आख़िर क्यों युवा नहीं करना चाहते बैंक की नौकरी?

Arvind ShukklaArvind Shukkla   3 April 2017 8:36 PM GMT

आख़िर क्यों युवा नहीं करना चाहते बैंक की नौकरी?बैंक की नौकरी छोड़ दूसरे क्षेत्रों में जा रहे युवा। फोटो प्रतीकात्मक।

लखनऊ। पिछले दिनों कई बैंकों का अधिग्रहण कर भारतीय स्टेट बैंक दुनिया की 50 बड़ी बैंकों में शामिल हो गई। ये भारतीयों के लिए गर्व की बात है, लेकिन इसी बैक से जो दूसरी ख़बर आ रही है वो चौंकाने वाली है। एसबीआई की पांच सहयोगी बैंकों के 2800 कर्मचारियों ने वीआरआएस के लिए आवेदन किया है जबकि सैकड़ों लाइन में हैं।

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स्टेट बैंक की चेयरमैन अरुंधति भट्टाचार्य का कहना है कि यह इन सभी बैंकों में 12 हज़ार से ज्यादा कर्मचारी ऐसे हैं जो वीआरएस ले सकते हैं। ये सभी सहयोगी बैंक 1 अप्रैल से स्टेट बैंक में मर्ज हो चुके हैं, इससे पहले गांव कनेक्शन ने कई बैंक कर्मचारियों से बात की थी, जिसमें पता चला था कि युवाओं का बैंकों की तरफ से रुझान कम हो रहा है।

सुल्तानपुर जिले में एक ग्रामीण बैंक में कैशियर मुन्ना सिंह इन दिनों दूसरी नौकरी तलाश रहे हैं। मुन्ना बताते हैं, “दो बार एसएससी (कर्मचारी चयन आयोग) दिया है, इस बार वहां कुछ नहीं भी हुआ तो फील्ड बदल दूंगा।”

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ग्रामीण बैंकों में तैनात युवा मुन्ना की ही तरह ही बैंकिंग की नौकरी से निकलने का विकल्प तलाश रहे हैं। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय बैंकों की उत्तर प्रदेश में 17,800 शाखाएं हैं, इनमें से सात क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की 3,978 शाखाएं हैं। इन सभी बैंकों की हालत खराब है क्योंकि युवा इन बैंकों में नौकरी करने नहीं आ रहे, आ भी रहे हैं तो कुछ समय में नौकरी छोड़ देते हैं।

यूपी की बड़ी क्षेत्रीय बैंक ‘ग्रामीण बैंक ऑफ आर्यवर्त’ के सीनियर अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “स्टॉफ कम है, जो युवा आते भी हैं वो बड़ी बैंक या दूसरी नौकरी मिलने पर छोड़ जाते हैं। क्योंकि बैंकों में सैलरी कम और काम का दबाव ज्यादा है। राष्ट्रीयकृत बैंकों में भी कैशियर को 20 हजार की सैलरी मिलती है जबकि इसी ग्रेड में शिक्षक को 30 और केंद्र के दूसरे विभाग में सैलरी 30 से 45 हजार तक है। इसलिए हमारे यहां 28 फीसदी युवा ज्वाइन करने के बाद नौकरी छोड़ देते हैं।” स्थिति इतनी विकट हो गई है कि अब कुछ बैंक युवाओं से नियत समय का खास बांड तक भरवाने लगे हैं।

वर्ष 2008-09 में मंदी के दौरान आईटी सेक्टर के बहुत से युवा बैंक के क्षेत्र में आ गए थे। लेकिन जब आईटी की स्थिति सुधरी उनमें से काफी वापस लौट गए। महत्वाकांक्षी युवा बैंक की जगह दूसरी नौकरियों को तवज्जो दे रहे हैं।

बैंकों में कर्मचारियों की कमी का यह एक प्रमुख कारण है। इसलिए क्योंकि बैंकिंग में भर्ती करने वाली संस्था आईबीपीएस का अपना कैलेंडर होता है वो साल में एक ही बार परीक्षा कराता है और एसबीआई का अपना सेलेक्शन बोर्ड है। ऐसे में बड़ी संख्या में युवओं के बैंकों में नौकरियां छोड़ देने से इतनी रिक्तियां हो जाती हैं कि अगले कुछ सालों तक वही पूरी नहीं होतीं।

देना बैंक में कर्मचारी संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष एसएस प्रसाद बताते हैं, “बैंक कर्मचारियों की हालत बहुत खराब हैं। हमारी ब्रांच की संख्या 1200 से बढ़कर 1800 हो गई हैं लेकिन कर्मचारियों की संख्या वैसे नहीं बढ़ी। जबकि हमारे बैंक के चेयरमैन ही भारतीय बैंक समूह के अध्यक्ष हैं। बैंकों में अधिकारी ही नहीं हैं।” ये सब ऐसे समय में जब बैंकों पर पिछले कुछ वर्षों में काम का दबाव बढ़ा है। देश के सबसे बड़े राज्य की ही बात करें तो बैंकों की राज्य स्तरीय कमेटी से मिली जानकारी के अनुसार 20 अप्रैल 2016 तक यूपी में तीन करोड़ 23 लाख सिर्फ जनधन योजना के तहत खुले हैं। इनमें से एक करोड़ 96 लाख खाते ग्रामीण इलाकों में हैं।

गैस सब्सिडी, मनरेगा, समाजवादी पेंशन, प्रधानमंत्री फसल सुरक्षा, तमाम दूसरे काम बैंकों के जिम्मे आ गए हैं, ऐसे में कर्मचारी काफी दबाव में हैं। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के साथ ही कमोबेश यही हालात राष्ट्रीय बैंकों (एसबीआई और आरबीआई को छोड़कर) में भी हैं। बैंक सेक्टर में घटी युवाओं की रुचि कोचिंग सेंटर की कम होती भीड़ से भी लगाई जा सकती है।

लखनऊ समेत कई शहरों में कोचिंग सेक्टर में काम कर चुके अभय दीक्षित फिलहाल भोपाल में एक कोचिंग के सेंटर मैनेजर हैं। उन्होंने फोन पर बताया, “चार-पांच साल पहले बी ग्रेड शहर में 50-60 हजार छात्र बैंकों की तैयारी के लिए कोचिंग करते थे, लेकिन अब उनकी संख्या 30-40 फीसदी घट गई है। कोचिंग सेंटर भी अब आईबीपीएस के साथ एसएससी की तैयारी कराने लगे हैं। बैंक की अपेक्षा युवा अब एसएससी को तरजीह दे रहे हैं।” वो आगे बताते हैं, “पहले बैंक की नौकरी सुकून की होती थी, लेकिन अब जॉब रोल में मार्केटिंग का दबाव आ गया है।

अधिकारी पर बिजनेस बढ़ाने का दबाव डाला जाता है, तो वो कर्मचारियों पर दवाब डालता है। हर काम बैंक से होता है, पेपरलेस, डिजिटलाइजेश की बात हो रही है लेकिन बैंक में इंटरनेट तक दुरुस्त नहीं हैं। झुंझलाहट में युवा नौकरी के विकल्प तलाशता है।” इंस्टीट्यूट ऑफ बैंकिंग एंड पर्नल सेलेक्शन (आईबीपीएस) में वर्ष 2014 में क्लर्क के लिए करीब साढ़े छह लाख लोगों ने परीक्षा दी थी। बावजूद इसके कर्मचारियों की कमी पूरी नहीं हो रही है। काशी गोमती संयुत बैंक में महाप्रबंधक भोला प्रसाद बताते हैं, “बैंक का काम बहुत जिम्मेदारी और दबाव वाला होता है। पैकेज (वेतन) अपेक्षाक्रत दूसरे सेक्टर से काफी कम है इसलिए वो इन बैकों में नौकरी मिलने के बाद छोड़ जाते हैं। दूसरी समस्या तकनीकि की है जो अपग्रेड नहीं है। सर्वर ठप होने से बड़ी दिक्कत है। कंप्टरीकृत शाखाएं हैं इंटरनेट नहीं तो सब काम ठप हो जाता है।”

रिपोर्टर - अरविंद शुक्ला/दिवा सिंह

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