकी जिंदगी के बारे में सवाल पूछने वाले लोग बिलकुल पसंद नहीं थे। वैसे, अंतिम बार उस से इतने पर्सनल सवाल 10 साल पहले एक सेन्सस वालों ने पूछा था! उसका मन हुआ एक बार कि वो कॉल काट दे लेकिन कुछ तो था उस आवाज़ में जिसने उसे कॉल काटने से रोक लिया।

"जी कोई नहीं है मेरे घर पे" विमलेन्दु ने यूं कहा मानो उसे ये चैप्टर बंद करने की जल्दी हो "ओह अच्छा, आज गर्मी कितनी है, हैं न? उस व्यक्ति ने टॉपिक बदलते हुए कहा "जी है तो, लेकिन सर, आप कौन हैं? और ये ... " विमेलेंदु अपना सवाल पूरा कर पाता उस से पहले सज्जन बोल पड़े।

"मेरा नाम रमाकांत है, मैं यहीं नेहरू नगर में रहता हूं। वैसे, आपके यहां लाइट जाती है क्या?" "जी जाती तो है, लेकिन कभी कभार एक दो घंटे के लिए "विमलेन्दु ने कहा।" "दोस्त बुरा मत मान न लेकिन मैं तुम्हे "तुम" कहूंगा और उसी सांस में, बिना विमलेंदु के सहमति का इंतज़ार किये रमाकांत ने पूछा "तुम्हारे घर खाना कौन बनता है?"

एक अजनबी के मुंह से "दोस्त" कहे जाने पर विमलेंदु को कुछ अजीब सा लगा, लगा मानो उसके सीने के बायीं ओर कुछ हलचल सी हुयी हो!

"मैं, खुद ही बनता हूं" उसने धीमे से कहा।

"आहा, खाने में क्या-क्या पसंद है तुम्हें?" रमाकांत ने तुरंत पूछा। ये सवाल सुनते ही विमेलेंदु को लगा मानो उसके गले में एक बड़ा सा गोला अटक गया हो। मां के जाने के बाद पिछले 17 सालों में किसी ने उस से ये सवाल नहीं पूछा था। वैसे, मां की बनाई हुई खीर उसे बहुत पसंद थी। उसे समझ नहीं आ रहा था की क्या जवाब दे, उसके गले और आंखों में दर्द उतरने लगा था। "अरे दोस्त बोलो तो, मुझे तो तिलक चौक की कचोरियां बहुत पसंद हैं" उधर से रमाकांत बोल रहा था।

विमेलेंदु खुद को संभाल नहीं पा रहा था और उसने वो काॅल काट दिया। वो रात भर सोचता रहा की ये क्या अजीब माजरा है? क्यूं कोई उसके बारे में जानना चाहेगा? उसके अकेलेपन से, सामने वाले व्यक्ति को क्या मतलब? पता नहीं ये क्या खेल था लेकिन हां एक बात तो थी, उस व्यक्ति ने अनजाने में ही सही उसके मन की कोई तार छेड़ दी थी।

विमलेन्दु निश्चिंत था कि अब उस नंबर से उसका पीछा छूट गया, क्योंकि उसने बिना कुछ कहे ही फ़ोन काट दिया था। लेकिन वो गलत साबित हुआ। अगले दिन शाम को 7 बजे उसी नंबर से उसे काॅल आया। उसने कुछ देर तो फ़ोन बजने दिया फिर अपना फ़ोन स्विच ऑफ कर दिया। वैसे भी साहनी साहब और टेली-मार्केटिंग वालों के अलावा कोई तो था नहीं जो उसे कॉल करता था!

तीसरे दिन शाम 7 बजे फिर से उसी नंबर से कॉल आया। विमलेन्दु ने अपना मन बना लिए था कि अब कभी अगर उस व्यक्ति का कॉल आया, तो वह उस से कह देगा कि उसे उससे बात करने में कोई दिलचस्पी नहीं। अपने मन में बनाये डायलॉग को बोलने के लिए जैसे ही उसने फ़ोन उठाया, उधर से आवाज़ आई:

"अरे दोस्त, कहां चले गए थे? एक चुटकुला सुनोगे? " फिर से बिना उसकी सहमति का इंतज़ार किये रमाकांत ने एक चुटकुला सुना डाला।

मेरा नाम रमाकांत है, मैं यहीं नेहरू नगर में रहता हूं। वैसे, आपके यहां लाइट जाती है क्या?" "जी जाती तो है, लेकिन कभी कभार एक दो घंटे के लिए "विमलेन्दु ने कहा।" "दोस्त बुरा मत मान न लेकिन मैं तुम्हे "तुम" कहूंगा और उसी सांस में, बिना विमलेंदु के सहमति का इंतज़ार किये रमाकांत ने पूछा "तुम्हारे घर खाना कौन बनता है?"

विमलेन्दु मन में सोच ही रहा था कि अजीब चिपकू इंसान है, लेकिन इतने में उसे चुटकुला सुन कर हंसी आ गयी और सालों बाद आज वो हंस रहा था। उसे लगा मानो उसका 8 by 10 का कमरा खुला आसमान बन गया हो और वो उसमे पंख फैलाये उड़ रहा हो। उस दिन रमाकांत से उसकी आधे घंटे बात हुयी, ज्यादातर समय वो रमाकांत के सवालों के जवाब दे रहा था लेकिन उस दौरान वो रमाकांत से कोई सवाल नहीं पूछ पाया बल्कि रमाकांत ने उसे कोई सवाल पूछने का मौका ही नहीं दिया। उस रात बिस्तर पर जाते ही उसे नींद आ गयी थी।

अब, विमलेन्दु और रमाकांत की रोज़ बातें होती। विमलेन्दु शाम का इंतज़ार करता और दिन भर अपनी जिंदगी और आस पास घट रही घटनाओं पर ध्यान देता ताकि शाम को जब रमाकांत का फ़ोन आये तो इसके पास भी कुछ बताने को हो। उसे लगने लगा था की वो भी इस दुनिया का एक हिस्सा हो गया हो। एक बार तो वो तिलक चौक पर कचौरी भी खा आया! लौटकर जब उसने रमाकांत को बताया कि उसे वो कचोरियां अच्छी लगीं तो रमाकांत ने उसे शहर के तमाम उन हलवाईयों का नाम बताया जो अच्छी मिठाई और नमकीन बनाते थे। विमलेन्दु अक्सर इन दुकानों पर जाने लगा था। उसके जीवन में एक अनजाना सा रंग भरने लगा था। तीन महीने यूं ही चलता रहा। फिर, एक दिन शाम को 6 बजे उसके दरवाज़े पर दस्तक हुयी। उसने खोला तो सामने एक सज्जन खड़े थे।

"आप विमलेन्दु शर्मा है ?"

"जी कहिये"।

"मैं रमाकांत साहब का वकील हूं उन्होंने आपके लिए एक लाख रुपये का चेक भेजा है"।

विमलेन्दु ने लिफाफा खोला तो उसमें से एक लाख रुपये का एक चेक और एक चिट्ठी थी। चिट्ठी में लिखा था:

"प्रिय दोस्त, वैसे तो इस दुनिया में हम आते अकेले हैं और जाते भी अकेले ही हैं, पर इस आने जाने के दरमियां हम में से कोई भी अकेला नहीं रहना चाहता। कुछ महीनों तक तुम मेरे साथ चले इस जिंदगी के सफ़र में, इसके लिए तुम्हारा धन्यवाद।

कहानी सौ रुपए का नोट ।

गए 67 सालों में मैंने तुम जैसे बहुत कम इंसान देखे हैं जो एक अनजान व्यक्ति को अपना समय देता हो। परिवार के बंधन से बनाने वाले ने मुझे पैदाइशी मुक्त कर रखा है। मैंने अनाथाश्रम में होश संभाला और जवानी छोटे-मोटे काम करके अपना पेट पालने में बिता दिया। 20 साल पहले एक लाटरी टिकट खरीदी तो ऊपर वाले ने भी शायद तरस खा कर छप्पड़ फाड़ के दे दिया। मैं उस पैसे से खूब खाया-पीया, घूमा लेकिन मैं जहां जाता, जो करता, ये अकेलापन मेरे साथ ही रहता। शादी की कोशिश की तो लोग मेरे पैसे की वजह से अपनी बेटी देने को तैयार हो जाते लेकिन उनकी आंखों में मुझे ये लालच दिख जाती। वैसे भी आज़ाद परिंदे को पिंजड़ा कहां जाता है? इसलिए एक दिन मैंने तय कर लिया कि मैं शादी नहीं करूंगा।

जानते हो, वो सौ रुपये का नोट मेरे लिए जरिया है मेरे जैसे लोगों तक पहुंचने का इस संसार में सबसे भारी बोझ अकेलापन होता है, किसी का ये बोझ मैं हल्का कर सकूं, किसी के साथ चार कदम चल सकूं, बस यही चाह थी और हां इसी बहाने मेरे अकेलेपन को भी दवा मिलती रही तुम्हारे दिए गए कीमती पलों का कोई मोल नहीं लेकिन मैं ये चेक तुम्हारे लिए भेज रहा हूं। ये चेक रख लेना और कल से मुझे कॉल मत करना, न ही मैं तुम्हे कॉल करूंगा क्योंकि हमारी राह भले ही इक है, पर शायद मंजिलें अलग।

तुम्हारा दोस्त, रमाकांत"

अंतिम पंक्तियों ने विमलेन्दु को हिला दिया। उसने वकील से कहा "ये कैसा क्लॉज़ है कि कल से हम दोनों की बात नहीं होगी? मुझे नहीं चाहिए ये एक लाख रुपये। जाकर रमाकांत जी को वापस कर दीजिये, बात करें या न करें ये अब उनकी मर्जी, लेकिन मैं ये चेक नहीं लूंगा।" वकील ने कहा "एक लाख बहुत बड़ी रकम होती है, एक बार फिर से सोच लीजिये। अभी तो मैं चलता हूं अगर आपका मन बदल जाये मुझे कॉल कर दीजियेगा। ये है मेरा नंबर" वकील अपना card थमाकर चला गया।

विमलेन्दु के लिए ये रिश्ता कोई मौसमी फसल नहीं था जिसे काट कर वो अपना पेट भर लेता। उसे तो ये रिश्ता एक घना छायादार पेड़ सा लगता था जिसके नीचे बैठ को कुछ पल सुकून के गुजारता था। लेकिन, वकील ने भी तो सच ही कहा था, एक लाख कोई कम रकम तो नहीं होती! विमलेंदु रात भर बेचैनी में बिस्तर पर करवटें बदलता रहा, सुबह होते ही उसने वकील को फ़ोन किया।

"क्यों विमलेन्दु बाबू, आपने मन बदल लिया क्या?" वकील ने पूछा। "नहीं, मुझे रमाकांत जी का पता चाहिए "विमेलेंदु ने दृढ़ स्वर में कहा।"

"मैं नहीं दे सकता" वकील ने हिचकिचाते हुए कहा। वो इस सवाल के लिए तो बिलकुल तैयार नहीं था।

"मुझे चाहिए उनका पता, उन्होंने मेरा पता तो ले लिया, पर उनका पता नहीं दिया। गिव एंड टेक, तो उन्हीं का बुनियादी उसूल है ना" विमलेंदु की आवाज़ की दृढ़ता ने वकील को चौका दिया। उसे लग रहा था की विमलेन्दु बिना पता लिए मानेगा नहीं "d/61 नेहरु नगर"।

"धन्यवाद" कहकर विमलेन्दु ने फ़ोन रख दिया।

विमलेन्दु समझ गया था की रमाकांत आईंदा न उसे कॉल करेगा न उसकी कॉल लेगा। बस अब एक ही रास्ता था की वो रमाकांत से मिलकर उसे समझाए की रमाकांत उसके जीवन का कितना अहम हिस्सा बन चुका था। सारा दिन वो बस उस के चिट्ठी के बारे में सोचता रहा। सोचता रहा की रमाकांत का जीवन भी उसके जीवन की तरह रहा होगा बस दोनों में फर्क था तो उनकी आर्थिक स्थिति का।

शाम को हलकी बारिश शुरू हो गयी थी, ऑफिस से निकल वो ढूंढ़ते हुए d/61 नेहरु नगर पहुंच गया। कालिंग बेल बजाय तो पाजामा कुरता पहने एक वृद्ध सज्जन ने दरवाज़ा खोला। उनके चेहरे पर गंभीरता थी। इस से पहले की विमलेंदु कुछ बोल पता वो बोले: 'मैं ही रमाकांत हूं। तुम विमेलेंदु हो न?" विमलेन्दु ने सहमति में सर हिला दिया। रमाकांत ने उसे अन्दर बुलाया और सोफे पर बैठने का इशारा किया। विमलेन्दु घर के चारों ओर नज़र दौड़ा रहा था। घर का कोना करीने से सजाया हुआ था।

"मैं जानता था कि तुम वो एक लाख रुपये नहीं लोगे" रमाकांत ने उसके ऑब्जरवेशन में दखल अंदाजी करते हुए कहा।

"फिर आपने वो क्यों भेजा था? क्या आप वाकई नहीं समझ सके के आप मेरे लिए कितने महत्वपूर्ण है? आप मेरी आदत बन चुके हैं और मुझे नहीं चाहिए इस आदत से छुटकारा... मैं नहीं जानता आपकी क्या मजबूरी है कि आप खुद को मुझसे इन पैसों के बदले काटना चाहते हैं लेकिन मैं इतना मूर्ख और असंवेदनशील नहीं कि पैसों के बदले मैं इस दोस्ती की छायादार पेड़ को काट दूं!" विमलेन्दु रोष में बोला तो जा रहा था लेकिन उसकी आंखें नम हो रही थी। रमाकांत उसके सामने बैठ उसे एकटक देखे जा रहा था। अचानक उन्होंने आगे बढ़ कर विमलेन्दु का हाथ अपने हाथों में लिया और बोले "माफ़ करना दोस्त, गलती हो गयी। आज से जब चाहो तुम मेरे पास आ जा सकते हो।"उस शाम दोनों के स्नेह की बारिश में उनके बीच खड़ी औपचारिकता की दीवार ढह गयी। अब रोज़ विमेलेंदु ऑफिस से निकलते ही रमाकांत के घर पहुंच जाता, दोनों मिलकर चाय पीते और कभी ढेर सारी बातें करते तो कभी बस चुपचाप बैठ कोई किताब या अखबार पढ़ते। पता नहीं कितने महीनों तक यूं ही चलता रहा। अब रमाकांत के घर की ज़मीन के रेगिस्तान पर हरी दूब उग आई थी।

विमलेन्दु समझ गया था की रमाकांत आईंदा न उसे कॉल करेगा न उसकी कॉल लेगा। बस अब एक ही रास्ता था की वो रमाकांत से मिलकर उसे समझाए की रमाकांत उसके जीवन का कितना अहम हिस्सा बन चुका था। सारा दिन वो बस उस के चिट्ठी के बारे में सोचता रहा।

एक दिन ऑफिस में सहनी साहब ने कहा "विमलेन्दु, कल तुम भोपाल चले जाओ, एक पेमेंट कलेक्ट करना है। 3 दिन में वापस आ जाओगे" विमलेन्दु समझ गया था की रमाकांत आईंदा न उसे कॉल करेगा न उसकी कॉल लेगा। बस अब एक ही रास्ता था की वो रमाकांत से मिलकर उसे समझाए की रमाकांत उसके जीवन का कितना अहम हिस्सा बन चुका था। सारा दिन वो बस उस के चिट्ठी के बारे में सोचता रहा। शाम को उसने रमाकांत को ये बात बताई। रमाकांत ने उसे भोपाल में देखने लायक जगहों की लिस्ट थमा दी। अगले दिन सुबह जब विमलेन्दु उठा तो उसकी बायीं आंख फड़क रही थी। उसका पता नहीं क्यों लेकिन अजीब सी बेचैनी हो रही थी। 9.30 बजे वो स्टेशन पहुंच गया लेकिन उसे ट्रेन में बैठने का बिलकुल मन नहीं था। पहले भी वो इस शहर से बाहर गया था, लेकिन कभी उसे यूं महसूस नहीं हुआ था। नौकरी छीन जाने के डर से वो ट्रेन में बैठ तो गया लेकिन उसका मन इस आशंका से भारी हुआ जा रहा था कि कहीं तो कुछ अनर्थ होने वाला था!

रात को भोपाल पहुंचते ही विमेंदु ने रमाकांत को फ़ोन किया लेकिन फ़ोन स्विच ऑफ आ रहा था। शायद फ़ोन की बैटरी डिस्जार्च हो गया हो सोचकर उसने फिर कॉल नहीं किया। रात को सोने लगा तो फिर वही बेचैनी होने लगी। होटल के रूम में वो घड़ी की सूई ताकता रहा रात भर। सुबह उठकर फिर उसने रमाकांत को फ़ोन किया लेकिन फिर स्विच ऑफ आया। सारा दिन वो रमाकांत तक पहुंचने की कोशिश करता रहा लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उसकी आशंका अब यकीन में बदली जा रही थी की कुछ तो अनहोनी हुयी थी। पेमेंट कलेक्ट कर, उसने उस शाम वकील को फ़ोन किया तो पता चला की रमाकांत को कल दिल का दौरा पड़ा था और वो आईसीयू में थे।

विमलेन्दु के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गयी। उसकी ट्रेन अगले दिन की थी लेकिन उसने रात वाली बस पकड़ी और शहर पहुंचते ही वो सीधे हॉस्पिटल गया। वहां रिसेप्शन पर जब उसने रमाकांत का नाम पूछा तो वहां बैठी नर्स ने कहा कि उनसे सिर्फ किसी "विमेलेंदु शर्मा" को मिलने की इजाज़त दी है डॉक्टर ने। विमलेन्दु ने अपना आई कार्ड दिखाते हुए अपना परिचय दिया। हॉस्पिटल के किसी स्टाफ ने उसे आईसीयू के बेड नम्बर 6 के सामने लाकर कहा "इनकी हालत ठीक नहीं है लेकिन ये आपका नाम बार-बार ले रहे हैं इसलिए आपको इनसे मिलने की इजाजत दी गयी है"।

अपने दोस्त को ऐसी वस्था में देख वो बौरा सा गया। रमाकांत के पास बैठ कर बस एक ही बात न जाने कब तक दुहराता रहा "तुम नहीं जा सकते मुझे छोड़ कर"। अचानक रमाकांत ने हाथ बढाकर उसे छूआ और कांपते हुए टूटे शब्दों में कहा "दोस्त, मैंने इस हॉस्पिटल को अपना देह दान कर दिया है। तुम मेरे जाने के बाद अखबार में मेरे जाने की खबर छपवा देना और हो सके तो एक सभा भी रखना" कहते-कहते रमाकांत फिर स्थिर हो गया। नर्स ने उसे आकर बाहर जाने को कहा। आईसीयू के बाहर बैठ वो सामने खिड़की से ढलता हुआ सूरज देख रहा था। 15 मिनट बाद डॉक्टर ने आकर उसे खबर दी की रमाकांत अब नहीं रहे।

खिड़की के बाहर सूरज ढल चुका था। इस बार फिर विमेल्दु को अंधेरे से डर लग रहा था लेकिन उसके मन में बार-बार ये सवाल आ रहा था की वो कौन था जिस तक रमाकांत अपने देहांत की खबर पहुंचना चाहता था? विमलेन्दु ने अखबार के "श्रद्धाजंलि" section में रमाकांत के देहांत की खबर छपवाई जिसमें उसने चौथे दिन शोक सभा के बारे में भी लिखवाया।

जब ये चिठ्ठी तुम पढ़ रहे होगे, तब तक शायद तुम मेरे कई और दोस्तों से मिल चुके होगे। क्योंकि वे अच्छे लोग हैं, सो मुझे उम्मीद है के मेरी खबर सुनकर वो आएंगे। जो चार कदम साथ चले वो दोस्त बन जाता है और जो अंत तक साथ चलता है वही होता है सच्चा साथी।

शोक सभा 10 बजे सुबह से रमाकांत के घर पर ही रखी गयी थी। इन चार दिनों में, विमलेन्दु कितनी बार तो रोया था। उसे अपनी मां की और रमाकांत की बहुत याद आ रही थी। एक बार और उसे उसकी दुनिया बिखरती हुई सी लग रही थी और वो इस बार भी अकेले था। कोई नहीं था उसके कंधे पे हाथ रखने वाला। उफ़! वही अकेलापन फिर दिल के खाली कोने में आ बसने को तैयार खड़ा था! उसने सुबह-सुबह जाकर रमाकांत के घर के सामने वाले कमरे में गद्दी डाल कर उस पर सफ़ेद चादर बिछा दी थी। एक टेबल पर एक छोटे से फ्रेम में रमाकांत की फोटो लगा दी थी।

सामने बैठ पंडित जी गीता का पाठ कर रहे थे। अब बस उसे इंतज़ार था तो उस व्यक्ति का जिस तक रमाकांत अपनी मौत की खबर पहुंचाना चाहते थे। 10 बजे, एक 24-25 साल का नवयुवक खुले दरवाज़े से अंदर आया। विमलेन्दु ने हाथ जोड़कर युवक को गद्दी पर बैठने का इशारा किया। पंडित जी गीता का पाठ किये जा रहे थे। अगले 30 मिनट में 3 और लोग भी वहां आ गए। अब सब बैठकर गीता सुन रहे थे। पाठ ख़त्म होते ही विमलेन्दु ने उठकर कहा: "मैंने ही रमाकांत जी के देहांत के बारे में अखबार में छपवाई थी। मैं उनका दोस्त हूं। आप लोगों से विनम्र निवेदन है की आप अपना परिचय दें।" सबसे पहले आये हुए युवक ने उठकर अपना गला साफ़ करते हुए कहा "रमाकांत जी मेरे भी मित्र थे, बहुत ही अच्छे इंसान थे। एक 100 रुपये की नोट पर उनका नंबर लिखा हुआ मिला था और फिर वही से अपनी दोस्ती शुरू हुई थी। लेकिन एक दिन अचानक उन्होंने मेरे घर पर 1 लाख रुपये का चेक भिजवाया और फिर कभी मुझसे बात न करने की कसम ले ली"।

दूसरे, तीसरे और चौथे व्यक्ति का भी यही परिचय था और सब की कहानी एक ही थी। विमलेन्दु को समझ में आ रहा था की उस नोट के ज़रिये कई लोग रमाकांत के दोस्त बने थे लेकिन उसे अब भी नहीं समझ आ रहा था की ये अख़बार में खबर छपवाने लिए क्यों कहा था रमाकांत ने।

तभी हड़बड़ाते हुए वकील अंदर आया और उसने एक बड़ा सा लिफाफा विमलेन्दु को थमा दिया।

"ये आपकी अमानत है। महीना भर पहले, बाबूजी ने इसे मुझे दिया था और कहा था के जब उनको कुछ हो जाये तो मैं इसे आप तक पहुंचा दूं"।

खोलकर देखा तो उसमे रमाकांत की वसीयत थी, जिसमें उन्होंने अपनी सारी जायदाद उस के नाम कर दी थी। साथ में फिर एक चिट्ठी थी।

प्रिय दोस्त,

जब ये चिठ्ठी तुम पढ़ रहे होगे, तब तक शायद तुम मेरे कई और दोस्तों से मिल चुके होगे। क्योंकि वे अच्छे लोग हैं, सो मुझे उम्मीद है के मेरी खबर सुनकर वो आएंगे। जो चार कदम साथ चले वो दोस्त बन जाता है और जो अंत तक साथ चलता है वही होता है सच्चा साथी। तुम ही मेरे सच्चे साथी हो ! वो सब कुछ जो मेरा है वो तो उसी दिन तुम्हारा हो गया था जिस दिन तुमने मेरे घर की डोर बेल बजायी थी। ये वसीयत तो बस एक कानूनी कागज़ है। तुमने एक बार कहा था न कि वो सौ रुपये का नोट तुमने अपने संदूक में रख दिया है? मेरी आखिरी इच्छा यही है कि तुम उस नोट को फिर से किसी को दे दो क्योंकि अब से मेरा मोबाइल नंबर भी तो तुम्हारा ही है न।

खुश रहना दोस्त। हमेशा!

विमलेन्दु की आंख नम थी और वो रमाकांत की फोटो के सामने जलते दिए को देख रहा था। अब उसे अंधेरे से कोई डर नहीं था!

      

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