'मैं' के शिकार देश के तीन बड़े नेता

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मैं के शिकार देश के तीन बड़े नेतागाँव कनेक्शन

नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल के बारे में एक ही सिलसिले में बात करना आसान काम नहीं है। तीनों का व्यक्तित्व एकदूसरे से एकदम जुदा है। पर एक अस्वाभाविक और अहम छाप है जो तीनों में नजर आती है, ये तीनों खुद को तृतीय पुरुष में संबोधित करते हैं। 

वर्ष 2014 के चुनाव प्रचार अभियान और उसके बाद मोदी के भाषणों को दोबारा सुनिए, आप पाएंगे कि वह कई जगह कहते

हैं, यह मोदी नहीं करेगा या यह मोदी ही करेगा। केजरीवाल इस कला में प्रवीण हैं। दिल्ली चुनाव प्रचार में उनकी पसंदीदा पंक्ति थी, केवल 'केजरीवाल' ही दिल्ली को सुधार सकता है। वास्तव में मैंने पश्चिमी दिल्ली की एक गरीब अवैध कॉलोनी में अपने आईपैड पर उनकी दो मिनट की रिकॉर्डिंग भी की, जहां उन्होंने तीन बार खुद को केजरीवाल कहा। उन्होंने भाजपा के लोगों से कहा, वे जानते हैं कि उनके बच्चे भी भूखे पेट सो रहे हैं, उनको आप में शामिल हो जाना चाहिए क्योंकि केवल केजरीवाल ही उनकी समस्याएं सुलझा सकता है। राहुल को हमने पिछले ही सप्ताह देखा जब उन्होंने शकूरबस्ती में ढहाई गई झुग्गियों के बाशिंदों से कहा अगली बार अगर कोई झुग्गियां ढहाने आए तो वे तत्काल राहुल गांधी को फोन करें, वह झुग्गी को ढहाने नहीं देंगे।

यह गजब संयोग है। राष्ट्रीय राजनीति के तीन प्रमुख नेता खुद को तृतीय पुरुष में संबोधित कर रहे हैं, वह भी अत्यंत अहम अंदाज में। अतीत में कभी ऐसा देखने को नहीं मिला। इंदिरा, राजीव, वीपी सिंह, वाजपेयी, आडवाणी, सोनिया ये सभी जननेता हैं पर उन्होंने कभी इस शैली में बात नहीं की। न ही नेहरू या गांधी ने। वाजपेयी ने भी केवल तब इस शैली का प्रयोग किया था जब वह खुद की आलोचना करना चाहते थे। जिस समय कारगिल में लड़ाई छिड़ी हुई थी, उनके कार्यालय ने मुझे शाम तीन बजे का वक्त दिया था पर वह सोते रह गए और मुझे एक घंटे प्रतीक्षा करनी पड़ी। मैंने उनकी चुटकी लेनी चाही, करगिल में युद्ध छिड़ा हुआ है तो वह दिन में सो कैसे सकते हैं। उन्होंने मजाकिया अंदाज में कहा, हां, हां मुझे एक राइफल दो, अटलजी खुद जाएंगे मोर्चे पर। भारत में अब जवानों की कमी हो गई है। उन्होंने कभी गंभीर होकर यह बात नहीं कही। यह एक नया चलन है। क्या यह बढ़ते अहम का सूचक है और क्या यह हमारी मौजूद राजनीतिक स्थिति और संसदीय निष्क्रियता की वजह है, हमारे बड़े नेता एक-दूसरे से नहीं बल्कि एक-दूसरे के बारे में बात करते हैं।  

मुझे मानव मनोविज्ञान की जटिलताओं के बारे में पता है लेकिन यह बिंदु ऐसा नहीं है कि इसे बिना खंगाले जाने दिया जाए। शोध बताता है, खुद को तृतीय पुरुष में संबोधित करने को मनोविज्ञान की भाषा में 'इलिज्म' कहा जाता है। इतिहास में जूलियस सीजर से लेकर नेपोलियन बोनापार्ट, मार्गरेट थैचर और एक बार रिपब्लिकन पार्टी की ओर से अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रह चुके बॉब डोल (जिनका इसके लिए मजाक भी उड़ाया गया) तक सभी इससे ग्रस्त रहे। अपने कुश्तीवाले दिनों में दारा सिंह भी ऐसा करते थे। मशहूर चित्रकार साल्वाडोर डैली ने सीबीएस के लिए माइक वॉलेस को दिए एक साक्षात्कार में ऐसा किया था। ये सभी लोग प्रतिभाशाली और सफल लोग थे, जिन्होंने खूब ताकत और शोहरत कमाई पर इनमें से किसी को बहुत तार्किक, मध्यमार्गी, लचीला नहीं माना जाता। हमारी मौजूदा राष्ट्रीय राजनीति से भी ये तीनों तत्व गायब हैं। कई बार इसकी तुलना शाही परिवारों के प्रयोग करने वाले 'हम' से की गई है। 

कई विशेषज्ञों ने इस मनोदशा का विश्लेषण किया है। ऐसे ही एक व्यक्ति हैं बेंगलूरू के मनोविज्ञानी श्याम भट (दीपिका पादुकोण के चिकित्सक)। टाइम्स नाऊ के साथ अपने बहुचर्चित साक्षात्कार में राहुल गांधी ने एक बार दो लगातार वाक्यों में तीन बार खुद को राहुल गांधी कहकर संबोधित किया। भट लिखते हैं, एक मनोविज्ञानी के रूप में मैं इसे बहुत रोचक पाता हूं। खुद को तृतीय पुरुष के रूप में संबोधित करना एक खास मनोदशा की ओर संकेत करता है, यह खुद के साथ असहज होने का लक्षण है। स्वमोह के जख्मों का बचाव दरअसल एक झूठे और भव्यस्व के साथ किया जाता है, तब जबकि वास्तविक स्वभंगुर हो। बाकी की बात मैं मनोवैज्ञानिकों की बहस के लिए छोड़ता हूं। राजनीतिक रूप से प्रासंगिक प्रश्न यह है कि यह बात एक सार्वजनिक व्यक्त्वि को सदाशयता और नम्यता से रहित कर देती है जो संसदीय राजनीति के लिए आवश्यक है। इतने बड़े अहम वाले व्यक्ति से आप यह उम्मीद ही नहीं कर सकते कि वह अपनी गलती मानेगा। 

एनडीटीवी 'वाक द टाक' के लिए मुझे दिए एक साक्षात्कार (जून 2008) में लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि कांग्रेस के साथ एक समस्या यह है कि वह भाजपा को शत्रु समझती है। आज देश में तीन ऐसे नेता हैं जिनमें अहम का गुण है और जो अपने प्रतिद्वंद्वियों को कुछ नहीं समझते। मोदी को लगता है राहुल मूर्ख और बिगड़े हुए बच्चे हैं और केजरीवाल अराजक। राहुल, मोदी को एक हिंदूवादी मानते हैं जो गुजरात में बच निकले और उन्होंने वह राष्ट्रीय शक्ति हथिया ली जो उनके परिवार की विरासत है। केजरीवाल, मोदी और राहुल दोनों को चोरों के गिरोह का सरगना मानते हैं। 

नतीजा, हमारी राष्ट्रीय राजनीति छिन्न-भिन्न है। कानून तो तब भी बने जब नरसिंह राव बिना बहुमत के पांच साल तक शासन करते रहे और जब वीपी सिंह, देवेगौड़ा और गुजराल ने अल्पकालिक गठबंधन सरकार चलाई। परंतु आज जबकि एक दल को लोकसभा में पूर्ण बहुमत हासिल है तो हम कानून नहीं पारित कर पा रहे क्योंकि उस पार्टी के नेतृत्व का हृदय इतना उदार नहीं है कि वह यह स्वीकार कर सके कि उसे चाहे जितना बड़ा बहुमत मिला हो, लोकतंत्र में विपक्ष नामक एक संस्था होती ही है। यह सामंती मानसिकता है। भाजपा में यह उस समय परिलक्षित हुई जब उसने कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का पद तक नहीं दिया, भले ही उसके पास सांसदों की न्यूनतम संख्या नहीं थी। इसी तरह राहुल की कांग्रेस में इतना अहंकार है कि वह जनता द्वारा भाजपा को लोकसभा में दिए गए प्रचंड बहुमत का सम्मान नहीं कर रही है और विनम्रतापूर्वक यह स्वीकार नहीं कर रही है कि उसके पास लोकसभा में केवल 45 सांसद (पहले 44 थे, रतलाम-झाबुआ उपचुनाव में जीत के बाद 45) हैं। केजरीवाल सोशल मीडिया और टेलीविजन प्राइमटाइम के सहारे औरों के प्रति तिरस्कार की राजनीति कर रहे हैं। 

अगर पारंपरिक दौर होता तो मैं इस आलेख का समापन इस उम्मीद के साथ करता कि राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी जैसे कुछ बुद्घिमान व्यक्ति हस्तक्षेप कर चीजों को सही दिशा में लाने में मदद करेंगे लेकिन अब यह कठिन नजर आ रहा है क्योंकि राजनीति पर तीनों एक समान व्यक्तित्वों का दबदबा है। समापन के लिए मुझे यहां शानदार स्टैंडअप राजनीतिक व्यंग्य समूह ऐसी-तैसी डेमोक्रेसी के एक गीत की तेज़ाबी पंक्तियां याद आ रही हैं, ''इस देश के यारों लग गए हैं"... बेहतर होगा अगली पंक्ति के लिए आप गूगल की मदद लें।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं) 

 

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