बसपा और माया के लिए अस्तित्व की लड़ाई

Rishi MishraRishi Mishra   17 Oct 2016 5:29 PM GMT

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बसपा और माया के लिए अस्तित्व की लड़ाईप्रतीकात्मक फोटो

लखनऊ। बहुजन समाज पार्टी के लिए आगामी विधानसभा चुनाव अब तक की सबसे बड़ी चुनौती होगी। यहां तक कि बसपा सुप्रीमो मायावती और उनकी पार्टी के लिए इस बार अस्तित्व की लड़ाई है। 1984 में स्थापित हुई पार्टी का ग्राफ तमाम उपलब्धियों के बावजूद 2012 के बाद लगातार नीचे गिर रहा है।

2007 में बनाई थी पूर्ण बहुमत की सरकार

देश से लेकर उत्तर प्रदेश तक में उसको भारी विफलताओं का सामना करना पड़ रहा है। पहले दलित वोट बैंक के बल पर और भाजपा के समर्थन से तीन बार मुख्यमंत्री बनीं और उसके बाद में 2007 में सर्वणों के साथ सोशल इंजीनियरिंग के सहारे माया ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। मगर इसके बाद में बसपा का दांव लगातार फेल हुआ। 2012 के विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद बसपा को 2014 के लोकसभा चुनाव में भी भारी विफलता का सामना करना पड़ा था।

पहली बार बीएसपी को नहीं मिली कोई लोकसभा सीट

1984 से पहली बार बीएसपी को कोई भी लोकसभा सीट नहीं मिली। इसलिए इस बार बसपा को खुद साबित करने के लिए हर हाल में एड़ी चोटी का जोर लगाना ही पड़ेगा। इस बीच में उनके कई बड़े नेताओं के भाजपा से जुड़ने के बाद ये चुनौती कई गुना बड़ी हो गई है।

कांशीराम ने बहाई थी धारा

दलितों के लिए पहले राजनैतिक दल के तौर पर बामसेफ काम किया करता था। मगर इसी से एक धारा कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी के तौर पर साल 1984 में बहाई। इस पार्टी ने इसी साल हुए लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी उतारे और पंजाब में एक और उत्तर प्रदेश में तीन सीटें जीतीं। इसके बाद में बसपा लगातार आगे बढ़ती रही। कांशीराम की मृत्यु के बाद मायावती ने बसपा की कमान अपने हाथ में ली। तब 2009 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी को 21 लोकसभा सीटों से जनता ने नवाजा था। उसका वोट प्रतिशत लगभग 30 फीसदी रहा था। इसी तरह से उप्र विधानसभा की बात करें तब 1993 में 67 सीटें जीतने से बसपा का जो अभियान शुरू हुआ था वह साल 2007 में 206 सीटों के जरिये पूर्ण बहुमत की सरकार तक पहुंचा था। बसपा ने करीब 31 फीसदी वोट इस चुनाव में हासिल किये थे।

2012 से शुरू हुआ बुरा दौर

मगर 2012 में उम्मीद की साइकिल पर सवार अखिलेश यादव के सामने मायावती का हाथी पस्त हो गया। बसपा का वोट 6 फीसदी कम हुआ और 25 प्रतिशत पर ही ठिठक गया। 126 सीटों के नुकसान के साथ बसपा को केवल 80 सीटें ही मिलीं। बुरी हार हुई। इसके दो ही साल बाद बसपा को अपनी स्थापना के बाद से अब तक का सबसे बड़ा झटका लगा। लोकसभा के चुनाव में बीएसपी खाली हाथ रही। उसके उप्र सहित देश भर में करीब 400 प्रत्याशी हार गए थे।

मगर फिर से मजबूत दावेदार

बसपा सपा की आपसी फूट और सरकार की अलोकप्रियता को भुनाती हुई दिख रही है। अब तक आये हुए ओपेनियन पोल में बसपा लड़ाई में है। उसको शुरुआत में नंबर एक पर तो अब नंबर दो पर दिखाया जा रहा है। बसपा ने अब तक 100 से अधिक मुसलमानों को टिकट दिये। जबकि बड़ी संख्या में ब्राह्मणों को भी टिकट दिये हैं। ऐसे में मुसलमान, ब्राह्मण और दलितों के गठजोड़ के जरिये बसपा सत्ता नजदीक पहुंचने की कोशिश में लगी हुई है। 31 फीसदी दलित वोटों में अगर ब्राह्मण और मुसलमान मिल कर बसपा को वोट दे दें तो मायावती के एक बार फिर से मुख्यमंत्री बनने में कोई भी शक किसी को भी नहीं होगा।

बागी पैदा करेंगे मुश्किलें

स्वामी प्रसाद मौर्य, बृजेश पाठक, आरके चौधरी, अवधपाल जैसे बड़े नेता माया का साथ छोड़ चुके हैं। इनमें सबसे बड़ा नाम स्वामी प्रसाद और बृजेश पाठक का है। ऐसे में मायावती के लिए ये बागी काफी मुश्किलें पैदा करेंगे। मगर बसपा का इतिहास रहा है कि, वह कई बार टूटी, कई बड़े नाम से उससे अलग हुए, मगर बसपा ने हमेशा ही खुद को उबारा और वह उप्र की सियासत में हमेशा से अपनी मजबूत स्थिति बनाए रखी।

      

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