घानी तकनीक से दूर होगा खाद्य तेल का संकट

खाने के तेल के मामले में देश के आत्मनिर्भर होने का इतिहास बेहद पुराना है; लेकिन आज हालात अलग है। भारत अपनी ज़रूरत का अधिकांश खाद्य तेल आयात करता है यानी देश में इसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय कीमतों से जुड़ी हैं। ऐसे में जानकार अब अपनी व्यक्तिगत खपत के लिए घानी तेल पर वापस जाने की सलाह दे रहे हैं।

Dr Mannoj MurarkaDr Mannoj Murarka   23 Nov 2023 7:50 AM GMT

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घानी तकनीक से दूर होगा खाद्य तेल का संकट

खाने के तेलों का इतिहास करीब साढ़े तीन हज़ार साल से भी ज़्यादा पुराना। कहा जाता है कि तिल के बीज का इंसानों ने काफी पहले से इस्तेमाल शुरू कर दिया था। हालाँकि इसके उपयोग के तरीके के बारे में अबतक कुछ साफ़ नहीं है; फिर भी संभव है कि इसे क्रश करके तेल बना दिया गया हो। इसके बाद तो तिलों को पीसने या कुचलने के साफ़ प्रमाण हैं।

इतिहासकार बताते हैं कि 1930 के दशक के अंत में हड़प्पा में खुदाई में तिलों के ढेर और जले हुए तिल मिले थे। इन्हें 3050-3500 ईसा पूर्व का बताया जा रहा है। यह खाद्य तेल उत्पादन के शुरुआती उदाहरणों में से एक माना जा रहा है।

इतिहासकार केटी आचार्य का कहना है कि वैदिक काल से तिल का बीज तिला था और तिल का तेल तैला था, जबकि तिलका का मतलब तिला से था। बाद में इन तीन शब्दों को एक आयल प्रेस को डिनोट करने के लिए जोड़ा गया, जिसमें तीन शब्द पेशर्ण (पीसने के लिए), यंत्र (मशीन) और चक्र (पहिया) शामिल थे।

अब बात करते हैं आज़ाद भारत की। 1970 के दशक की शुरुआत तक भी भारत खाद्य तेलों में लगभग 95 फीसदी आत्मनिर्भर था। खपत किए जाने वाले तेल के प्रकार अभी भी स्थानीय उत्पादन से जुड़े हुए थे, जैसे तटों पर नारियल का तेल, उत्तर और पूर्वी भारत में सरसों का तेल, पश्चिम और दक्षिण भारत में मूंगफली, कुसुम और तिल का तेल।

इससे पहले 1960 के दशक में फसल खराब होने से खाद्य तेल उत्पादन पर असर पड़ा, लेकिन असली समस्या उनकी प्रतिक्रिया में आई।


चावल और गेहूँ के उत्पादन में विफलता नई, लचीली और उच्च उत्पादक फसल किस्मों की ब्रीडिंग की ओर ले गई, जिसे हरित क्रांति कहा गया। हालाँकि तिलहन और दलहन के मामले में यह विकास नहीं हुआ। कीमतें बढ़ने से सरकार को पाम तेल के आयात की अनुमति देनी पड़ी, प्रमुख रूप से वनस्पति बनाने के लिए। आर्थिक विकास के साथ आहारों में अधिक विविधता आने से आयात को और बढ़ावा मिला।

साल 1980 में केंद्र सरकार ने तिलहन उत्पादन बढ़ाने की कोशिश की। डॉ. वर्गीज कुरियन को इसके लिए साथ लाया गया। उस वक्त हाइड्रोजनीकरण से जुड़े स्वास्थ्य मुद्दों के कारण लिक्विड तेल एक बड़ी कैटेगरी बन गया था। वहीं सैम पित्रोदा को तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन का प्रभारी बनाया गया, जिसने तिलहन की खेती के तहत रकबे को बढ़ावा दिया। सूरजमुखी और कैनोला जैसे खाद्य तेल के नए स्रोतों को विकसित करने का प्रयास किया गया।

यहाँ तक कि भारत के पारम्परिक विकल्पों की भी जाँच की गई जैसे कि साल, कोकम और आम की गिरी के बीज जैसे ट्री-बेस्ड वसा स्रोतों का इस्तेमाल। ये मुख्यधारा के खाद्य तेलों की जगह ले सकते थे, जिनका इस्तेमाल साबुन जैसे उत्पादों में किया जा रहा था। उस वक्त लोग न केवल सीधे तौर पर अधिक तेल का सेवन कर रहे थे, बल्कि बिस्किट, इंस्टेंट नूडल्स और कुरकुरे डीप फ्राइड स्नैक्स जैसे उत्पादों के रूप में भी तेल को शरीर में बड़ी मात्रा में ले जा रहे थे।

इसके बाद खाद्य तेल में भारत की आत्मनिर्भरता बढ़ गई, लेकिन 1990 के दशक में दो घटनाओं ने हालात बदल दिए। एक था भारत द्वारा विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) समझौते पर हस्ताक्षर, जिसने भारतीय उत्पादों की सुरक्षा के लिए सरकार के दायरे को कम कर दिया। सरकार को आयात के रास्ते खोलने के लिए चावल, गेहूँ, चीनी और तिलहन में से चुनाव करना था।

चावल, गेहूँ और चीनी उपभोक्ताओं के लिए अधिक भावनात्मक और किसानों के लिए महत्वपूर्ण थे। लिहाजा सरकार ने इन्हें छोड़कर तिलहन का आयात खोल दिया। दूसरी घटना थी 1998 में सरसों के तेल के दूषित होने से जुड़ी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का प्रकोप। इसके कारण स्पष्ट नहीं हो पाए, पर इसने बड़ी कंपनियों द्वारा बेचे जा रहे नए और आम तौर पर आयातित प्रकार के तेलों सोयाबीन और पाम तेल को बेहद फायदा पहुँचाया। इसकी वजह थी कि इन्हें स्वास्थ्य के लिए अच्छे होने के दावों के साथ बेचा गया।


अब बात करते हैं खपत की। साल 2021-22 में भारत में खाने वाले तेल की खपत 2.58 करोड़ टन रही, जो एक दशक पहले के मुकाबले 60 लाख टन अधिक है। 2022 से 2023 के बीच इंटरनेशनल लेवल पर क्रूड एडिबल ऑयल की कीमत में भारी गिरावट आई। हालाँकि इस अनुपात में देश में खाने के तेल की कीमत में कमी नहीं आई। मई, 2022 से जुलाई, 2023 के बीच क्रूड पाम ऑयल और आरबीडी (रिफाइंड) पामोलीन की कीमत में इंटरनेशनल लेवल पर 45 फीसदी गिरावट आई। इस दौरान भारत में वनस्पति की कीमत में 21 फीसदी और पाम ऑयल की कीमत में 29 फीसदी गिरावट रही।

सोयाबीन और सूरजमुखी के तेल का भी यही हाल रहा। गौरतलब है कि 2008 में भारत से खाद्य तेलों के एक्सपोर्ट पर बैन लगा दिया गया था, लेकिन 2018 से खाद्य तेलों के एक्सपोर्ट की अनुमति दी गई। हालाँकि सरसों के तेल के एक्सपोर्ट पर सीलिंग लगाई गई है। इसे पाँच किलो के पैक में मिनिमम एक्सपोर्ट प्राईस पर निर्यात किया जा सकता है। बढ़ती कीमत के कारण एक्सपोर्ट के लिए कम ही गुंजाइश है। 2022-23 में एक्सपोर्ट घरेलू उपलब्धता का एक फीसदी भी नहीं पहुँच पाया।

भारत मुख्य रूप से इंडोनेशिया, मलेशिया और थाईलैंड से पाम ऑयल आयात करता है, जबकि सोयाबीन और सूरजमुखी तेल का आयात अर्जेंटीना, ब्राजील, रूस और यूक्रेन से करता है।

हाल ही में व्यापार संगठन सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एसईए) ने कहा कि खाद्य तेल का घरेलू आयात एक अक्टूबर को बढ़कर 36 लाख टन हो गया, जो एक साल पहले 26 लाख टन था। वहीं सोया तेल का आयात अक्टूबर महीने में एक माह पहले की तुलना में 63 प्रतिशत गिरकर 1,34,000 टन हो गया है। डीलरों का अनुमान है कि यह जनवरी, 2021 के बाद आयात का निचला स्तर है।

सूरजमुखी के तेल का आयात 47 प्रतिशत गिरकर 1,50,000 टन रह गया है, जो सात महीने का निचला स्तर है। गर्मी में बोई गई तिलहन फसलों की आवक बाजार में होने लगी है, जिसके कारण खाद्य तेल के आयात की ज़रूरत घटी है। 31 अक्टूबर को ख़त्म हुए 2022-23 विपणन वर्ष में भारत के खाद्य तेल का आयात एक साल पहले की तुलना में 17 प्रतिशत बढ़कर रिकॉर्ड 165 लाख टन हो गया। डीलरों ने कहा कि नवंबर से जनवरी और जुलाई से सितंबर के दौरान खरीद बढ़ने से ऐसा हुआ है।

असल में खाद्य तेल की कीमतों के मौजूदा संकट की भविष्यवाणी वर्षों से की जा रही है और सरकार आत्मनिर्भरता की ओर लौटने के बारे में कितनी गंभीर है, इस बारे में संशय बना हुआ है। खासकर जब पूर्वोत्तर में पाम तेल उत्पादन जैसे साधनों को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसके साथ पर्यावरण से जुड़ी समस्याएँ हैं। इसके बावजूद भी उपभोक्ताओं की भूमिका मायने रखती है। हमें केवल लागत और स्वास्थ्य दावों के नज़रिए से खाद्य तेल पर विचार करना बंद करना चाहिए।

हमें अपनी व्यक्तिगत खपत के लिए घानी तेल पर वापस जाना होगा। इसकी उच्च लागत अधिक उत्पादन को प्रोत्साहित कर सकती है, साथ ही इसे और अधिक सावधानी से उपयोग करने के लिए राजी भी कर सकती है। हमें अपने लंबे इतिहास, बेहतर स्वाद और पारंपरिक उपयोगों के साथ घानी उत्पादित तेल की महत्ता समझनी होगी। हमारी पुरातन तकनीक हमें खाद्य तेल संकट से बाहर निकलने का रास्ता दिखा सकती है। ज़रूरत उस रास्ते को समझने और उस पर चलने की है। इसके लिए हमें अपनी प्रतिबद्धता को मजबूती से दोहराना होगा।

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