बांस से बना एक अनोखा मेरापैड सैनिटरी नैपकिन- ग्रामीण महिलाओं के लिए पर्यावरण के अनुकूल एक स्वच्छ विकल्प

राजस्थान में कई ग्रामीण महिलाएं पर्यावरण के अनुकूल बांस से बने सैनिटरी नैपकिन की ओर रुख कर रही हैं. हर बार धोकर इस्तेमाल किए जाने वाले ये नैपकिन पांच साल तक चल सकते हैं. इन्हें जयपुर स्थित एक गैर-लाभकारी प्रवीण लता संस्थान द्वारा बनाया जा रहा है। एनजीओ ने महिलाओं को इन पैड्स की सिलाई और बिक्री का प्रशिक्षण भी दिया है।

Pradyuman Singh ShekhawatPradyuman Singh Shekhawat   16 Feb 2023 6:29 AM GMT

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बांस से बना एक अनोखा मेरापैड सैनिटरी नैपकिन- ग्रामीण महिलाओं के लिए पर्यावरण के अनुकूल एक स्वच्छ विकल्प

जयपुर स्थित गैर-लाभकारी प्रवीण लता संस्थान के प्रयासों के कारण राजस्थान में कई ग्रामीण महिलाएं बांस से बने MeraPad सैनिटरी नैपकिन की ओर रुख कर रही हैं।

जयपुर, राजस्थान। शबाना बानो अपने मासिक धर्म की शुरुआत से ही कपड़े का इस्तेमाल करती आ रही थीं। जब दो साल पहले उन्हें मेरापैड ऑफर किया गया, तो उनकी परेशानियां काफी कम हो गईं। सुरक्षित, आरामदायक और पर्यावरण के अनुकूल यह सैनिटरी नैपकिन बांस से बना है, जिसका 120 बार इस्तेमाल किया जा सकता है और यह लगभग चार से पांच साल तक चलता है। अब 19 साल की बानो मेरापैड की एक रेगुलर यूजर हैं।

जयपुर की रहने वाली बानो ने गाँव कनेक्शन से कहा, “मैं पिछले दो साल से मेरापैड का इस्तेमाल कर रही हूं। मैं उसके साथ बहुत सहज हूं। यह इस्तेमाल में सुविधाजनक भी है और किफायती भी।" दो पैड वाले एक पैक की कीमत 300 रुपये है, जबकि चार के पैक वाला मेरापैड 550 रुपये का पड़ता है। हर बार धोकर इस्तेमाल किया जाने वाला ये पैड पांच साल तक चल सकता है।

जयपुर स्थित गैर-लाभकारी प्रवीण लता संस्थान के प्रयासों के कारण राजस्थान में कई ग्रामीण महिलाएं बांस से बने MeraPad सैनिटरी नैपकिन की ओर रुख कर रही हैं। यह न सिर्फ पर्यावरण के अनुकूल है बल्कि जेब पर भी ज्यादा असर नहीं डालता है।

कोविड महामारी के दौरान एनजीओ ने ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली कई लड़कियों को सिलाई मशीन उपलब्ध कराई थीं।

गैर-लाभकारी संस्था की संस्थापक और अध्यक्ष भारती सिंह चौहान ने गाँव कनेक्शन को बताया, "हमने स्किन और पर्यावरण के अनुकूल एवं किफायती सैनिटरी पैड बनाने के लिए कपड़े को लेकर काफी शोध किया है।" वह आगे कहती हैं, “हम मासिक धर्म स्वच्छता पर जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं। अब तक मैं लगभग 13 लाख महिलाओं तक पहुंच चुकी हूं। उनसे बात कर रही हूं और उन्हें मासिक धर्म स्वच्छता के बारे में जागरूक कर रही हूं। मैं 2025 तक 25 लाख महिलाओं तक पहुंचना चाहती हूं।”

दिसंबर 2012 में हुए भयानक निर्भया हादसे के बाद भारती सिंह महिलाओं की शिक्षा, उत्थान और सशक्तिकरण के लिए कुछ करना चाहती थीं और मेरापैड बदलाव की उस पहल का ही एक हिस्सा है। उन्होंने 2013 में इस गैर-लाभकारी संस्था की शुरुआत की थी।

मेरापैड बांस चारकोल (पेटा वेगन द्वारा प्रमाणित और टीयूवी रीनलैंड के एंटी-बैक्टीरियल परीक्षण में सफल) से बना एक कपड़ा पैड है, जिसे आसानी से धोकर फिर से इस्तेमाल में लाया जाता है. चारकोल से बना कपड़ा प्राकृतिक रूप से बैक्टीरिया-प्रतिरोधी माना जाता है। चौहान ने बताया कि इसके लिए बांस का कोयला विदेशों से मंगाया जाता है, लेकिन उन्होंने इस बात का खुलासा नहीं किया कि यह किस देश से आता है।

चौहान ने कहा, “हमने बार-बार धोकर फाइबर का परीक्षण किया और पाया कि यह 120 धुलाई तक अपना आकार और गुणवत्ता बनाए रखता है. इसमें सोखने की क्षमता भी बनी रहती है. हमने कपड़े पर स्याही से दाग लगाकर टेस्ट किया था. यह आसानी से साफ हो गया था.”

रोजगार का जरिया

ग्रामीण महिलाओं के लिए मासिक धर्म को सुरक्षित और स्वस्थ अनुभव बनाने के अलावा मेरापैड आजीविका के अवसर भी मुहैया करा रहा है।

कोविड महामारी के दौरान एनजीओ ने ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली कई लड़कियों को सिलाई मशीन उपलब्ध कराई थीं। चौहान ने बताया, “उन्होंने घर बैठे मास्क और बैग के साथ-साथ पैड भी बनाए। इससे उन्हें कुछ पैसे कमाने का मौका मिला. ”

वह आगे बताती हैं, “कटिंग, सिलाई और पैकिंग से लेकर पैड बनाने तक का सारा काम महिलाएं ही करती हैं। एनजीओ में लगभग 225 महिलाएं काम कर रही हैं.”

बहुत सारे वोलियंटर्स ने भी इस गैर-लाभकारी संस्था के साथ काम किया है। उनके मुताबिक, 31 मार्च, 2022 तक 1,560 स्वयंसेवक एनजीओ से जुड़े थे, जिन्होंने मिलकर 45,000 घंटे से ज्यादा समय तक काम किया है। वह बताती हैं, "उन्होंने बिना किसी वेतन के काम किया. हमारे साथ इंटर्नशिप करने वालों को संगठन की तरफ से एक प्रमाण पत्र दिया गया है."

एनजीओ में काम कर रही महिलाएं एक दिन में लगभग 100-125 पैड बना सकती हैं। हर महिला को एक पैड बनाने के लिए 10 रुपये और बेचने के लिए 15 रुपये दिए जाते हैं। गैर-लाभकारी संस्था की संस्थापक ने कहा, इसलिए औसतन महिलाएं रोजाना 400 रुपये से 1,200 रुपये के बीच कमा लेती हैं.

जयपुर में रहने वाली शाइस्ता प्रवीन ने याद करते हुए कहा, “हमारा घर पूरी तरह से मेरे पति की उस कमाई पर निर्भर था जो उन्हें एक छोटी सी दुकान चलाने से होती थी। और जब महामारी आई तो दुकान को भी बंद करना पड़ा.”

एनजीओ में काम कर रही महिलाएं एक दिन में लगभग 100-125 पैड बना सकती हैं। हर महिला को एक पैड बनाने के लिए 10 रुपये और बेचने के लिए 15 रुपये दिए जाते हैं।

प्रवीन ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हम अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे थे. लेकिन जब मैं मेरापैड बनाने के उद्यम में शामिल हुई, तो मैंने कमाना शुरू कर दिया। इससे जुड़े लगभग तीन साल हो गए हैं। आज मैं हर महीने 12 हजार कमा लेती हूं और अपनी कमाई से पति का हाथ बंटा रही हूं." वह इन इको-फ्रेंडली पैड्स को बनाने के लिए दूसरी महिलाओं को भी ट्रेनिंग दे रही हैं।

नीदा ने दसवीं के बाद स्कूल छोड़ दिया और गैर-लाभकारी संगठन में शामिल हो गईं। वह पिछले तीन सालों से संस्थान के साथ जुड़ी हुई हैं। जयपुर में रहने वाली 20 साल की नीदा ने गाँव कनेक्शन को बताया, "मैं एक दिन में 200 पैड बनाकर हर महीने लगभग दस हजार रुपये कमा लेती हूं।" अब वह अपनी कमाई से पांच लोगों के परिवार को चलाने में मदद कर रही हैं।

चौहान ने कहा, “महामारी के दौरान हमने कपड़ा कारखानों की काफी शिद्दत से तलाश की थी ताकि उनके बचे हुए और उनके लिए बेकार हो चुके कपड़े से मास्क और पैड रखने के लिए पाउच बनाए जा सकें।” मेरापैड को राजस्थान राज्य सरकार की ओर से आयोजित जयपुर DigiFest 2022 में प्रदर्शित किया गया था। यहीं से उद्यम के बारे में लोगों को पता चला.

शुरुआत कैसे हुई

चौहान को इको-फ्रेंडली सैनेटरी पैड बनाने का विचार लाली, आमेर, रामगढ़, चोमू आदि ग्रामीण सरकारी स्कूलों के साथ काम करने के दौरान आया। वह कई स्कूल समितियों की सदस्य भी थीं। उन्होंने कहा, “मैंने देखा कि आठवीं क्लास के बाद लड़कियों की स्कूल ड्रॉपआउट दर बढ़ रही है.”

जब चौहान ने कई छात्राओं से पूछा कि वे पढ़ाई क्यों छोड़ रही हैं, तो उन्हें पता चला कि इसका एक मुख्य कारण मेन्सट्रुएशन है।

चौहान ने समझाते हुए कहा, “लड़कियां अपने मासिक धर्म के दिनों में स्कूल जाने में असहज महसूस करती हैं। इसके साथ मासिक धर्म से जुड़ी बहुत सी निराधार मान्यताएं भी थीं। उन दिनों लड़कियों को 'अशुद्ध' या 'गंदा' समझा जाता है। ग्रामीणों का मानना है कि अगर लड़की को पहली बार मासिक धर्म अपने माता-पिता के घर पर हुआ है, तो उसका दूसरा मासिक धर्म उसके ससुराल में होना चाहिए। मतलब उसकी तुरंत शादी कर दी जानी चाहिए।”

मेंस्ट्रुएशन को लेकर मिथकों और गलत धारणाओं को दूर करने में समय लगेगा, लेकिन चौहान ने महसूस किया कि लड़कियों को इस दौरान कम से कम सहज महसूस कराने का प्रयास तो किया ही जा सकता है।

2017 में राजस्थान राज्य सरकार ने सरकारी स्कूलों को मुफ्त सैनिटरी पैड वितरित करना शुरू किया। लेकिन जिन लोगों से सैनिटरी पैड के इस्तेमाल की उम्मीद की जा रही थी, उनकी ओर से कुछ विरोध भी सामने आया. उन्होंने कपड़े का इस्तेमाल करना पसंद किया क्योंकि यह उनके लिए अधिक आसानी से उपलब्ध था। मुफ्त सैनिटरी पैड का निपटान करना एक समस्या थी।

हाल ही में दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी टॉक्सिक्स लिंक ने मैंल्सट्रुअल वेस्ट 2022 नामक एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में बनने वाले डिस्पोजेबल सैनिटरी नैपकिन में काफी रसायन (फाथलेट्स और अन्य वाष्पशील कार्बनिक यौगिक) पाए गए हैं, जिनमें से कुछ कार्सिनोजेनिक हैं और प्रजनन स्वास्थ्य को प्रभावित करने और अन्य बीमारियों का कारण बनने की क्षमता रखते हैं।


नॉन -बायोडिग्रेडेबल डिस्पोजल सेनेटरी पैड वैसे भी पर्यावरण के लिए नुकसानदायक है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की 2022 में प्रकाशित सेनेटरी वेस्ट मैनेजमेंट: चैलेंजेज एंड एजेंडा शीर्षक वाली एक रिपोर्ट से पता चला है कि सैनिटरी पैड और डायपर से हर दिन 925 टन कचरा पैदा होता है। एक वर्ष में यह लगभग 337,000 टन कचरे की मात्रा है। अकेले जयपुर जिले में सितंबर 2022 तक, राजस्थान सरकार ने अपनी उड़ान योजना के जरिए 22,835,744 डिस्पोजेबल सैनिटरी नैपकिन वितरित किए हैं।

नियमित कपड़े का उपयोग करना भी सेहत के लिहाज से ठीक नहीं रहा है। कई बार कपड़े को ठीक से न धोने से बैक्टीरियल इंफेक्शन हो जाता है। इसके अलावा, पहले जहां सूती कपड़े का इस्तेमाल किया जाता था, अब महिलाएं मिक्स धागे से बने कपड़े का इस्तेमाल करने लगी हैं, जो त्वचा के लिए ठीक नहीं है।

इसके अलावा कपड़े के इस्तेमाल के साथ एक और समस्या है. एक बार कपड़े धोने के बाद महिलाओं को उन्हें खुली धूप में सुखाने में शर्मिंदगी महसूस होती है, क्योंकि खून के धब्बे कभी भी पूरी तरह से नहीं जाते। कपड़ा सीलन भरे अंधेरे कमरे में लटका रहता है, जो हानिकारक बैक्टीरिया के लिए प्रजनन का आधार बन जाता है।

इन सब को देखते हुए चौहान ने महिलाओं के लिए एक बेहतर स्वस्थ विकल्प खोजना शुरू कर दिया और इसका जवाब मेरापैड के रूप में उनके सामने आया।

चौहान ने याद करते हुए बताया, “एक तरह से महामारी हमारे लिए अच्छी साबित हुई. क्योंकि सभी कुछ बंद था। महिलाओं को सैनिटरी पैड नहीं मिल पा रहा था। हम ऑनलाइन गए और लोगों को मेरापैड के बारे में पता चला। हमें तब काफी ऑर्डर मिले थे।”

चौहान ने गर्व के साथ कहा, “हमने गिव इंडिया और डोनेट कार्ट जैसे पोर्टल्स के जरिए हजारों पैड वितरित किए। जब महिलाओं ने उनका इस्तेमाल किया, तो उन्होंने दूसरो को भी इसे इस्तेमाल करने की सलाह दी. 31 मार्च, 2022 तक 1,96,931 महिलाओं ने हमारे पैड का इस्तेमाल किया था।”

तितलम प्रोजेक्ट

मेरा पैड की मार्केटिंग तितलम प्रोजेक्ट के तहत की जा रही है। चौहान ने समझाया, "तितलम का अर्थ है एक ऐसा व्यक्ति जो अपना भाग्य खुद बना सकता है।" मेरा पैड www.merapad.org पर ऑनलाइन भी उपलब्ध है।

तितलम योजना राजस्थान के पांच गांवों में चल रही है। चौहान को उम्मीद है कि 2024-25 तक यह योजना 50 गाँवों तक पहुंच जाएगी। पैड बनाने के अलावा, इस योजना में पशु प्रजनन, जैविक खेती, हस्तनिर्मित उत्पाद बनाने आदि का प्रशिक्षण भी शामिल है। प्रत्येक कार्यक्रम में प्रत्येक गांव में एक महिला को प्रशिक्षित किया जाएगा। चौहान ने कहा, "यह वो महिलाएं होंगी जो अन्य महिलाओं के बीच शिक्षा, कौशल और जागरूकता का प्रसार करेंगी।"

गैर-लाभकारी प्रवीण लता संस्थान के मुताबिक 31 मार्च, 2022 तक मेरापैड के इस्तेमाल से 1,785 टन सैनिटरी पैड प्लास्टिक को लैंडफिल तक पहुंचने से बचाया गया है।

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