इस पेड़ से हाथ पर पत्ता गिरना हजारों साल बाद भी खास क्यों है?

महाबोधि मंदिर बौद्धों के चार प्रमुख तीर्थ स्थलों में सबसे प्रमुख है। तीन अन्य स्थलों में लुंबिनी, सारनाथ और कुशीनगर हैं। लुंबिनी में भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था, सारनाथ, में उन्होंने अपना पहला उपदेश दिया था और कुशीनगर वह स्थान है, जहां उन्होंने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था।

Santosh OjhaSantosh Ojha   2 May 2023 8:57 AM GMT

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इस पेड़ से हाथ पर पत्ता गिरना हजारों साल बाद भी खास क्यों है?

महाबोधि मंदिर बौद्धों के चार प्रमुख तीर्थ स्थलों में सबसे प्रमुख है। तीन अन्य स्थलों में लुंबिनी, सारनाथ और कुशीनगर हैं। सभी फोटो: संतोष ओझा

बोधगया, बिहार। मैं अपनी सांसों को थामे एक बेंच पर बैठ गया। यह तपती दोपहर थी और गला सूख रहा था। मैंने अपनी बोतल से पानी के दो घूंट पीए। तभी अचानक पेड़ के ऊपर से कुछ पत्तियां मेरे करीब आकर गिरीं। मैंने शिथिल भाव से उन्हें उठाया और ध्यान से देखने लगा। दोनों सूखे और मुरझाए हुए पत्ते थे। उनमें से एक पर ओस की एक बूंद लंबे आंसू की तरह लग रही थी। फिर मुझे पता चला कि ये कोई साधारण पत्ते नहीं हैं। जिस पेड़ से वे गिरे थे, वह दुनिया में सबसे अधिक पूजनीय ‘बोधि वृक्ष’ है।

मैं महाबोधि मंदिर परिसर में हूं, उस स्थान के ठीक बगल में जहां बुद्ध ने ध्यान लगाते हुए ज्ञान प्राप्त किया था। ध्यान करते हुए उनकी प्रतिमा पास ही में थी। लोगों को अभी भी नहीं पता कि वास्तव में वह ज्ञान क्या था। जब मैं बैठा तो मुझे अपनी बायीं ओर वृक्ष और उसके ठीक पीछे विशाल, महाबोधि मंदिर दिखाई दे रहा था।

जैसा कि मैं सोच ही रहा था, एक बौद्ध भिक्षु मेरे पास आया।

उन्होंने कहा, "आप भाग्यशाली व्यक्ति हैं। पवित्र पत्तों को पास आकर गिरना अच्छा माना जाता है।"

मुझे नहीं पता कैसे प्रतिक्रिया दूं, मैं बस सिर हिला देता हूं।

"आप अपनी हथेलियों के बीच पत्तियों को रखकर नमन की मुद्रा में क्यों नहीं बैठ जाते हो?"

जब उन्होंने मुझे ऐसा करने के लिए कहा तो मैं अपनी नासमझी पर थोड़ा असहज हो गया।

"मेरे बाद दोहराएं, "उन्होंने कुछ बौद्ध मंत्रों का पाठ किया।

पारखी नजर वाले भिक्षु ने मेरे चेहरे पर आई बोरियत को भांप लिया और जल्दी से मुद्दे पर पहुंच गए।

उन्होंने मुझसे कहा, "मैं एक अनाथालय के लिए फंड इकट्ठा कर रहा हूं, मुझे उम्मीद है कि आप थोड़ा सा योगदान करने में बुरा नहीं मानेंगे।"

मैंने एक बीस रुपये का नोट निकाला, जिसे उन्होंने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। वह मुझे बहुत सा आशीर्वाद देते हुए आगे की तरफ बढ़ गए। उनसे छुटकारा पाने और बोधि वृक्ष के नीचे ‘ध्यान’ लगाने के लिए मुझे एक छोटी सी कीमत चुकानी पड़ी थी।

प्रसिद्ध मौर्य राजवंश सम्राट महान अशोक कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार को देखने के बाद बौद्ध बन गए। उन्होंने उस जगह पर एक मंदिर का निर्माण किया जहां बुद्ध ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में ज्ञान प्राप्त किया था। देखरेख के अभाव में यह बौद्ध मंदिर सदियों तक क्षतिग्रस्त रहा था। छठीं शताब्दी ईस्वी में मगध के गुप्त वंश के राजाओं ने मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया।

वर्तमान संरचना वह है जो गुप्तों ने बनाई थी। हालांकि पिछले सौ सालों में मंदिर का बड़े पैमाने पर जीर्णोद्धार किया गया है। अशोक युग से जो वस्तु यहां अभी भी मौजूद है वह वज्रासन है। मंदिर से जुड़े एक ऊंचे स्थान पर, बोधि वृक्ष के नीचे रखा गया पत्थर। यह ठीक उसी स्थान को चिन्हित करता है जहां बुद्ध ने बैठकर ध्यान किया था।

यहां से थोड़ा पीछे जाकर इतिहास को जान लेते हैं। कपिलवस्तु के शाक्य वंश में एक राजकुमार के रूप में पैदा हुए बुद्ध को उनके पिता ने हर दुख दर्द से बचाकर रखा था। जब बुद्ध एक दिन अपने सारथी के साथ महल से सैर पर निकले, तो एक के बाद एक उनकी नज़र चार जगह गई। झुकी हुई कमर वाला एक बुजुर्ग, एक बीमार व्यक्ति, एक मृत शरीर और एक सन्यासी को उन्होंने देखा। बुद्ध ये देखने के बाद से परेशान थे। जाहिर तौर पर उनके लिए यह सब पहली बार था। वह मानव के दुख की वजह तलाशने लगे। एक रात वह चुपचाप अपनी पत्नी और नवजात बेटे को छोड़कर अपने मन में उठे सवालों की तलाश में भटकते हुए दूर निकल गए।

वह रास्ते में कई तपस्वियों से मिले, ध्यान लगाया और खुद को अनकही पीड़ाओं के अधीन कर दिया। लेकिन जवाब अभी भी मायावी था। उन्होंने कपिलवस्तु (अब नेपाल में) से राजगीर की यात्रा की। कपिलवस्तु उनके पिता का राज्य था।

राजगीर में एक पहाड़ी के ऊपर डुंगेश्वरी गुफा में ध्यान करते हुए उन्होंने लगभग छह साल तक खुद को भूखा रखा। तब गाँव की एक महिला ने उन्हें खाने के लिए खीर दी और कहा कि वह खुद पर इतने कठोर न हो। खीर खाने के बाद शरीर को शक्ति मिली तो वह बोध गया चले गए और एक पीपल के वृक्ष के नीचे अपना स्थान ग्रहण किया। अब वो बोधि वृक्ष नाम से जाना जाता है।

महाबोधि मंदिर बौद्धों के चार प्रमुख तीर्थ स्थलों में सबसे प्रमुख है। तीन अन्य स्थलों में लुंबिनी, सारनाथ और कुशीनगर हैं। लुंबिनी में उनका जन्म हुआ था। सारनाथ में उन्होंने अपना पहला उपदेश दिया था और कुशीनगर वह स्थान है, जहां उन्होंने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था। दुनिया भर से बौद्ध धर्म को मानने वाले उनके अनुयायी उनके प्रति अपना सम्मान दिखाने और बुद्ध की पूजा करने के लिए इस मंदिर में आते हैं।

मैं वहां थाईलैंड, कोरिया, जापान और कुछ अन्य देशों के भक्तों की एक छोटी कतार में खड़ा था, जो मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करने के लिए धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे।

मुझे कहना होगा कि अंदर का वातावरण बहुत शांत और सुखदायक था। बुद्ध की प्रतिमा के सामने एक भिक्षु बिना किसी जल्दबाजी के चारों तरफ घूम रहे थे। मैं बुद्ध को नमन करते हुए आगे की ओर बढ़ने लगता हूं। तभी वहीं वेदिका के एक तरफ पीने की पानी की बोतलों के ढेर पर मेरी नजर जाती है। ‘मुझे प्यास लगी है’ यह कहते हुए मैंने भिक्षु से एक बोतल के लिए अनुरोध किया। उन्होंने खुशी-खुशी मुझे पानी की एक बोतल पकड़ा दी।

मैंने देखा कि बुद्ध की मूर्ति के दूसरी ओर काफी सारे फल रखे हैं, जिन्हें भक्त चढ़ा रहे थे। पानी की बोतल मिलने के बाद मैंने उत्साह में भिक्षु से कुछ फल भी मांग लिए। जल्द ही, मेरे हाथों में एक पका हुआ आम था! मैंने सोचा ‘क्या मैं मुफ्तखोरी कर रहा हूं’ और खुद को अपराधी महसूस करने लगा। मैं बुद्ध के लिए कोई फल नहीं लाया था।

बुद्ध ने बोधि वृक्ष के आसपास के इलाके में कई सप्ताह बिताए। कुछ लोगों का विश्वास है कि उन्होंने यहां सात सप्ताह बिताए थे। पहला सप्ताह बोधि वृक्ष के नीचे और अगले छह सप्ताह उन्होंने विभिन्न स्थानों पर बिताए। मैं उस क्षेत्र से विशेष रूप से प्रभावित था । मुख्य मंदिर के उत्तर में जहां उन्होंने अपना तीसरा सप्ताह बिताया था। वह अपने कदमों को एक जगह से दूसरी जगह रखते हुए आगे बढ़े थे। उनके कदमों के निशान नक्काशीदार पत्थर के कमल अंकित हैं। भक्त अपने प्रसाद को वहां रख, श्रद्धापूर्वक उस पथ के आसपास चल रहे हैं, जहां कभी बुद्ध चले थे।

यहां एक के बाद एक कई स्तूप बने हैं, जिनकी अपनी मान्यता है। भक्त अपनी इच्छाएं पूरी होने के बाद बुद्ध को वहां भेंट चढ़ा रहे थे। मेरे लिए एक चौंकाने वाली खोज मंदिर परिसर में हिंदू तपस्वियों की समाधियां थीं।

कहानी यह है कि सोलहवीं शताब्दी के अंत में, एक शिव-पूजक साधु घमांडा गिरि जीर्ण-शीर्ण स्थल पर गए और वहां डेरा डाल लिया। उन्होंने वहां एक मठ की स्थापना की और साधु के बाद की पीढ़ियों ने इस परंपरा को जारी रखा। वे बुद्ध को हिंदू देवता के अवतार के रूप में पूजते थे। जिन साधुओं का निधन हो गया वहां उनके मंदिर के पास एक शिवलिंग के साथ उनकी समाधि बना दी गई। हिंदू साधुओं को दफनाया जाता है और कई हिंदू परंपराओं में उनका अंतिम संस्कार नहीं किया जाता।

19वीं शताब्दी के अंत में एक श्रीलंकाई बौद्ध भिक्षु ने मंदिर का दौरा किया। उस समय भारत में ब्रिटिश सरकार सदियों की उपेक्षा के बाद इसे बहाल कर रही थी। श्रीलंका के भिक्षु यह देख कर चकित थे कि हिंदू तपस्वियों ने मंदिर पर अपना कब्जा जमाया हुआ था। यहां तक कि बुद्ध को वो एक हिंदू भगवान ‘विष्णु के अवतार’ के रूप में पूज रहे थे।

उन्होंने मंदिर पर बौद्धों के नियंत्रण और अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी। यह मामला दशकों तक चलता रहा और फिर आखिर में एक फार्मूला तैयार किया गया। इसमें बौद्धों और हिंदुओं, दोनों को प्रबंधन समिति में शामिल कर लिया गया। यह अब बिहार सरकार द्वारा नियुक्त एक मंदिर प्रबंधन समिति के नियंत्रण में है।

मंदिर 2002 में यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल बन गया। 2013 में थाईलैंड के राजा ‘राजा भूमिबोल अदुल्यादेज’ (जिन्हें रामा IX भी कहा जाता है) ने मंदिर को 289 किलोग्राम सोना दान किया। इस सोने से मन्दिर के ऊपरी भाग पर एक परत चढ़ाई गई है।

धूप और तेज होती जा रही थी और मैं बैठने के लिए छायादार जगह ढूंढ़ने लगता हूं। मैंने दो भिक्षुओं को मंदिर परिसर में एक दूर कोने में बैठे हुए, बौद्ध मंत्रों का जाप करते हुए देखा। मैं पास ही पार्क के एक बेंच पर आकर बैठ जाता हूं। आराम से पानी की बोतल से पानी के दो घूंट पिए और भिक्षुओं के मधुर मंत्रों की आवाज में कुछ देर के लिए सो गया। अपने सपनों में, मैं खुद को बेहद ताकतवर महसूस कर रहा था। और ठीक उसी समय बुद्ध के सान्निध्य में मुझे बेहद शांति का भी अनुभव हो रहा था!

संतोष ओझा ने वरिष्ठ कॉर्पोरेट भूमिकाओं में 28 साल काम किया है। उन्होंने यात्रा और यात्रा लेखन के अपने दोहरे जुनून को पूरा करने के लिए समय से पहले रिटायरमेंट ले लिया था। वह बेंगलुरु, कर्नाटक के रहने वाले है।

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