कैसे एक टीचर ने गरीब बेटियों के सपनों को दिए पंख

बिहार के कैमूर जिले के एक सरकारी स्कूल के प्रिंसिपल ने छात्राओं को न सिर्फ स्कूल आने के लिए प्रोत्साहित किया उन्हें खेल और संगीत जैसे क्षेत्र में चैम्पियन भी बना दिया है। शिक्षक दिवस पर राष्ट्रपति ने उन्हें सम्मानित किया।

Ambika TripathiAmbika Tripathi   16 Sep 2023 8:10 AM GMT

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कैसे एक टीचर ने गरीब बेटियों के सपनों को दिए पंख

पूनम यादव का पढ़ाई में मन नहीं लगता था, लेकिन वो खेल में आगे थीं, समस्या ये थी कि गाँव के स्कूल में उन्हें खेल कौन सिखाए, ऐसे में इस समस्या का हल निकाला उनके गुरु जी ने। पूनम आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की पहलवान हैं।

पूनम ने 12वीं तक की पढ़ाई बिहार के कैमूर जिले के आदर्श गर्ल्स सीनियर स्कूल रामगढ़ से की है, जहाँ पर उनके जैसी दूसरी सैकड़ों लड़कियों को पंख मिले हैं। इसमें उनकी मदद की यहाँ के प्रिंसिपल अनिल कुमार सिंह ने, तभी तो अभी हाल ही में शिक्षक दिवस पर इन्हें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया है।

अनिल गाँव कनेक्शन से बताते हैं, "स्कूल में बच्चों की रुचि के हिसाब से उन्हें ढालते हैं, बच्चियाँ कम्प्यूटर में काफी अच्छा कर रहीं थी, तो हमनें उससे जुड़ी चीजों में उन्हें आगे बढ़ने का मौका दिया। हमारे यहाँ पूनम यादव जो कभी पढ़ाई में ठीक नहीं थी, लेकिन खेल में अच्छी थी, हमने उसके लिए स्कूल में ट्रेनर की व्यवस्था की। प्राइवेट स्कूल के ट्रेनर आकर बच्ची को प्रैक्टिस करवाते थे अब वो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहलवानी कर रही है।"


लेकिन रामगढ़ और उसके आसपास के गाँव में शुरू से ऐसे हालात नहीं थे, ज़्यादातर लड़कियों को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ती थी, या फिर उनका स्कूल में एडमिशन ही नहीं कराया जाता।

ऐसे में जब साल 2009 में अनिल सिंह का ट्रांसफर आदर्श गर्ल्स सीनियर स्कूल में हुआ तो उन्होंने देखा कि लड़कियों का स्कूल है, फिर भी लड़कियाँ नहीं आना चाहती हैं। वो कहते हैं, "बच्चियों की ड्रॉपआउट की समस्या बहुत ज़्यादा थी, अब हमारी ज़िम्मेदारी थी कि वहाँ पर लड़कियों की संख्या बढ़ाई जाए।"

वो बताते हैं, "लोगों ने कहा कि अगर लड़कियों को लाना है तो महिला शिक्षिका का होना ज़रूरी है, लेकिन मैंने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया और सिर्फ उनकी पढ़ाई पर ध्यान दिया।"

अनिल सिंह ने स्कूल में 20 नए टॉयलेट बनवाए और पुरानों की मरम्मत करवाई और साल 2009 में गाँव के इस स्कूल में कम्प्यूटर की व्यवस्था की। " साल 2009 में कम्प्यूटर का इस्तेमाल करना बच्चियों के लिए किसी भी चमत्कार से कम नहीं था, कम्प्यूटर आने के बाद धीरे धीरे बच्चियाँ स्कूल आने लगी, उन्हें स्कूल में अच्छा लगने लगा। उन्होंने आगे कहा।

साल 2012 में उन्होंने अपने स्कूल में हाइजीन क्लब की शुरुआत की, जिससे बच्चियाँ अपने स्वास्थ्य को लेकर जागरूक हों, वो कहते हैं, " आज बच्चियों की हर समस्याओं पर बात की जाती है, कम पैसों में भी हेल्दी चीजें आ सकती हैं जो सेहत के लिए बहुत लाभदायक होती हैं, साथ ही बच्चियों के पोषण पर काम किया जाता है, जिससे उनका स्वास्थ्य ठीक रहे। बच्चियाँ स्वस्थ रहेंगी तो आगे चीजों पर ध्यान दे पाएँगी"


स्कूल में पैड बैंक की भी शुरुआत की गई, अब तो वेंडिंग मशीन भी लगा दी गई है, जिससे खुद से पैड तैयार कर लेती हैं। अनिल बताते हैं, "स्कूल के इन्फ्रास्क्चर बदलाव में जन समुदाय का सबसे ज़्यादा सहयोग रहा, लोगों ने बहुत मदद की। लोग कहते हैं कि मदद नहीं मिलती लेकिन आप मांगते हैं तो मदद मिलती ही है।"

अनिल आगे कहते हैं, "स्कूल में बच्चों की रुचि के हिसाब से उन्हें ढालते हैं बच्चियाँ कम्प्यूटर में काफी अच्छा कर रहीं थी, एक बच्ची तनु यादव है वो बहुत अच्छी सिंगर हैं, जब हमें उसके सिंगिंग के बारे में पता चला तो हमने प्रैक्टिस के लिए भी टीचर की व्यवस्था की और आज तनु भी गायन के क्षेत्र में बनारस में पढ़ाई कर रही हैं।" "बच्चे जब अपनी पढ़ाई पूरी कर स्कूल से जाते हैं, बहुत दुखी रहते हैं। जब तनु अपनी पढ़ाई के बाद बनारस जा रहीं थी तो लिपट कर रोने लगीं, मैंने उसे समझाया कि अभी आसमान बहुत बड़ा है बहुत आगे जाना है। " उन्होंने आगे कहा।

17 साल की पीहू यादव का सपना सिविल सर्विसेज में जाना है, उसके सपनों को पंख तब लगा जब अनिल सर की क्लास में आना शुरू किया। अभी क्लास 12 में पढ़ाई कर रही पीहू गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "मैं पहले जहाँ पढ़ाई करती थी उससे ये स्कूल बहुत अलग है, वहाँ ज्यादा लोगों को कम्प्यूटर की जानकारी नहीं होती थी लेकिन यहाँ आने के बाद मुझे कंप्यूटर चलाना बहुत अच्छा लगता है। हम क्लास के बाद भी कभी भी सर से अपने डाउट दोबारा पूछ सकते हैं, मैं आगे सिविल सर्विसेज एग्जाम पास करना चाहती हूँ।"


इस समय स्कूल में 2400 लड़कियाँ पढ़ती हैं और टीचर की संख्या सिर्फ 14 है, जिसका असर पढ़ाई पर पड़ता है। ऐसे में अनिल सिंह ने इसका भी हल निकाल लिया है। वो कहते हैं, "हमने पास के कॉलेज में संपर्क किया, जहाँ पर बीएड की पढ़ाई कर रही लड़कियों को हमने यहाँ पढ़ाने का मौका दिया, इससे बीएड के बच्चों की ट्रेनिंग भी हो जाती है और हमारे यहाँ की लड़कियों की पढ़ाई भी। उन्हें हर महीने आठ हज़ार रुपए भी दिए जाते हैं।"

अनिल मानते हैं कि राष्ट्रीय पुरस्कार पाने में उनका अकेले का हाथ नहीं है, आसपास के लोगों ने काफी मदद की है। "मेरा ये मानना हैं, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता उसी तरह ये सब मैंने अकेले नहीं किया। इन सब में समय के साथ लोगों ने मदद की हैं। " अनिल ने कहा। साल 2019 में अनिल सिंह का प्रमोशन प्रिंसिपल के तौर पर हो गया।

मूल रूप से रोहतास जिले के रहने वाले अनिल सिंह आज जहाँ तक पहुँचे हैं उसमें उनकी बहन ने उनका बहुत साथ दिया है। अपनी पढ़ाई के बारे में कहते हैं, "आज मैं यहाँ हूँ, इसमें सबसे बड़ा हाथ मेरी बड़ी बहन का है, जब मैं अपनी पढ़ाई कर रहा था परिस्थितियाँ ठीक नहीं थी। 1999 में अपना ग्रेजुएशन करके गुजरात चला गया लेकिन वहाँ पर मेरा एक्सपीरिएंस अच्छा नहीं रहा। फिर मेरी बहन ने मुझे वापस बुला लिया और एक साल बाद मैंने फिर अपनी पढ़ाई शुरू किया, 2006 में मेरी नौकरी लग गयी। तब से मैं बच्चों के लिए काम कर रहा हूँ।"

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