कॉलेस्ट्रॉल को लेकर आज भी हैं अनेक विवाद

हम अक्सर सुनते रहते हैं कि कॉलेस्ट्राल के अलग-अलग प्रकार होते हैं, लेकिन कॉलेस्ट्रॉल के प्रकारों को लेकर वैज्ञानिक खेमों में अलग-अलग तरह की बहसें होती रही हैं, आखिर इस विवाद की शुरुआत कैसे हुई और क्यों कॉलेस्ट्रॉल के प्रकारों को लेकर अब तक बहस होती चली आ रही है?

Deepak AcharyaDeepak Acharya   9 July 2019 10:58 AM GMT

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कॉलेस्ट्रॉल को लेकर आज भी हैं अनेक विवाद

आपका कॉलेस्ट्रॉल बढ़ा हुआ है? आपके डॉक्टर साहब ने आपको कॉलेस्ट्रॉल के अलग-अलग प्रकारों के बारे में बताया है? आपको अपने कॉलेस्ट्रॉल के लेवल पर ध्यान देने की जरूरत है... क्या आप ब्लड टेस्ट करवाने जा रहे? क्या आप कॉलेस्ट्रॉल मैनेजमेंट के लिए स्टेटिन दवाओं का सेवन करते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि आप भ्रम के एक अलग विज्ञान के शिकार हो रहे हैं क्योंकि अनेक मेडिकल एक्टिविस्ट्स कॉलेस्ट्रॉल को सीधे-सीधे बाज़ार का हथकंडा मानते हैं और उनके बताए लॉजिक्स या तथ्यों पर गौर फरमाया जाए तो भौं का तन जाना तय है।

इन एक्टिविस्ट्स का दावा है कि कॉलेस्ट्रॉल सिर्फ एक ही होता है, और एचडीएल, एलडीएल, वीएल डीएल आदि कॉलेस्ट्रॉल नहीं हैं। इन्हें बेवजह 'अच्छा' और 'बुरा' कहा जाता है। मेरा भी मानना है कि कॉलेस्ट्रॉल तो हमारा स्वास्थ्य मित्र है फ़िर आखिर चिकित्सा बाज़ार में इसे लेकर इतना हौ-हल्ला क्यों है?

हम अक्सर सुनते रहते हैं कि कॉलेस्ट्राल के अलग-अलग प्रकार होते हैं, लेकिन कॉलेस्ट्रॉल के प्रकारों को लेकर वैज्ञानिक खेमों में अलग-अलग तरह की बहसें होती रही हैं। आखिर इस विवाद की शुरुआत कैसे हुई और क्यों कॉलेस्ट्रॉल के प्रकारों को लेकर अब तक बहस होती चली आ रही है?


कॉलेस्ट्रॉल की व्याख्या को लेकर है समस्या

दरअसल समस्या कॉलेस्ट्रॉल की व्याख्या को लेकर है। एचडीएल, एलडीएल, वीएल डीएल को कॉलेस्ट्रॉल के अलग-अलग प्रकार बताकर एक अजीब सा संशय पैदा किया जाता है। हेईदी स्टीवेंशन जानी मानी हेल्थ एक्टिविस्ट हैं जो बेहतर सेहत के नाम तमाम मल्टीनेशनल कंपनियों द्वारा पिछले कई सालों से आधुनिक औषधियों के अनावश्यक और व्यापक बाजारीकरण का खुलकर विरोध कर रहीं हैं।

इनके अनुसार बाज़ार में सेहत के नाम पर भय और गलत जानकारियाँ देकर खूब पैसा लूटा जा रहा है और बदले में रोगियों की सेहत में दिन-ब-दिन गिरावट ही आ रही है। क्या वाकई कॉलेस्ट्रॉल का भय बताकर हमारी जेबें ढ़ीली करी जा रही हैं? सच बात यही है कि कॉलेस्ट्रॉल सिर्फ एक होता है, बाकि एचडीएल, एलडीएल, वीएल डीएल आदि कॉलेस्ट्रॉल नहीं, लिपोप्रोटीन है [लिपो (फैट) को ले जाने वाले प्रोटीन]।

जब भी हम अलग-अलग प्रकार के कॉलेस्ट्रॉल की बात सुनते हैं तो दरअसल अलग-अलग प्रकार के लिपोप्रोटीन की बात हो रही होती है। ये लिपोप्रोटीन हमारे शरीर की वसा (फैट) और कॉलेस्ट्रॉल को शरीर की तमाम कोशिकाओं तक पहुंचाने का काम करते हैं। स्टीवेंशन के अनुसार लिपोप्रोटीन के साथ कॉलेस्ट्रॉल को देखकर इन्हें भी कॉलेस्ट्रॉल समझना पागलपन है, या एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा।

स्टीवेंशन ने अपने एक लेख में जिक्र किया कि जब कॉलेस्ट्रॉल एक ही होता है तो हमें एचडीएल, एलडीएल, वीएल डीएल आदि प्रकारों की बात बताकर क्यों बहकाया जाता है? और इस बहकावे में ना सिर्फ रोगी हैं बल्कि अनेक डॉक्टर्स भी इसी भ्रम में हैं कि ये सब कॉलेस्ट्रॉल के ही प्रकार हैं।


आखिर क्यों है संशय?

आण्विक संरचना देखने पर पाया जाता है कि कॉलेस्ट्रॉल में मूलत: तीन प्रमुख हिस्से होते हैं जैसे हाइड्रोक्सिल समूह, रिंग्स और पूंछ। इन तीन हिस्सों में से 2 हिस्से पानी में घुलनशील नहीं हैं यानि रिंग्स और पूंछ पानी में अघुलनशील हैं और इन्हीं दोनों की वजह से कॉलेस्ट्राल हमारे शरीर के रक्त (खून) में घुल नहीं सकता इसलिए कॉलेस्ट्रॉल का शरीर के हर हिस्से तक पहुंचना जरूरी बनाने के लिए इसे एक वाहक की आवश्यकता होती है और ये वाहक लिपोप्रोटीन होते हैं। ठीक इसी बात को लेकर आमतौर पर संशय की स्थिति का निर्माण होता है।

लिपोप्रोटीन के अलग-अलग प्रकार होते हैं, हर एक लिपोप्रोटीन कॉलेस्ट्रॉल का वाहक है, यानी लिपोप्रोटीन खुद कॉलेस्ट्रॉल नहीं हैं वे सिर्फ बतौर वाहक कार्य संपादित करते हैं।

कॉलेस्ट्रॉल संबंधित गलत धारणा का इतिहास

सन 1889 में वैज्ञानिक लेहजन और नॉस ने एक 11 वर्षीय बालक की मृत्यु पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करी थी और रिपोर्ट में बताया गया कि बच्चे के जन्म से ही उसे हाइपर कॉलेस्ट्रोलेमिया की समस्या था। इस रोग के दौरान शरीर में अधिक से अत्यधिक कॉलेस्ट्रॉल बन जाता है जिसकी वजह से कई बार रोगी की मृत्यु तक हो जाती है।

ऐसा माना जाता है कि इस बालक की मृत्यु के बाद से ही माना जाने लगा कि कॉलेस्ट्रॉल ही बच्चे की मृत्यु का कारक हो सकता है। इस रिपोर्ट के बाद कई शोधें प्रस्तुत की गईं, जिन्हें प्रयोगशालेय जीवों पर क्लिनिकल ट्रायल की प्रक्रिया के तहत आजमाया भी गया।


सन 1955 में वैज्ञानिक एंसल कीस ने बताया कि हमारे शरीर में कॉलेस्ट्रॉल का स्तर सेवन किए गए खाद्य पदार्थों के आधार पर बढ़ता या घटता रहता है। कीस ने अपनी शोध रिपोर्ट में बताया कि ज्यादा वसीय पदार्थों को खाने से हृदयाघात होता है। हेईदी स्टीवेंशन के अनुसार एंसल कीस का अध्ययन पूर्व नियोजित तरीकों से प्रस्तुत किया गया था।

किसकी रिपोर्ट को ख़ारिज़ कर दिया

हेईदी ने अपने लेख 'कॉलेस्ट्रॉल इज़ फ्रेंड नॉट एनमी (कॉलेस्ट्रॉल दोस्त है दुश्मन नहीं)' में तीखी प्रतिक्रिया के साथ कीस की रिपोर्ट को खारिज़ कर दिया था। हेईदी कहती हैं कि "कीस ने धोखा दिया, उन्होनें जिन 22 देशों से अपने आंकड़े इकट्ठा किए थे उनमें से करीब 15 देशों ने कीस के परिणामों और निष्कर्ष पर विरोध जताया था क्योंकि इन 15 देशों में हुए अध्ययनों में इस बात की पुष्टि थी ही नहीं कि ज्यादा वसीय पदार्थों से हृदयाघात जैसा कुछ हुआ हो।"

कीस के अध्ययन की रिपोर्ट पर सिर्फ 7 देशों के परिणामों का हावीपन स्पष्ट दिखा। "यानी, जो परिणाम हमारे समक्ष आए वो पूर्व नियोजित तरीकों से लाए गए, किसी खास मंशा के साथ," अपने लेख में हेईदी ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में लिखा है।

कई हेल्थ एक्टिविस्ट्स मानते हैं कि आधुनिक विज्ञान ने कॉलेस्ट्रॉल को विलेन बना दिया है, सवाल उठता है कि आखिर क्यों? जवाब बेहद सादा और आसान है। हर इंडस्ट्री की तरह आधुनिक औषधि विज्ञान भी अपने उत्पादों को बेचना चाहता है, यानी लोग डॉक्टर्स तक जाएं, मिलें और दवाएं खाएं। अकेले कॉलेस्ट्रॉल को विलेन बना दिये जाने से विकसित और विकासशील देशों का एक बड़ा तबका औषधि बाज़ार का नियमित ग्राहक बन गया।


ख़ौफ़ का एक बाज़ार तय कर रहे

हेईदी जैसे अनेक हेल्थ एक्टिविस्ट्स हैं जो एक के बाद एक लाए जाने वाली घातक शोध रिपोर्ट्स को चैलेंज किए जा रहे हैं। हॉलैंड के मेडिकल एक्टिविस्ट जोनाथन हिस ने सबसे पहले अपने दावों के साथ ये बता दिया कि वैज्ञानिकों की एक जमात किस तरह से अलग-अलग प्रकार के कॉलेस्ट्रॉल के नाम पर शोध करके नए-नए डेटा लाकर खौफ का एक बाज़ार तय कर रहे हैं और भी मल्टीनेशनल कंपनियों के इशारों पर।

कॉलेस्ट्रॉल पानी में घुलते नहीं इसलिए इन्हें शरीर की कोशिकाओं तक ले जाने का जिम्मा लिपोप्रोटीन्स के पास है। लिपोप्रोटीन के साथ कॉलेस्ट्रॉल को देखकर इन्हें भी कॉलेस्ट्रॉल समझना पागलपन है, या एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा। एचडीएल, एलडीएल, वीएल डीएल का नाम तो हम सब ने खूब सुना है लेकिन कभी क्ल्योमाइक्रोन्स का नाम नहीं सुना होगा।

ये ज्यादा बड़े लिपोप्रोटीन्स हैं लेकिन अब इसके आकलन के लिए ब्लड का कौन सा टेस्ट किया जाए किसी को आइडिया नहीं है इसलिए इसका कोई जिक्र ही नहीं करता है। हमें तो उन्हीं बातों और कारकों के लेकर धमकाया या डराया जाता है जिनका परिक्षण करना पैथोलॉजी लैब को आता है।

बात समझ से परे है

अब एक बात मेरी भी समझ से परे हैं कि जो सबसे ज्यादा एक्टिव लिपोप्रोटीन है, उसके परिक्षण का ही अता-पता नहीं है तो डॉक्टर्स को पता कैसे चलेगा कि कौन सी दवा दी जाए जिससे लिपोप्रोटीन के स्तर को सामान्य रखा जा सकेगा?


आख़िर क्या है वीएल डीएल, एचडीएल और एलडीएल?

हम अक्सर वीएलडीएल (वेरी लो डेन्सिटी लिपोप्रोटीन) के बारे में नहीं सुनते हैं क्योंकि इसके आकलन के लिए भी अब तक कोई तय टेस्ट या परिक्षण उपलब्ध नहीं हैं, जब भी इसका जिक्र आता है तो हमें एक अंदाजे के साथ इसकी रीडिंग बतायी जाती है और ये अंदाज़ा भी ट्रायग्लिसेरायड के अनुपात के आधार पर तय किया जाता है।

वीएलडीएल ट्रायग्लिसेरायड के रूप में अपने साथ वसा को शरीर के तमाम हिस्सों तक ले जाते हैं, ये अपने साथ कॉलेस्ट्रॉल को भी ले जाते हैं किंतु इसे रिलीज नहीं करते यानि कॉलेस्ट्रॉल वीएलडीएल के साथ ही संलग्न रहते हैं। जब वीएलडीएल से ज्यादातर वसा को त्याग दिया जाता है तो इन्हें आईडीएल (इंटरमीडिएट डेन्सिटी लिपोप्रोटीन्स) कहा जाता है।

आईडीएल जब सारी की सारी वसा को कोशिकाओं तक त्याग आता है तो ये एलडीएल (लो डेंसिटी लिपोप्रोटीन) बन जाता है। सामान्य तौर से लोग एलडीएल को ही बुरा कॉलेस्ट्रॉल कहते हैं। एलडीएल कॉलेस्ट्रॉल त्यागने में भी सक्षम होता है। आधुनिक शोध परिणामों पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि जब एलडीएल अपने साथ समाहित कॉलेस्ट्रॉल को भी त्याग देता है तो ये अत्यंत सूक्ष्म आकार का हो जाता है और धमनियों की आंतरिक सतह से चिपक जाता है और चिपकने के बाद ऑक्सिडाईज भी होता है जिससे धमनियों में इन्फ्लेमेशन होता है और धमनियों को हानि पहुंचती है।


अब ये शोध परिणाम सच हैं या नहीं

अब ये शोध परिणाम सच हैं या नहीं, वो बात अलग है लेकिन एक बात तो तय है कि धमनियों को नुकसान कॉलेस्ट्रॉल की वजह से नहीं होता क्योंकि एलडीएल की मदद से कॉलेस्ट्रॉल कोशिकाओं तक पहले ही पहुंचा दिया गया होता है।

एचडीएल (हाइ डेंसिटी लिपोप्रोटीन्स) अक्सर 'अच्छे कॉलेस्ट्रॉल' के नाम से जाने जाते हैं। एचडीएल के अनेक कार्य हैं जिनमें से प्रमुख कार्य कॉलेस्ट्रॉल को कोशिकाओं तक ले जाना किंतु एचडीएल कॉलेस्ट्रॉल को ना सिर्फ कोशिकाओं तक ले जाता है बल्कि इन्हें कोशिकाओं से लेकर यकृत (लीवर) तक भी पहुंचाता है और यकृत तय करता है कि कॉलेस्ट्रॉल को नष्ट किया जाए या पुन: उपयोग में लिया जाए।

यकृत शरीर में कॉलेस्ट्रॉल मैनेजमेंट का कार्य करता है, ना कि एचडीएल मैनेजमैंट। एचडीएल ऑक्सिडेटिव एंजाइम्स को भी एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में मदद करता है और शायद इसी वजह से इसे अच्छे कॉलेस्ट्रॉल की संज्ञा दी गयी है।

कॉलेस्ट्रॉल- एक दानव?

ज्यों-ज्यों कॉलेस्ट्रॉल को लेकर नयी-नयी शोध आना शुरू हुयी, त्यों-त्यों हृदयाघात की घटना भी बढ़ती चली गयीं। जब आधुनिक विज्ञान ने इतना सब कुछ शोध परिणामों के जरिये दुनिया के सामने ला ही दिया है तो फिर हृदयाघात की घटनाओं पर काबू होने के बजाए बढोतरी क्यों होने लगी? यानी, कुछ तो कुछ गड़बड़ है। ये बात शायद आसानी से ना पच पाए, पर विषय की गंभीरता पर खुला संवाद बेहद जरूरी है आखिर सवाल हम सब की सेहत का है। कॉलेस्ट्रॉल सिर्फ एक होता है जिसकी हमारे शरीर को बेहद आवश्यकता है, विटामिन डी3 बनने के लिए इसकी आवश्यकता होती है जो हमारे मस्तिष्क की सुचारु क्रियाविधि के अतिआवश्यक है, इसके बगैर हमारी याददाश्त काम नहीं करेगी।


अब यदि हमें हमारी ब्लड रिपोर्ट देखकर बढ़े हुए कॉलेस्ट्रॉल के निपटारे के लिए स्टेटिन खिलाया जाएगा तो आहिस्ता-आहिस्ता हमारी याददाश्त का क्षय होना तय है और ऐसे में हमारे शरीर में कॉर्टिकोस्टेरॉयड्स, टेस्टोस्टेरॉन और एस्ट्रोजन बनने की प्रक्रिया भी बाधित होगी। यदि हमारे लिपोप्रोटीन के स्तर में समस्या है या हमें लिपोप्रोटीन से जुड़ी कोई अन्य समस्या है तो उसके उपाय के लिए कॉलेस्ट्रॉल को कम करना कितना उचित है? लिपोप्रोटीन की समस्या समाधान के लिए कॉलेस्ट्रॉल को टारगेट क्यों किया जाए? तीर कहीं और जा रहा है क्योंकि निशाना कहीं और लगाया गया है।

हेईदी स्टीवेंशन कहती हैं कि यदि आप अपनी सेहत से प्यार करते हैं तो बढ़ते या घटते हुए कॉलेस्ट्रॉल की चेतावनी पर ध्यान देना बंद कर दें, जब आपके चिकित्सक आपको हाइपरकॉलेस्ट्रोलेमिया (जिसकी संभावन अत्यंत कम है) का रोगी बताएं तो जरूर कॉलेस्ट्रॉल के स्तर को लेकर फिक्रमंद हो जाएं।

हाँ, अगर आपको लिपोप्रोटीन से समस्या है तो कॉलेस्ट्रॉल को कम करने और स्टेटिन्स को लेने से समस्या का समाधान नहीं होगा बल्कि इनके साइड इफेक्ट्स को झेलने के लिए आपको हमेशा तैयार रहने पड़ेगा। अंत में सबसे बड़ी बात- याद रखें, कॉलेस्ट्रॉल को ब्लड टेस्ट से नहीं आंका जा सकता, लिपोप्रोटीन्स को आंका जाता है और लिपोप्रोटीन्स कभी भी कॉलेस्ट्रॉल नहीं हैं।

   

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