कोरोना के खिलाफ पोस्टर्स से जंग कर जीता जग, 'आशा' रंजना दुनिया की तीन प्रभावशाली महिलाओं में शुमार

मध्य प्रदेश के जिला रीवा की आशा कार्यकर्ता रंजना द्विवेदी कोरोना वारियर्स के रूप में आज पूरी दुनिया के लिए मिसाल बन गयी हैं। अमेरिका की एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने उन्हें विश्व की 19 में से पहली तीन प्रभावशाली महिलाओं में शुमार किया है जो अनूठे अंदाज से कोरोना के खिलाफ लड़ाई लड़ रही हैं।

Sunil Kumar GuptaSunil Kumar Gupta   10 Nov 2020 4:30 AM GMT

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asha, ranjna dwivediरंजना ने इसी तरह के पोस्टर से लोगों को कारोना के प्रति जागरूक किया। सभी तस्वीरें- सुनील कुमार गुप्ता

सुनील कुमार गुप्ता

रीवा (मध्य प्रदेश)। किसी की मुस्कुराहटों पर हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है...1959 में आई राजकपूर की अनाड़ी फिल्म के इंसानियत के जज्बे से भरे इस गीत का अगर रूबरू अहसास करना हो, तो मिलिए रंजना द्विवेदी से। यह नाम है मध्य प्रदेश के रीवा जिला मुख्यालय से करीब 95 किलोमीटर दूर जवा ब्लॉक के पहाड़ों, जंगलों, जानवरों और हथियारबंद लुटरों की दहशत से घिरे गांव गुरगुदा की साहसी आशा कार्यकर्ता का, जिसने कोरोना महामारी के जोखिम के बीच लोगों को अपने अनोखे 'पोस्टर वार' से जगाने और बचाने का काम किया है और अब उनके प्रयास को दुनियाभर में सराहा जा रहा है।

आज रंजना और उनकी कर्मस्थली गुरगुदा गांव का नाम दुनिया के नक्शे पर छा गया है। रंजना को अमेरिका की अंतर्राष्ट्रीय संस्था नेशनल पब्लिक रेडियो (NPR.ORG) ने विश्व की 19 में से पहली तीन प्रभावशाली महिलाओं की में शुमार किया है, जो अपने अनूठे अंदाज से कोरोना के खिलाफ लड़ाई में नेतृत्वकारी भूमिका निभा रही हैं। कोरोना वारियर्स के रूप में आशा कार्यकर्ता रंजना आज एक मिसाल बन गई हैं।

रंजना के अलावा एनपीआर डाट ओआरजी की प्रभावशाली महिलाओं की सूची में आइसलैंड की स्वास्थ्य निदेशक डॉक्टर अल्मा-डि-मोलेर और कैलिफोर्निया की कोविड-19 परीक्षण इकाई में काम रही अफगानिस्तान की शीबा शफाक हैं। शीबा को जान का खतरा होने के कारण अफगानिस्तान छोड़ना और अमेरिका आना पड़ा था। एनपीआर एक गैर-लाभकारी अमेरिकन मीडिया संगठन है।

यूं तो पूरे देश में 10 लाख से ज्यादा आशा कार्यकर्ता हैं, जो राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत शहरी और ग्रामीण इलाकों में राज्यों के स्वास्थ्य कार्यक्रमों, मातृ-शिशु सेवाएं, परिवार कल्याण, गर्भवती महिलाओं की देखभाल, कुपोषण नियंत्रण, सर्वेक्षण, डेंगू, मलेरिया, टीकाकरण जैसे 60 सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रमों में अपनी सेवाएं दे रही हैं।

आशा कार्यकर्ताओं के कामों की इस लंबी सूची में अब कोरोना भी शामिल हो गया है। ये सभी अपने अपने-अपने तरीकों से कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए लोगों को जागरूक कर रही हैं। इन्हीं में से एक गुरगुदा गांव की आशा कार्यकर्ता रंजना द्विवेदी, जिन्हें लोग "आशा दीदी" के नाम से पुकारते हैं। कोरोना के प्रति लोगों को जागरूक करने के मकसद से उन्होंने खुद तैयार किए पोस्टरों को लड़ाई का हथियार बनाया।

लोगों को कोरोना के प्रति जागरू करने के लिए रंजना द्वारा बनाये गये पोस्टर।

पोस्टरों के लिए उन्होंने गांव से ही किरदार निकाले और उनके बीच से ही कहानियां रचीं। इन पोस्टरों से वह न सिर्फ गांव वालों को कोरोना व अन्य बीमारियों के बारे में समझाती हैं, बल्कि इन पोस्टरों को ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया जैसे प्लेटफार्म्स पर भी साझा करती हैं, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को जागरूक कर सकें। ट्विटर के रास्ते चले पोस्टर भारत सरकार के ट्विटर हैंडल के मार्फत वाशिंगटन की एनपीआर संस्था की नजर में आए।

रंजना भारत की ओर से अकेली प्रतिनिधि हैं, जिन्हें नेशनल पब्लिक रेडियो ने दुनिया भर की उन 19 महिलाओं की डाक्यूमेंट्री में दिखाया है, जिन्होंने अपनी चुनौतियों को साझा करते हुए बताया कि वह अपने प्रयासों से किस तरह कोरोना की भयावह महामारी को मात दे रही हैं। इन महिलाओं की स्टोरीज सितंबर से अक्टूबर माह के दरम्यान दुनिया के सामने लाई गईं।

पहले दौर में 19 प्रभावशाली महिलाओं की सूची में शुमार होने के बाद रंजना की दूसरी स्टोरी आई और वह दुनिया की शीर्ष 9 महिलाओं में और फिर तीसरी स्टोरी प्रकाशित हुई, जिसमें तमाम कठिनाईयों के बावजूद स्वास्थ्य सुरक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली विश्व की तीन प्रभावशाली महिलाओं की सूची में तीसरा स्थान मिला।

टीकाकरण करतीं रंजना द्विवेदी।

"गांव कनेक्शन" के लिए हमने विस्तार से रंजना से उनके संघर्ष, उनकी चुनौतियों, कोरोना महामारी से जंग और उपलब्धियों को लेकर बात की। उन्होंने हमें बताया कि रीवा के जवा ब्लाक में 30-35 किलोमीटर दूर दुर्गम पहाड़ियों, जंगलों के बीच बसा और 500 की आबादी वाला गांव है गुरगुदा। गांव में न यहां कोई आदिवासी है, न अनुसूचित जाति, न सामान्य वर्ग, केवल पाल और केवट जाति के लोग रहते हैं, जो पिछड़े वर्ग में आते हैं। गांव तक पहुंचने के लिए विशाल टमस नदी पार करनी होती है, जिस पर पावर प्रोजेक्ट चल रहा है और बिजली बनाई जाती है।

बैचलर और आर्टस (B.A.) में स्नातक रंजना गुरगुदा गांव में सन् 2011 से आशा कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही हैं। वह हिन्दी के साथ मिली-जुली बघेली भाषा की मिठास भरी बोली में बताती हैं "जब हम आशा कार्यकर्ता की नौकरी करने गांव गए तो वहां की महिलाएं बिल्कुलै नहीं सुनती थीं, डरती थीं टीकाकरण के नाम से। बोलती थीं, टीका से बुखार आता है, इससे कुछ नहीं होता, हमारे बच्चे सब स्वस्थ हैं। हम समझाते, तब भी नहीं मानती, हम थक हार के वापस आ जाते।

रंजना को उनकी उपलब्धि के लिए जिले में भी सम्मानित किया जा रहा।

रंजना कहती हैं "कई महिलाएं तो घर में रहकर भी जंगल में लकड़ी काटने जाने की बात बच्चों से कहला देती थीं या पास नहीं आती थीं, देखने पर छिप जाती थीं या इंजेक्शन के डर से जंगल भाग जाती थी, कभी-कभी बहुत झगड़ा करती थीं, हमें डांटती थीं। हम उनकी डांट को नजरअंदाज करते और हर बार समझाते और उदाहरण देते हुए उनकी भाषा में बताते कि बच्चों को टीका न लगने से क्या-क्या होता है, फिर पोस्टर बनाकर उसके माध्यम से बताते। पोलियो के बारे में पोस्टरों से समझाया कि यह बीमारी कितनी भयानक होती है। उनसे कहते कि बच्चों की जिंदगी न बरबाद करिए। सारे टीके लगे होंगे, तो बच्चे कहीं भी रहेंगे तो जीवन स्वस्थ रहेगा। 8-9 साल की मेहनत के बाद अब गुरगुदा की महिलाएं बहुत समझदार हो गई हैं, जो कहते हैं, मान लेती हैं।"

इस बीच जनवरी की कड़कड़ाती ठंड में हम नदी में दो बार गिरे भी, निमोनिया भी हो गया, लेकिन हमने हार नहीं मानी। रंजना कहती हैं कि शुरूआत में बहुत दिक्कत हुई थी, लेकिन धीरे-धीरे टीकाकरण और अन्य बीमारियों के इलाज के लिए समझाने, महिलाओं को इलाज, प्रसूति के लिए नाव से टमस नदी को पार कराके अस्पताल ले जाने की सक्रियता के चलते 8-10 साल की मेहनत के बाद अब महिलाएं खुद आने का इंतजार करती हैं।

रंजना ऐसे पोस्टर्स से ग्रामीणों को जागरूक करती रही हैं।

रंजना खुद जवा ब्लाक के ही कौनी रूकौली गांव में रहती हैं। वह बताती हैं कि गुरगुदा गांव तक पहुंचने के लिए दो तरफ से रास्ते हैं। एक रास्ता कम दूरी वाला है, लेकिन वहां से नहीं जाते, क्योंकि यह रास्ता घने जंगल से होकर गुजरता है। जंगल में हथियार बंद लुटेरों, डाकुओं के साथ-साथ जंगली जानवरों का बहुत ज्यादा खतरा रहता है। दूसरा टमस नदी वाला रास्ता लंबा जरूर है, पैसा भी काफी खर्च होता है। नाव से नदी पार करने के बाद 3-4 किलोमीटर का रास्ता पैदल और पहाड़ के किनारे-किनारे तय करना होता है, रास्ते में छोटी-छोटी बस्तियां पड़ने की वजह से इलाका सुरक्षित है। गांव पहुंचते हुए बहुत थकावट हो जाती है, लेकिन जब हम महिलाओं से मिलते हैं और उनकी खुशी देखते हैं, तो सारी थकावट खत्म हो जाती है।

रंजना बताती है कि "जैसे शुरूआत में टीकाकरण में दिक्कत आई थी, वैसे ही कोरोना महामारी के दौरान आई। कोरोना संक्रमण फैला तो मेहनत मजदूरी, निजी उद्योगों के लिए दूसरे शहरों, प्रदेशों में गए स्त्री-पुरुष अपने-अपने लौटने लगे, तो हम गांव जाकर ऐसे परिवारों को आने वालों से दूरी बनाकर रखने, मास्क लगाने-हाथ धोने के लिए समझाने लगे। बाहर से आने वालों की जानकारी रखने, ब्लाक में जांच कराने, स्कूल और पंचायत भवन में 14 दिन तक ऐसे लोगों को क्वारंटीन रखने कि जिम्मेदारी भी हम पर ही थी।"

"क्वारंटीन के बाद जब लोग घर आ जाते तो हम कहते कि जब भी घर से निकलो तो मास्क लगाकर निकलो और भीड़भाड़ वाली जगह में मत जाओ, कोरोना के शिकार हो सकते हो। कई लोग तो हमारी बातों पर हंस भी देते, मजाक भी उड़ाते और कहते कि कोरोना-वोराना कुछ नहीं होता। ऐसे में हमें उनको डांटना भी पड़ा, कहा कि इसे हल्के में मत लो। हमने गांव कोई भी चीज छूने पर बार-बार साबुन से हाथ धोने के लिए प्रोत्साहित भी किया।" वे आगे कहती हैं।

महिलाओं को जागरूक करतीं आशा कार्यकर्ता रंजना

रंजना आगे बताती हैं कि यह वो समय था, जब लाकडाउन के चलते लोगों को घर से निकलने की मनाही थी, लेकिन हमने सावधानी के साथ जोखिम लेते हुए पूरी जिम्मेदारी से काम किया। महिलाओं को हमने ज्यादा टारगेट किया, क्योंकि महिलाएं जिम्मेदारी से काम करती हैं। कोरोना को लेकर लोगों को जागरूक करने के लिए हमने पोस्टर का इस्तेमाल किया। मैं पेंटिंग करना जानती थी, इसलिए लोगों को समझाने के लिए लाइन स्केच वाले पोस्टर बनाए। पोस्टर्स में गांव के ही किरदार लेकर गांव की ही कहानियां बनाईं। पोस्टरों माध्यम से संदेश दिया, कि "देखो रवि (काल्पनिक नाम) ने गलती की, इसलिए आज उसे कोरोना हुआ, इसलिए गलती मत करो। स्वच्छ रहेंगे, साफ रहेंगे तो स्वस्थ रहेंगे। मास्क लगाकर रहेंगे और सोशल डिस्टिंसंग का पालन करेंगे तो हमारे गांव में कोरोना नहीं आएगा।

यह भी पढ़ें-कभी घर-घर सर्वे, कभी थोड़ी जासूसी, कभी ढोलक की थाप: कौन हैं ये गुमनाम "कोरोना वॉरियर्स", महामारी से लड़ती हुई ये दस लाख की पैदल सेना ?

पोस्टरों पर लिखा कि कोरोना से बचने के लिए क्या करना और क्या नहीं करना है।" मेरे 21 साल के बेटे ने इन पोस्टरों को बनाने और सोशल मीडिया पर डालने में मदद की। पोस्टरों के माध्यम से समझाने का यह सिलसिला लगातार जारी है। यही वजह है कि गुरगुदा गांव में आज तक कोरोना का एक भी मरीज नहीं निकला, जबकि हमारे ब्लाक के .आसपास के बहुत सारे गांवों में कोरोना के मरीज पाए गए, लेकिन गुरगुदा में नहीं।

दुनिया में नाम होने से खुश हैं रंजना

दुनिया में गुरगुदा की कोरोना से जंग में सफलता की कहानी वाशिंगटन की एनपीआर की मैगजीन में छपने और डाक्यूमेंट्री प्रसारित होने से रंजना बेहद खुश हैं। वह कहती हैं "यह तो हमारा काम था, इसे तो हम करते ही। न कोई अहसास था कि हम जंगल में काम करके कोई बड़ी बात कर रहे, आगे भी ऐसे ही काम करते रहेंगे। पोस्टर बनाकर हम पहले भी लोगों को जागरूक कर रहे थे, लेकिन सोशल मीडिया पर शेयर नहीं करते थे। कोरोना महामारी आने पर इससे बचने और सावधान रहने की बात लोगों तक पहुंचाने के लिए पोस्टर बनाए, सोशल मीडिया पर डाले, लेकिन हमारा और गांव का इतना नाम होगा, कभी सोचा न था।"


रंजना के मुताबिक जिला, ब्लॉक के अधिकारी बहुत खुश हैं, हमें बधाई देते हुए कहते हैं कि जो काम हम अधिकारी होकर नहीं कर पाए, वह आशा कार्यकर्ता के रूप में हमारी एक छोटी सी कड़ी "आशादीदी" रंजना ने हमें विश्व में शामिल करा दिया। रंजना कहती हैं "हमारे जिले, हमारे ब्लाक, हमारे गांव, हमारे देश का नाम ऊंचा हो गया, इससे ज्यादा और क्या चाहिए। सबसे बड़ी बात ये है कि हम किसी मकसद के काम आ सके। किसी के चेहरे पर खुशी देखने से मुझे खुशी मिलती है, इसलिए मैं आशा कार्यकर्ता का काम करती हूं। हर महिला में मैं खुद को और हर बच्चे में अपने बच्चों का अक्स देखती हूं।"

गुरगुदा की उपलब्धि

रंजना बताती हैं कि जबसे हम इस गांव में काम कर रहे हैं, तब से यहां न मातृ मृत्यु हुई है, न शिशु मृत्यु । यह बड़ी उपलब्धि है। गांव में लिंग भेद जैसी बुराई को खत्म करने में कामयाबी मिली है। यहां लोग वैसे तो लड़का-लड़की दोनों को महत्व देते हैं, लेकिन लड़के को वरीयता देने की मानसिकता से अभी भी कभी-कभी देखने को मिल जाती है। रंजना एक कहानी सुनाते हुए कहती हैं कि एक महिला की दो लड़कियां थीं, लेकिन परिवार नियोजन के लिए समझाने के बाद भी नहीं मानी और बोली कि एक बार और बेटे के लिए कोशिश करना चाहती हूं। प्रसव में उसने फिर एक लड़की को जन्म दिया। वो रोने लगी, पति भी रोने लगा। यह देखकर हमें बहुत दुख हुआ, सोचा कि कैसे इनका दुख कम करें। फिर हम बोले कि तुम मत रो, यह तुम्हारी नहीं, आज से ये मेरी बेटी है, अभी हम इसे लेकर जा रहे हैं। तो रोते पति-पत्नी के चेहरे पर मुस्कान आ गई। दोनों हंसे तो हमको बहुत अच्छा लगा। जब हम महिला को अस्पताल से छुट्टी दिलवाने गए, तो पता चला कि उस महिला ने अपनी नवजात बेटी का नाम रंजना लिखवाया था। उस पल की खुशी को मैं बयां नहीं कर पाती।

  

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